राजनीति

1975 का आपातकाल नाज़ी शासन जैसा

लालकृष्ण आडवाणी

‘कांग्रेस और भारत राष्ट्र निर्माण (Congress and the making of the Indian Nation) शीर्षक से कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रकाशित 172 पृष्ठीय पुस्तक के मात्र दो पैराग्राफों में देश को बताया गया है कि 1975-77 के आपातकाल में क्या हुआ। ये दो पैराग्राफ निम्न है:

”आपातकाल की अवधि के दौरान सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया और मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे, महागठजोड़ के नेता गिरफ्तार हुए और प्रेस सेंसरशिप तथा कड़ा अनुशासन लागू किया गया। घोर साम्प्रदायिक और वामपंथी संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। आपातकाल के 19 महीनों में एक लाख से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए। न्यायपालिका की शक्तियां जबर्दस्त रुप से घटा दी गईं। सरकार और दल की असीमित शक्ति प्रधानमंत्री के हाथों में केंद्रित हो गई।

सामान्य प्रशासन सुधरने के चलते शुरु में जनता के बहुत बड़े वर्ग ने इसका स्वागत किया। लेकिन नागरिक अधिकार कार्र्यकत्ताओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का विरोध किया। दुर्भाग्य से, कुछ क्षेत्रों में अति उत्साह के चलते जबरन नसबंदी और स्लम उन्मूलन जैसे कुछ कार्यक्रमों में क्रियान्वयन अनिवार्यता बन गई। तक तक संजय गांधी महत्वपूर्ण नेता के रुप में उभर चुके थे। परिवार नियोजन को उनके समर्थन के चलते सरकार ने इसे और उत्साह से लागू करने का फैसला किया। उन्होंने भी स्लम उन्मूलन, दहेज विरोधी कदमों और साक्षरता बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन दिया लेकिन मनमाने और तानाशाही तरीके से जोकि लोकप्रिय जनमत की इच्छा के विरुध्द थे।”

इन दोनों पैराग्राफों से पहले दो पूरे पृष्ठों में उन दो तत्वों का उल्लेख किया गया है जिनके चलते आपातकाल लगाना पड़ा, एक जयप्रकाश नारायण के ‘गैर-संवैधानिक और अलोकतांत्रिक आंदोलन‘ और दूसरी तरफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला जिसमें श्रीमती गांधी पर चुनावी कानूनों का उल्लंघन कर सीट जीतने और उनका निर्वाचन अवैध ठहराने – इन दो तत्वों को आपातकाल लगाने के लिए जिम्मेदार कर चिन्हित किया गया है।

इस पुस्तक से उद्दृत दूसरा पैराग्राफ आपातकाल में देश को भुगतने वाले सभी दुष्कर्मों के लिए संजय गांधी को बलि का बकरा बनाने का भौंडा प्रयास किया गया है। पिछले साठ वर्षों में, जब भी कार्यपालिका को कोई न्यायिक निर्णय प्रतिकूल लगा है तो उसकी प्रतिक्रिया विधायिका का समर्थन जुटाकर कार्यपालिका की मंशा के अनुरुप उस निर्णय को निष्प्रभावी करने की रही है। 1975 में भी यह चुनावी भ्रष्टाचार के सम्बंध में कानून में संशोधन करके किया गया। लेकिन श्रीमती गांधी इतने तक नहीं रुकीं। अपने मंत्रिमंडल, यहां तक कि विधि मंत्री और गृहमंत्री से परामर्श किए बैगर उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 लागू कराकर लोकतंत्र का अनिश्चितकाल के लिए निलम्बित करा दिया। कांग्रेस पार्टी का प्रकाशन आपातकाल में हुई सिर्फ ‘ज्यादतियों‘ पर खेद प्रकट करता है। क्योंकि संजय गांधी ने स्लम उन्मूलन, दहेज विरोधी कदमों और साक्षरता जैसे मूल्यवान मुद्दों को प्रोत्साहित किया परन्तु मनमाने और तानाशाही तरीकों से।

मैं, आपातकाल की घोषणा को ही लोकतंत्र के विरुध्द एक अक्षम्य अपराध मानता हूं और संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि स्वतंत्र भारत को कोई प्रधानमंत्री संविधान के अनुच्छेद 352 का ऐसा निर्लज्ज दुरुपयोग करेगा।

मैं इसलिए प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं कि हाल ही (नवम्बर, 2010) में सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल के संबंध न्यायाधीश में ए.एन. रे के बहुमत वाले निर्णय को गलत मानते हुए अकेले इसके विरोध में निर्णय देने वाले एच.आर. खन्ना के निर्णय पर मुहर लगाई है, आज जो देश का कानून है। फरवरी, 2009 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैय्या ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि 1976 का बहुमत वाला निर्णय ‘इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने‘ योग्य है।

कांग्रेस पार्टी ने स्वीकारा है कि आपातकाल के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में डाला गया। सही संख्या 1,10,806 थी। इनमें से 34,988 को मीसा कानून के तहत बंदी बनाया गया जिसमें उन्हें यह भी नहीं बताया गया कि बंदी बनाने के कारण क्या है: इन बंदियों में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, बालासाहेब देवरस और बड़ी संख्या में सांसद, विधायक तथा प्रमुख पत्रकार भी सम्मिलित थे।

लगभग अधिकांश मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की हुई थी। सभी स्थानों पर सरकार ने एक सी आपत्ति उठाई : आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलम्बित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए।

सरकार इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दण्डित भी किया। अपने बंदीकाल के दौरान मैं जो डायरी लिखता था उसमें मैंने 19 न्यायधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था !

16 दिसम्बर, 1975 की मेरी डायरी के अनुसार :

सर्वोच्च न्यायालय मीसा बन्दियों के पक्ष में दिये गये उच्च न्यायालय के फैसलों के विरूध्द भारत सरकार की अपील सुनवाई कर रहा है। इसमें हमारा केस भी है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निरेन डे से पूछा कि ‘संविधान की धारा 21 में केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि जिंदा रहने के अधिकार का भी उल्लेख है। क्या महान्यायवादी का यह भी अभिमत है कि चूंकि इस धारा को निलंबित कर दिया गया है और यह न्यायसंगत नहीं है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति मार डाला जाता है तो भी इसका कोई संवैधानिक इलाज नहीं है? निरेन डे ने कहा कि यह मेरे विवके को झकझोरता है, पर कानूनी स्थिति यही है।

इस अपील में बहुमत का निर्णय सुनाने वाली पीठ जिसमें मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे, न्यायाधीश एच.आर.खन्ना, एम.एच.बेग, वाई.वी.चन्द्रचूड़ और पी.एन. भगवती (न्यायाधीश खन्ना असहमत थे) ने घोषित किया : ”27 जून, 1975 के राष्ट्रपतीय आदेश के मुताबिक अनुच्छेद 226 के तहत किसी भी व्यक्ति को उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं है।

”अपील स्वीकार की जाती है। उच्च न्यायालयों के फैसले खारिज किए जाते हैं।”

अपने ऐतिहासिक असहमति वाले फैसले में न्यायमूर्ति खन्ना कहते हैं :

”जब संविधान बनाया जा रहा था तब जीवन और स्वतंत्रता की पवित्रता कुछ नहीं थी। यह उन उच्च मूल्यों के फलक का प्रतिनिधित्व भी करता है, जिन्हें मानव जाति ने आदिम अराजक व्यवस्था से एक सभ्य अस्तित्व के विकास क्रम में अपनाया। इसी प्रकार यह सिध्दान्त कि किसी को भी उसके जीवन और स्वतंत्रता से बगैर कानून के अधिकार के वंचित नहीं किया जाएगा भी स्वतंत्रता प्रदत्ता उपहार नहीं है। यह उस अवधारणा का अनिवार्य परिणाम है जो जीवन और स्वतंत्रता की पवित्रता से जुड़ी है; यह अस्तित्व में था और संविधान के पूर्व ही विद्यमान थी।

यह तर्क दिया गया कि जीवन और निजी स्वतंत्रता के पालन के अधिकार के लिए न्यायालय में जाने का किसी व्यक्ति का अधिकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत निलम्बित किया गया है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि परिणामीक परिस्थिति का अर्थ कानून के शासन की अनुपस्थिति होगी। मेरे मत में यह तर्क कानून के शासन की मिथ्या धारणा को कानून के शासन की वास्तविकता से तुलना करने पर टिक नहीं सकता। मान लीजिए, जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के मामले में कोई कानून बनाया जाता है, प्रशासनिक अधिकारीगण किसी भी कानून से संचालित नहीं होंगे और उनके लिए खुला होगा कि वे किसी भी कानूनी अधिकार के बगैर एक व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित कर सकें। एक तरह से, यह उन परिस्थितियों जिनमें सैकड़ों लोगों का जीवन सनकीपन और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बगैर कानूनी अधिकार के ले लिया जाए और तर्क यह दिया जाए कि यह तो उपरोक्त बनाए गए कानून का पालन है। अत: एक विशुध्द औपचारिक रुप में, कोई पध्दति या नियम जोकि आदेशों के तारतम्य में हैं, यहां तक कि नरसंहार आयोजित करने वाला नाजी शासन भी कानून की नजरों में योग्य ठहर सकता है।”

न्यायमूर्ति खन्ना का 25 फरवरी, 2008 को पिचानवें वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके द्वारा किए गए युगांतरकारी फैसले के बाद 30 अप्रैल, 1976 को द न्यूयार्क टाइम्स ने अपने सम्पादकीय में लिखा : यदि भारत कभी स्वतंत्रता और लोकतंत्र जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के पहले 18 वर्षों में सर्वोच्च विशिष्टता बनी रही को देखेगा तो कोई न कोई निश्चित रुप से न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना की मूर्ति सर्वोच्च न्यायालय में अवश्य स्थापित करेगा।”