भावनात्मक क्रिकेट : एक दृष्टिकोण

श्‍याम नारायण रंगा

 

भारत ने विश्वकप क्रिकेट का फाइनल मुकाबला जीत लिया है, इस बात की हमें बहुत खुशी है कि भारत ने आखिर एक खेल में तो अपना परचम फहराया और विश्व में सर्वश्रेठ होने की बात साबित की। मगर मैं अभी जो बात करना चाहता हूँ वो इस माहौल से थोड़ी हट कर है। हमारे देश में क्रिकेट का बुखार इस कदर हावी है कि जो व्यक्ति क्रिकेट का मैच देखता है उसे बड़े सम्मान की नजर से देखा जाता है और अगर किसी भी कारण या खेल भावना से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति भारत के किसी खिलाड़ी के बॉलिंग करने के तरीके या बैटिंग करने के तरीके पर नकारात्मक टिप्पणी कर दे तो उसे बड़े संदेह की नजर से देख कर देशद्रोही तक कह दिया जाता है।

 

हमारे देश में वर्तमान में क्रिकेट प्रेमी को ही देशप्रेमी माना जाता है, अगर आप क्रिकेट से प्रेम नहीं करते तो लोग आपको बड़ी उपेक्षा की नजर से देखते हैं। भारत पाकिस्तान के बीच मैच के कारण भारत और पाकिस्तान के लोगों के मन में जो जहर था वो निकल गया। वास्तव में अगर मैं कहूँ तो हम हिंसा और युद्ध के प्रेमी ही रहे हैं और हार व जीत में ही आनंद मिलता है। हमारे ऐतिहासिक नायक राम, कृष्ण, अर्जुन, भगतसिंह हमें लड़ते हुए ही अच्छे लगे हैं। ये लोग लड़ते रहे और हम इनको पूजते रहे और इनकी प्रतिमाऍं ओर तस्वीरों का बाजार खड़ा कर दिया ताकि लोग इनसे प्रेरणा लेते रहे। अमिताभ बच्च्न भी एंग्री यंग मैन बनकर ही फिल्मों में छाए थे और हमारे देश में मारधाड़ वाली फिल्म कभी फ्लॉप नहीं होती है। हमें रेस के घोड़ो का दौड़ाने में और सांडों व मुर्गों की लड़ाई में हमेशा आनंद मिला है और हमने ऐसा आनंद बरसों बरस तक उठाया है।

 

वर्तमान सचिन, धोनी, आदि खिलाड़ियों की स्थिति भी वही हो गई है, हम चाहते हैं कि वे लड़े और हमें मजा आए और अगर अगर हमारा सांड या मुर्गा हार गया तो हम उसको लानते मारते हैं और जलील करते हैं और जीत गया तो उसकी पूजा करते हैं और सम्मान देते हैं। अब देखा ही होगा आपने कि हम पाकिस्तान को हराने के लिए कितना आमदा थे और चाहते थे कि हर हाल में हमारे ोर जीते। पाकिस्तान से जिस दिन भारत का मैच था उस दिन तो जूनून देखने लायक था और ऐसा लग रहा था जैसे पूरा देश ही युद्ध का मैदान बन गया हो और हर व्यक्ति इसमें योद्घा बनकर अपनी भूमिका निभा रहा हो। उस दिन सबके मुँह से यही सुना जा रहा था कि चाहे विश्व कप न जीत पाए लेकिन पाक को हराना जरूरी है। हम पाकिस्तान को हराने में शौर्य महसूस करते हैं लेकिन उनको हराने में नहीं जिनके हम दो सौ साल तक गुलाम रहे और जिन्होंने हमे जोंक की तरह चूसा और हमारे अस्तित्व को मिटाने का भरसक प्रयास किया। हम यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान भी उनकी ही देन है और पाकिस्तान से दुश्मनी भी उनकी ही देन है। मेरी इस बात पर सैंकड़ो तर्क आ जा सकते हैं लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हमें सिर्फ जीत चाहिए थी अगर हार जाते तो इल्जाम लगाते, भला बुरा कहते। हमारी मानसिकता है यह कि हम अपने ही भाई को अपना सबसे बड़ा दोस्त और सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं और जब कभी भी मौका पड़ता है तो अपने ही व्यक्ति को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अगर हम अपने जोश को नियंत्रण में लेकर और दिमाग को ठंडा करके सोचे तो क्या यह सही है कि हम अपने पड़ोसी देश के प्रति एक खेल में ऐसा व्यवहार रखें। यह बात जरूर है कि वर्तमान में प्रत्येक भारतीय पाकिस्तान को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है लेकिन खेल के माध्यम से क्या हम दुश्मनी को ब़ा रहे हैं या उसको प्रेम में बदलने का प्रयास कर रहे हैं।

 

खेल माध्यम है अनुशासन की जीवन की शैली को अपनाने का और प्रेम और भाईचारे से खेलने का परन्तु जिस खेल के कारण पूरे देश में तनाव हो जाए और जिसके कारण सरकार को संवेदनशील जगहें घोषित करनी पड़े और जिस खेल के कारण साम्प्रदायिक तनाव होने की आशंका हो और जिस खेल के कारण अतिरिक्त पुलिस व सुरक्षा बल लगाना पड़े तो क्या ऐसे खेल से देश को फायदा हो रहा है। यह सोचने की बात है। जब पाकिस्तान से भारत ने जीत दर्ज की तो हमारे देश के लोगों ने उन जगहों पर जाकर थालियाँ बजाई, पटाखे छोड़े व प्रदशर्न किया जहाँ मुसलमानों की आबादी ज्यादा हो और सरकार यह बात जानती है कि ऐसा होगा तो सरकार ने पहले से ही ऐसे क्षेत्रों में पुलिस बल तैनात कर रखा था तो क्या हमारे हुक्मरान इस तरह की गतिविधियों को ब़ावा देना चाहते हैं अगर नहीं तो क्या जरूरत है इस देश के प्रधानमंत्री को अपना पूरा दिन एक खेल के पीछे खराब करने की। क्या जरूरत है क्रिकेट के नाम पर डिप्लोमेसी करने की। जब देश की सर्वोच्च सत्ता पर बैठे लोगों का व्यवहार ही ऐसा हो तो आम जन की क्या बात की जा सकती है। एक खेल को खेल ही रहने दें तो ज्यादा अच्छा है हम खेल के नाम पर राजनीति न करें और इस गर्मी में अपनी अपनी रोटियाँ नहीं सेके। अगर खेल में देश की भावना जोड़ दी जाए तो वह खेल नहीं जंग बन जाती है जो किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता है। क्रिकेट के चौदह खिलाड़ी एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों की भावनाओं की प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ऐसा करना सही नहीं है। वास्तव में यह एक पूर्व नियोजित प्रकि्रया है जिसमें आम आदमी की भावना को जोड़ा जाता है और पूरा बाजार इस भावना को कैश करता है। जो लोग बेचना जानते हैं और जो लोग अच्छे विक्रेता है उन्हें कोई मतलब नहीं कि कौन जीते और कौन हारे उन्हें तो अपना माल बेचना है, अपना ब्राण्ड स्थापित करना है और इसी बाजार ने इस खेल को स्थापित किया, आम आदमी की भावना को प्रेरित कर इस खेल से जोड़ा ओर फिर इस खेल के रोम रोम में बाजार को चिपका दिया ताकि देखने वाले को ब्राण्ड दिखे, सुनने वाले को ब्राण्ड सुनाई दे। ऐसे कुछ ही लोग है जो ऐसा माहोल बनाते हैं और मुर्गे और सांड की लड़ाई में बाहर से हुर्रे हुर्रे करते हैं क्योंकि इस हुर्रे में उनका फायदा है, भीड़ जुटाने से उनको लाभ होता है और वे ऐसा ही कर रहे हैं। हमें दिमाग से सोचना होगा न कि दिल से कि हम खेल का सम्मान करें, खिलाड़ी का सम्मान करें लेकिन किसी के हाथ की कठपुलती न बने। भीड़ में दिमाग नहीं होता और इसी का फायदा लोग उठाते हैं। पागलों की तरह अनियंत्रित भीड़ को जो दिशा दिखा दी जाए सब भेड़ चाल में उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं सो भीड़ न बने संगठन बने जिसमें ताकत होती है जिसका उद्देश्य होता है।

 

जब हमने विश्वकप जीता तो माहौल बहुत खुशनुमा बना ओर पूरे देश ने जश्न मनाया मैं इस जश्न और खुशी हो बुरा नहीं मानता। लेकिन यह बात जरूर दिमाग में आती है कि आज इस देश में एकमात्र खेल क्रिकेट ही रह गया है। हम आज भी अंग्रेजों के दिए इस खेल से दिमाग व दिल की गहराईयों से जुड़े हैं। क्या ऐसा जुनून हमारी मानसिक गुलामी को नहीं दशार्ता कि हम अपने देश के पारम्परिक खेलों की तरफ तो गौर नहीं करते परंतु एक गुलामी के प्रतीक खेल के को दिवानगी की हद तक चाहते हैं। खेल कोई बुरा या अच्छा नहीं होता लेकिन खेल के प्रति जो भावना होती है वह सोचने पर मजबूर करती है। भारत का राट्रीय खेल हॉकी आज अपने अस्तित्व के लिए संघार कर रहा है। भारत के लिए पहलवानी, कुश्ती और निशानेबाजी,शतरंज में पदक लाने वाले खिलाड़ीयों की तरफ कोई गौर नहीं कर रहा है परन्तु एक खेल ऐसा हो गया है जो आज वास्तव में पूरे देश का खेल बन गया है। वे खेल जो सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित है उनके खिलाड़ियों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार हो रहा है और जो टीम आधारित खेल है उस पर धन की बारिस हो रही है। अब सारी परिस्थितियाँ हमारे सामने हैं और सोचना इस देश को है, देश चलाने वालों को है कि वे कौनसी दिशा तय करे और किसे कितना महत्व दे बाकि तो लोकतंत्र है और जनता जनार्दन है सो जय जय जनता की।

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