अदालतों में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता : हमारी ग़ुलाम मानसिकता का प्रमाण

अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ 

images (1)अंग्रेज़ तो हमें 65 साल पूर्व आज़ाद कर चले गये पर हमारी ग़ुलामी वाली मानसिकता हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। यह स्थिति एक नहीं भारतीय जीवन व प्रशासन के अनेक पहलुओं में उजागर होती है।

लार्ड मैकाले ने लगभग 8 वर्ष में ही भारतीय दण्‍ड संहिता (आईपीसी) की रचना कर दी थी और कुछ भारतीय मान्‍यताओं का ध्‍यान रख कर उन्‍होंने भारत पर अंग्रेज़ी न्‍याय व्‍यवस्‍था थोप दी। पर हम इतने लायक निकले कि इस अ्ंग्रेज़ी व्‍यवस्‍था का हम भारतीयकरण व भारत की भावनाओं और मान्‍यताओं के अनुरूप नहीं ढाल सके।

आज भी देश की 3 प्रतिशत आबादी ही भली-भान्ति अंग्रेज़ी बोल और लिख लेती है। केवल 10 प्रतिशत लोग ही इसे समझ सकते हैं। फिर भी यह हमारी सभी भारतीय भाषाओं व मातृभाषाओं पर हावी है।

कानून किसके लिये है? समस्‍त भारतीय जनता के लिये। पर यह सरल व सहज नहीं है। आम जनता के लिये तो है पर आम जनता की समझ के बाहर है। इसकी पेचीदीगियों को तो अच्‍छा पढ़ा-लिखा अंग्रेज़ी का ज्ञाता भी नहीं जान सकता। इस कारण हमारी जनता फिज़ूल के मुकद्दमों के चक्‍कर में फंसी रहती है। हम अपने वकीलों की दया पर जीते हैं। उनके कारण ही हम अपना सही मामला हार जाते हैं और झूठा मुकद्दमा जीत जाते हैं क्‍योंकि हमें तो कोई समझ है नहीं। हम तो कानून समझ नहीं पाते।

इस स्थिति के लिये सब से बड़ा दोषी है तो हमारा शासन जिसने कभी कानून को जनता तक पहुंचाने की कोशिश ही नहीं की। इसमें सब से बड़ा रोड़ा है अंग्रेज़ी भाषा जिसमें सारा कानून बनता है और न्‍याय मिलता है। आम आदमी तो अपने वकील के रहमोकरम पर निर्भर है। वह अपना मामला वकील को समझा देता है। आगे सब वकील ही करता है। उसने क्‍या लिखा या क्‍या नहीं लिखा उसे नहीं मालूम। उसे नहीं पता कि अंग्रेज़ी में उसके वकील ने जो कुछ लिखा है वह उसके द्वार बताये गये तथ्‍यों व भावनाओं को व्‍यक्‍त करता है या नहीं। वह तो बस हस्‍ताक्षर करता है उस भाषा में जिसे वह जानता है, अंग्रेज़ी में नहीं। यदि वह कभी अंग्रेज़ी में हस्‍ताक्षर कर भी पाता है तो उस अंग्रेज़ी ज्ञान इतना नहीं है कि वह जो कुछ लिखा है उसे पूरी तरह समझ भी पाये। कई बार तो वह बस अपना अंगूठा ही लगा देता है।

जब मामला अदालत में जाता है तो सुनवाई से पूर्व वकील उससे बैठक करता है। सारा मामला समझता है। कुछ बिन्‍दुओं पर वह स्‍पष्‍टीकरण भी लेता है। पर जब मामला अदालत में सुनवाई के लिये लगता है तो वह वहां हाजि़र तो अवश्‍य रहता है पर क्‍या हो रहा है और उसका वकील, उसका विरोधी वकील व न्‍यायधीश क्‍या बोल रहा है, उसे पता नहीं चलता। वह तब अपने आपको भारत में नहीं किसी विदेश में बैठा ही समझता है।

यदि अदालत में कार्यवाही हिन्‍दी में हो तो वह सब समझ सकता है। उसे पता चल सकता है कि उसके वकील ने सभी तथ्‍य, पक्ष व दलीलें अदालत के सामने रख दीं जो उसके पक्ष में थीं। अपने मामले का सब से अच्‍छा जानकार वह होता है। यदि उसका विरोधी या विरोधी पक्ष का वकील कोई ग़लत तथ्‍य या दलील रख रहा हो तो वह हस्‍तक्षेप भी कर सकता है पर केवल तब जब अदालत की कार्यवाही उसकी भाषा में हो जिसे वह समझ सकता हो। वस्‍तुत: आम जनता को न्‍याय मिलने के रास्‍ते में सब से बड़ी वाधा ही अंग्रेज़ी है जिसे आम आदमी समझ नहीं पाता।

यदि आज हम निर्णय ले लें कि आज से हमारे स्‍कूलों में अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्‍दी व अन्‍य भारतीय भाषायें भी पढ़ाई जायेंगी तो अगले 10-12 वर्ष में सभी युवा नागरिक हिन्‍दी व अन्‍य भारतीय भाषाओं को भली-भान्ति लिख-पढ़-बोल सकेंगे। पर शर्म की बात है कि यह काम पिछले 66 साल में नहीं हो सका। इसका कारण केवल और केवल हमारी शासन व राजनीतिक व्‍यवस्‍था ही है। इतने सालों में कानून का हिन्‍दी रूपान्‍त्रण क्‍यों नहीं हो सका?

जनतन्‍त्र को जनता की, जनता द्वारा व जनता के लिये सरकार बताते हैं। ऐसे जनतन्‍त्र में न्‍याय व्‍यवस्‍था भी जनता की, जनता द्वारा व जनता के लिये ही होनी चाहिये। इसी लिये हमारे न्‍यायालयों व उच्‍चतम न्‍यायालय में व्‍यवहार की भाषा राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी ही होनी अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है। क्‍या न्‍याय व्‍यवस्‍था की भाषा राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी करने केलिये स्‍वतन्‍त्र भारत में भी एक भाषा स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन चलाने की आवश्‍यकता है? यदि है, तो इससे बड़ा कोई मज़ाक नहीं हो सकता। यह तो बस हमारी नालायकी का ही द्योतक होगा।

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