कांग्रेस ने किया सत्ता की ताकत का दुरूपयोग
सुरेश हिंदुस्थानी
सत्ता की ताकत का दुरुपयोग कैसे किया जाता है, इसका उदाहरण कांग्रेस सरकार द्वारा 1975 में देश पर तानाशाही पूर्वक लगाया गया आपातकाल है। जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार ही समाप्त कर दिया था। इसे एक प्रकार से देश की आजादी को छीनने का दुस्साहसिक प्रयास भी माना जा सकता है। क्योंकि इंदिरा शासन द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल में सरकार के विरोध में आवाज उठाने को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया था। यहां तक कि सरकार ने विपक्ष की राजनीति करने वालों के साथ ही उन समाजसेवियों और राष्ट्रीय विचार के प्रति समर्पित उन संस्थाओं के व्यक्तियों को जेल में ठूंस दिया था, जो सरकार की कमियों के विरोध में लोकतांत्रिक तरीके से आवाज उठा रहे थे। सरकार के इस कदम को पूरी तरह से अलोकतांत्रिक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इंदिरा गांधी की सरकार ने अपनी सरकार के खिलाफ उठने वाली हर उस आवाज को दबाने का प्रयास किया, जो लोकतांत्रिक रूप से भी सही थी। वैसे देखा जाए तो कांग्रेस शासन का यही चरित्र रहा है कि उनके खिलाफ उठने वाली आवाज को किसी भी प्रकार से शांत किया जाए। आज भी कांग्रेस ठीक इसी पद्धति से काम करती हुई दिखाई दे रही है। कांग्रेस में लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बलि दी जाती रही है।
इसे कांग्रेस का स्वभाव ही माना जा सकता है कि उसने देश को मजबूत करने वाली आवाज को मुखर नहीं होने दिया। इसके विपरीत देश के विरोध में उठने वाली आवाज को बिना सोचे समझे अभिव्यक्ति की आजादी कहकर समर्थन किया। सीधे शब्दों में निरूपित किया जाए तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस को अपने विरोध में कही गई कोई बात जरा भी पसंद नहीं है। इसी कारण नेशनल हेराल्ड में जब जांच की बात आती है तो कांग्रेस के नेता एकजुट होकर ऐसा प्रदर्शन करते हैं, जैसे वही सही हैं और बाकी सभी गलत। कांग्रेस पार्टी ने एक नहीं कई बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्र विरोधी ताकतों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने काम किया है, लेकिन जो कांग्रेस गाहे बगाहे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करती रही है, उसने ही 25 और 26 जून 1975 की रात को आपातकाल लगाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरी तरह गला घोंट दिया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किस प्रकार कुठाराघात किया जाता है, इस तथ्य को जानने के लिए कांग्रेस के नेताओं को आपातकाल के काले अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। आपातकाल के नाम पर कांग्रेस ने अंग्रेजों से भी भयंकर यातनाएं देते हुए देश भक्तों पर कहर बरपाया। जिसके स्मरण मात्र से दिल में सिरहन दौड़ जाती है। जिन लोगों ने इस काली रात का साक्षात्कार किया, उनके अनुभव सुनने मात्र से ही लगता है कि इन्होंने आपातकाल को किस कदर भोगा होगा।
आपातकाल लगाने के पीछे के कारणों पर दृष्टिपात किया जाए तो यही तथ्य सामने आते हैं कि उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पूरी तरह से तानाशाह शासक की भूमिका में दिखाई दीं। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को ठेंगा बताते हुए अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया, यह प्रकार से सत्ता का दुरुपयोग ही था। वह निर्णय क्या था? इसकी जड़ में 1971 में हुए लोकसभा चुनाव था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को पराजित किया था, लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और उनके मुकाबले हारे और श्रीमती गांधी के चिर प्रतिद्वंद्वी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था। राजनारायण सिंह की दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। न्यायालय ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने से इनकार कर दिया और देश में आपातकाल घोषित कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के साथ ही गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गईं। इन्दिरा गांधी ने न्यायालय के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई। इंदिरा गांधी का यह कदम न्यायालय के आदेश का अपमान करने वाला ही था।
आपातकाल के नाम पर केवल उन्हीं लोगों को जेल में जबरदस्ती बंद किया था, जो सरकार के विरोधी थे। देश भर में इंदिरा शासन के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन खड़ा किया। आपातकाल में शासन, प्रशासन ने लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में हिस्सा लेने वाले हर उस व्यक्ति को प्रताड़ना दी, जो लोकतांत्रिक तरीके सरकार के विरोध में आवाज उठा रहे थे। विपक्षी राजनेताओं ने देश में केन्द्र सरकार के विरोध में ऐसा वातावरण बनाया कि इंदिरा गांधी को अपना सिंहासन हिलता हुआ दिखाई दिया। जॉर्ज फर्नांडीज को लोहे की जंजीरों से बांधकर यातनाएं दी गईं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। जिन लोगों ने यह दृश्य देखा, उनका यही कहना था कि ऐसा दृश्य तो अंग्रेजों के शासनकाल में भी नहीं दिखा। कहने का आशय यही है कि इंदिरा गांधी ने देश के लोकतंत्र का पूरी तरह से अपहरण कर लिया। इस दौरान जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया।
आपातकाल के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस आम आदमी की आवाज को कुचलने की निरंकुश कोशिश की। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती थी। मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। आपातकाल के खिलाफ आंदोलन के नायक जय प्रकाश नारायण की कैद के दौरान किडनी खराब हो गई थी। कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। इसलिए आज कभी-कभी कांग्रेस लोकतंत्र बचाने की बात ऐसे करती है, जैसे लोकतंत्र के मायने केवल कांग्रेस ही समझती है और कोई नहीं जानता। सत्य यह है कि आज स्वयं कांग्रेस के अंदर ही लोकतंत्र नहीं है, केवल परिवार तंत्र है। इसलिए कांग्रेस से लोकतंत्र की उम्मीद करना बेमानी ही कहा जाएगा।
सुरेश हिंदुस्थानी