बहुत हुआ रावण-दहन ! अब हो मैकॉले-मर्दन !!

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                                  मनोज ज्वाला

   रावण के हाथों भारत की संस्कृति-सुता सीता का अपहरण जरूर हुआ था, किन्तु उसने भारतीय संस्कृति राष्ट्र धर्म परम्परा इतिहास विरासत भाषा-भुषा को तो प्रदूषित कतई नहीं किया था । उसकी तमाम आसुरी गतिविधियों के बावजूद भारतीय संस्कृति की पवित्रता-प्रखरता अक्षुण्ण ही कायम रही थी । उसने वेदों-पुराणों-शास्त्रों में न किसी तरह का कोई आसुरी प्रक्षेपण किया था, न ही उनका आसुरीकरण-विकृतिकरण अथवा अभारतीयकरण और न ही किसी भारतीय का धर्मान्तरण । जबकि उस असुराधिपति ने ‘शिव-ताण्डव’ और ‘लाल किताब’ नामक दो ऐसे ग्रन्थ रच कर हमें अवश्य प्रदान किये जो हमारे प्राचीन वाङ्ममय को समृद्ध करते हैं और शिवोपासनाज्योतिषीय विवेचना के क्षेत्र में आज भी सर्वस्वीकार्य हैं । बावजूद इसके स्वर्णिम लंका की असुर (अ)सभ्यता के विस्तारवाद का संवाहक होने के कारण  वह उद्भट्ट शिवोपासक रावण कभी भी हमारे समाज का आदर्श नहीं बन सका , बल्कि सदैव निन्दनीय ही बना रहा । इतना और इस कदर कि आज भी हर वर्ष विजयादश्मी के अवसर पर पुतला-दहन का शिकार होता रहा है रावण । 

    किन्तु युगान्तर बाद इस चालु कलयुग में सात-समन्दर पश्चिम पार यूरोप की नस्लभेदी यांत्रिक (अ)सभ्यता-जनित औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के संवाहक मैकाले-मैक्समूलर ने तो हमारी किसी सीता का अपहरण किये बगैर ऐसा अनर्थ बरपा रखा है कि इसकी तुलना में जैसा रावण व महिषासुर ने मानों कुछ भी नहीं किया । थॉमस बिविंगटन मैकॉले ने ईसाई-विस्तारवाद की षड्यंत्रकारी औपनिवेशिक योजना के तहत समस्त भारत पर ‘अंग्रेजी शिक्षा पद्धति’ थोप कर हमारी पीढियों के मन-मानस का ऐसा अंग्रेजीकरण व अभारतीयकरण कर दिया कि हमारी संस्कृति प्रदूषित होती जा रही है । वहीं  मैक्समूलर ने हमारे धर्मशास्त्रों-ग्रन्थों को विकृत कर आर्य बनाम द्रविड का बौद्धिक वितण्डा खडा करते हुए सामाजिक विखण्डन की दरारें खोद कर उनमें ‘अधर्मीकरण’ अर्थात ‘ईसाइकरण’ का सदाबहार बीज बो दिया । नतीजा यह हुआ कि हमारे सनातन धर्मधारी समाज के तथाकथित सुशिक्षित लोग अपने ही सनातन धर्म के प्रति निरपेक्ष और ईसाइयत नामक ‘रिलीजन’ के प्रति सापेक्ष होने की प्रवृति से जकड गए तो आज भी जकडे ही हुए हैं  ।  

        रावण व महिषासुर ने वेद-विरूद्ध आचरण जरूर किया, यज्ञ-विरोधी विध्वंस भी किया और साधु-संतो-ऋषि-मुनियों को पीडित-प्रताडित भी  ; किन्तु हमारे वेद-शास्त्रों-ग्रन्थों को प्रदूषित नहीं किया था, कपोल-कल्पित मन्त्रों का प्रक्षेपण कर कभी ऐसा मिथ्या प्रचार नहीं किया-कराया कि ‘आर्य’ अभारतीय विदेशी हैं और जैसा कि आज सेक्युलरिष्टों-कम्युनिष्टों द्वारा किया कराया जाता है कि हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षि गोमांस खाते थे, अथवा वैदिक यज्ञों में गोमांस की आहूतियां डाली जाती थी । सदियों पुरानी ऋषि-प्रणीत हमारी शिक्षा-पद्धति को जडों से उखाड कर अपनी कोई आसुरी शिक्षा-पद्धति थोपने  और उसके सहारे हमारे बच्चों-पीढियों को असुर बनाने , धर्मान्तरित करने , हमें लंकापेक्षी बनाने और हमारी भाषा को पंगु बनाने व हम पर अपनी भाषा थोपने का काम रावण के द्वारा नहीं किया गया । किन्तु यूरोपीय औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और उसकी पीठ पर सवार ईसाई विस्तारवाद के झण्डाबरदारों ने भारत में अपनी जडें जमाने के लिए एक तरफ हमारे शास्त्रों-ग्रन्थों के अनुवाद के नाम पर भारतीय वैदिक सनातन ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोतों में प्रक्षेपण कर हमारी अनेक बौद्धिक सम्पदओं का अपहरण कर लिया, तो दूसरे तरफ ऋषि-प्रणीत हमारी प्राचीन समग्र शिक्षण-पद्धति व ‘गुरुकुल-परम्परा’ को उखाड फेंक उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति स्थापित कर हमारे परम्परागत ज्ञान-विज्ञान चिन्तन-मन्थन शोध-अनुसंधान के मूल स्रोत- संस्कृत भाषा  को पंगु बनाते हुए हमारे ऊपर अपनी अंग्रेजी भाषा थोप कर हमारी चिन्तना-विचारणा को हमारी जडों से काट कर हमें पूरी तरह से यूरोपाश्रित बना दिया । ऐसे अनर्थकारी विनाशकारी भारत-विरोधी , वेद-विरोधी कार्यों को अंजाम देने वाले मैकॉले-मैक्समूलर तो रावण-महिषासुर से भी ज्यादा खतरनाक असुर प्रतीत होते हैं ; क्योंकि इन्हीं की कारगुजारियों से धर्म व राष्ट्र का क्षरण हो रहा है ।

     उल्लेखनीय है कि सन १७९४ में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले विलियम जोन्स ने गोरी चमडी वालों की स्वघोषित श्रेष्ठता और ईसाइयत की लेशमात्र आध्यात्मिकता को पुष्ट करने के उद्देश्य से हिन्दूत्व और क्रिश्चियनिटी के बीच समानता स्थापित करने हेतु हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों (संस्कृत-ग्रन्थों) का उपयोग क्रिश्चियनिटी के समर्थन में तर्क गढने के लिए किया । उसने शब्दों की ध्वनियों से संयोगवश प्रकट होने वाली समानता के बाहरी आवरण के सहारे रामायण के ‘राम’ को बाइबिल के ‘रामा’ से जोड दिया और राम के पुत्र ‘कुश’ को बाइबिल के ‘कुशा’ से । इसी तरह की अन्य कई संगतियों को खींच-तान कर उसने यह प्रतिपादित किया कि बाइबिल-वर्णित ‘नूह’ के जल-प्लावन के बाद राम (रामा) ने भारतीय समाज का पुनर्गठन किया, इसलिए भारत बाइबिल से जुडी सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है । उसने बाइबिल में वर्णित बातों को सत्य प्रमाणित करने के लिए संस्कृत-ग्रन्थों से उसकी पुष्टि करने के हिसाब से उनका अनुवाद किया  । इस क्रम में उसने ‘मनु’ को ‘एडम’ घोषित कर दिया और विष्णु के प्रथम तीन अवतारों को ‘नूह’ के जल-प्लावन की कहानी में प्रक्षेपित कर दिया । इस धुर्ततापूर्ण वर्णन में उसने बाइबिल-वर्णित- ‘नाव पर सवार आठ मनुष्यों’ को मनुस्मृति के ‘सप्त-ऋषि’ घोषित कर दिया ।  विलियम जोन्स के बाद भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अनुवाद से उसके मिशन को आगे बढाने वालों में फ्रेडरिक मैक्समूलर का नाम सर्वाधिक कुख्यात रहा है, जिसने वेदों का भी अनुवाद किया । आर्यों के अभारतीय-विदेशी युरोपीय मूल के होने सम्बन्धी पूर्व कल्पित-प्रायोजित पश्चिमी कुतर्कों की स्थापना को मजबूती प्रदान करने के लिए आर्यों को भरत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारी बताते हुए उस तथाकथित आक्रमण की तिथि भी घोषित कर देनेवाले मैक्समूलर का काम कितना षड्यंत्रकारी है यह जानने के लिए उसके दो निजी खतों पर गौर करना पर्याप्त है । १६ दिसम्बर १८६८ को ओर्गोइल के ड्यूक , जो ब्रिटेन में एक मंत्री थे को लिखे खत  में मैक्समूलर कहता है- “मेरे कार्यों से भारत का प्राचीन धर्म पूरी तरह ध्वस्त होता जा रहा है, ऐसे समय में अगर क्रिश्चियनिटी यहां पैर नहीं जमाती तो, यह किसकी गलती होगी ?” उसी वर्ष अपनी पत्नी को भेजे खत में उसने लिखा- “…..मैं उम्मीद करता हूं कि मैं इस कार्य को सम्पन्न करूंगा, और आश्वस्त हूं कि मैं वह दिन देखने के लिए जीवित नहीं रहूंगा , फिर भी मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद आज के बाद भारत के भविष्य और इस देश में मनुष्यों के विकास को बहुत सीमा तक प्रभावित करेगा । वेद उनके धर्म का मूल है और वह मूल क्या है , इसे उन्हें दिखाने के लिए मैं कटिबद्ध हूं ; जिसका सिर्फ एक ही रास्ता है कि पिछले तीन हजार वर्षों में जो कुछ भी इससे निकला है उसे उखाड दिया जाये ।”

  पश्चिम के इन दोनों बौद्धिक षड्यंत्रकारियों ने यह भी प्रतिपादित-प्रचारित कर रखा है कि अंग्रेज सबसे शुद्ध आर्य हैं और भारत में साफ चमडी के उतर-भारतीय लोग अशुद्ध आर्य हैं ; जबकि दक्षिण भारतीय लोग द्रविड हैं, जो उतर भारतीय आर्यों से शोषित-प्रताडित होते रहे हैं । राम को ‘आक्रमणकारी आर्य’ और रावण को ‘भोले-भाले द्रविडों का राजा’ बताने वाले इन धूर्त्त पश्चिमी बौद्धिक असुरों का दावा है कि संस्कृत भाषा लैटिन व ग्रीक से निकली हुई भाषा है जिसे उत्तर भारतीय ब्राह्मणों ने गैर- सवर्णों व द्रविडों का शोषण करने के लिए हथिया लिया । उनकी यह बौद्धिक स्थापना आज भी हमारे देश की तमाम शैक्षिक संस्थानों में स्थापित है और भाषा विज्ञान के हमारे विद्यार्थियों-शोधार्थियों को यही घुट्टी पिलायी जा रही है ।   

      अपने औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की जडें जमाने हेतु भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों, भाषा व समाज-व्यवस्था और इतिहास को इस तरह से विकृत कर उन्हें शैक्षिक पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से पढाने के लिए थामस विलिंगटन मैकाले की कुटिल योजनानुसार ईजाद की गई अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति अपने देश में आज भी कायम है , जिसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं ।  यह अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति ही है , जिसके कारण एक ओर हमारी भाषा-संस्कृति–संस्कार-परम्परायें सब के सब विलुप्त होती जा रही हैं और समाज में बडी तेजी से नैतिकता व राष्ट्रीयता का क्षरण तथा पारिवारिक-सामाजिक विघटन और भ्रष्टाचार व बलात्कार जैसी आसुरी प्रवृतियों का उन्नयन हो रहा है । ऐसे में रावण का पुतला-दहन किये जाने के बजाय  अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के उन्मूलन से मैकाले-मर्दन किया जाना अब ज्यादा जरूरी है ; क्योंकि आज के दौर में हमारे समाज राष्ट्र व धर्म का सर्वाधिक  नुकसान थॉमस मैकॉले से ही हो रहा है , शिवोपासक रावण से नहीं ।   

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