पर्यावरण-जीवन का आधार

नवनीत कुमार गुप्ता

सूरज से तीसरा ग्रह पृथ्वी, अभी तक के ज्ञात सभी ग्रहों में इकलौता ग्रह है जिसमें जीवन अपने विभिन्न रूपों में पनपता है। यह जीवित ग्रह अंतरिक्ष से नीले रंग का दिखाई देता है। आज से लगभग 1400 करोड़ वर्ष पहले अंतरिक्ष में एक बड़ा धमाका हुआ था, जिसे ‘बिग बैंग’ सिद्धांत के द्वारा समझाया गया। सूरज से पृथ्वी की दूरी करीब 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। यह दूरी ही पृथ्वी ग्रह को पूरे सौर मंडल में विशिष्ट स्थान देती है। इसी दूरी के कारण यहां पानी से भरे महासागर बने, ऊंचे पहाड़ बने, रेगिस्तान, पठार और सूरज की लगातार मिलती ऊर्जा और पृथ्वी के गर्भ में मौजूद ताप से पृथ्वी पर जीवन के विभिन्न रूप मिलने संभव हुए। पेड़-पौधे सभी वनस्पति, पशु-पक्षी सभी जीव-जंतु, यहां तक कि सूक्ष्मजीव आदि भी जो पृथ्वी पर जीवन के लिए अति आवश्यक हैं इन सब में ऊर्जा का स्रोत सूर्य की ऊष्मा ही है। कैसा अजब संयोग है कि सूर्य से यह दूरी मिलने के साथ-साथ पृथ्वी एक कोण पर झुकी हुई है, जिस कारण अलग-अलग ऋतुएं, मौसम, जलवायु यहां बने और जीवन में विविधता पैदा हुई।

इस ग्रह पर प्रकृति को जीवन जुटाने में लाखों वर्ष लगे। इस धरती पर कई जटिल प्रणालियां पूरे सामंजस्य से लगातार कार्य करती रहती है, जिस कारण जीवन हर रंग-रूप में फल-फूल रहा है। पृथ्वी पर मौजूद जीवनदायी पानी के कारण ही यह ग्रह अंतरिक्ष से नीला दिखाई देता है। सूर्य और पृथ्वी के आपसी मेलजोल से ही पृथ्वी के आसपास, हवाओं और विभिन्न गैसों का आवरण बना यानी वायुमंडल का निर्माण हुआ। इसी वायुमंडल की चादर ने सूर्य की हानिकारक किरणें जो जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें पृथ्वी पर पहुंचने न दिया। कितने आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से वायुमंडल की विभिन्न परतों में गैसों का स्तर एक ही बना हुआ है। जीवन की शुरूआत भले ही पानी में हुई पर इसी जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ऐसा पर्यावरण दिया कि हर कठिन परिस्थिति से निपटने में जीवन सक्षम हो सके। पर्यावरण का मतलब होता है हमारे या किसी वस्तु के आसपास की परिस्थितियों या प्रभावों का जटिल मेल जिसमें वह वस्तु, व्यक्ति या जीवन स्थित है या विकसित होते हैं। इन परिस्थितियों द्वारा उनके जीवन या चरित्र में बदलाव आते हैं या तय होते हैं। पूरे विश्व में आजकल पर्यावरण शब्द का काफी उपयोग किया जा रहा है। कुछ लोग पर्यावरण का मतलब जंगल और पेड़ों तक ही सीमित रखते हैं, तो कुछ जल और वायु प्रदूषण से जुड़े पर्यावरण के पहलुओं को ही अपनाते हैं। आजकल लोग ग्लोबल वार्मिंग यानी भूमण्डलीय तापन मतलब गर्माती धरती और ओजोन के छेद तक पर्यावरण को सीमित कर देते हैं, तो कई परमाणु ऊर्जा एवं बड़े-बड़े बांधों का बहिष्कार कर सौर ऊर्जा और छोटे बांधों को अपनाने की बात कह कर अपना पर्यावरण के प्रति दायित्व पूरा समझ लेते हैं।

पर्यावरण का अर्थ होगा, हमारे आसपास की हर वह वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव) जिसका हम पर या हमारे रहन-सहन पर या हमारे स्वास्थ्य पर एवं हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, निकट या दूर भविष्य में, कोई प्रभाव हो सकता है और साथ ही ऐसी हर वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव), जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा हमारे अपने अन्दर एक पूरी दुनिया है जिसका प्रभाव आसपास की हर वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव) पर पड़ता या पड़ सकता है। यह हमारे पर्यावरण का अभिन्न अंग है। यानी पर्यावरण में हमारे आसपास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि का समावेश होता है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है। हालांकि पर्यावरण को मानवीय, सामाजिक परिवेश में भी परिभाषित किया जाता है, परंतु यहां हम प्रकृति के संदर्भ में ही अपने को सीमित रखेंगे। यह सृजनात्मक प्रकृति जिसने हमें जीवन और जीवन के लिए जरूर पर्यावरण दिया एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर टिकी है। अगर हम वायुमंडल को ही लें, तो संपूर्ण वायुमंडल सबसे उपयुक्त गैसों के अनुपात से बना है जो जीवन के हर रूप, उसकी विविधता को संजोए रखने में सक्षम है।

वायुमंडल में 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 कार्बन डाइऑक्साइड तथा करीब 0.96 प्रतिशत अन्य गैसे हैं। गैसों का यह अनुपात सभी प्रकार के जीवों के पनपने के लिए उपयुक्त है। व्यापक तौर पर देखें तो ऑक्सीजन जीवों के लिए अतिआवश्यक है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करती है। हम जो खाना खाते हैं, उसे पचाकर हमें ताकत मिलती है। परन्तु अगर इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 21 प्रतिशत से ज्यादा हो जाए तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में इस असंतुलन के कारण बहुत विकृतियां आ जाएगीं। उनकी सारी क्रियाएं और अभिक्रियाएं गड़बड़ा जाएंगी। इसके साथ-साथ जीवन के लिए जरूरी वनस्पति तथा हाइड्रोकार्बन के अणुओं का भी नाश शुरू हो जाएगा यानी ऑक्सीजन के वर्तमान स्तर में थोड़ी-सी भी वृद्धि जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 20 से कम हो तो हमें सांस लेने में तकलीफ हो जाएगी। सारी चयापचयी गतिविधियां रुक जाएंगी और ऊर्जा न मिल पाने से जीवन का नामोनिशां मिट जाएगा। इसी तरह नाइट्रोजन का 78.08 प्रतिशत मात्रा में वायुमंडल में पाया जाना भी सही मालूम होता है क्योंकि इतनी मात्रा में मौजूद नाइट्रोजन गैस वायुमंडल में ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभाव तथा जलाने की क्षमता पर सही रोक लगाने में सक्षम होती है। वायुमंडल में गैसों का यह मौजूदा स्तर, पेड़-पौधों में प्रकाश-संश्लेशण (फोटोसिंथेसिस) के लिए भी बिल्कुल ठीक है। प्रकृति का नाजुक संतुलन और संयोग यही है कि हर जीवन किसी न किसी रूप में जीवन की धारा के अविरल बहाव में मदद कर रहा है, जैसे वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणियों द्वारा छोड़ी जाती है और पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी पानी की मौजूदगी में प्रकाश-संश्लेशण द्वारा अपने लिए ऊर्जा बनाने के काम में लाते हैं। और इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को अपने में समा कर ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। ऐसे ही और संतुलन एवं आपसी मेल-जोल के उदाहरण आगे दिए जाएंगे। अभी हम सृजनात्मक प्रकृति के अनूठे संयोग की बात करते हैं, जिसने जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण संजोया। पहले बताई गई गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बिल्कुल उपयुक्त है। क्योंकि इस अनुपात में यह पृथ्वी की ऊष्मा को अंतरिक्ष में खो जाने से रोकती है यानी कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए उपयुक्त तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि इसी कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हो गया तो पूरे ग्रह के तापमान में भयानक बढ़ोतरी हो सकती है।

जैसा पहले बताया गया कि पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को निरंतर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं। यह मात्रा करीब 190 अरब टन ऑक्सीजन प्रति दिन बैठती है। इसी तरह अन्य स्रोतों से पौधों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड बनती रहती है। इन सभी गैसों का स्तर विभिन्न परस्पर जटिल प्रक्रियाओं के सहयोग से हमेशा स्थिर बना रहता है और जीवन सांसे लेता रहता है। वायुमंडलीय गैसों के अलावा पृथ्वी का आकार भी जीवन के पनपने के लिए उपयुक्त है। अगर पृथ्वी का द्रव्यमान थोड़ा कम होता तो उसमें गुरुत्वाकर्षण भी अपर्याप्त रहता और इस कम खिंचावों के कारण पृथ्वी की चादर यानी पूरा वायुमंडल ही अंतरिक्ष में बिखर जाता और अगर यही द्रव्यमान कुछ ज्यादा हो जाता तो सारी गैसें पृथ्वी में ही समां जाती, तो फिर सांसे कैसे चलतीं? पृथ्वी पर अगर गुरुत्वाकर्षण ज्यादा होता तो वायुमंडल में अमोनिया और मिथेन की मात्रा अधिक होती। ये गैसें जीवन के लिए घातक हैं। ऐसे ही अगर गुरुत्व कम होता तो पृथ्वी पानी ज्यादा खो देती। पिछले 10 हजार वर्षों में असाधारण रूप से पृथ्वी पर पानी की मात्रा ज्यों की त्यों है यानी कुछ पानी बर्फ के रूप में जमा हुआ है, कुछ बादलों के रूप में तो काफी महासागरों में, पर फिर भी पानी की मात्रा में एक बूंद भी कमी नहीं आई है। भूमि पर बरसने वाला पानी पूरे पृथ्वी ग्रह पर होने वाली वर्षा का 40 प्रतिशत होता है और हम सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत पानी ही संरक्षित कर पाते हैं बाकी सारा पानी वापस समुद्र में बह जाता है। इसी तरह अगर पृथ्वी की परत ज्यादा मोटी होती तो वह वायुमंडल से ज्यादा ऑक्सीजन सोखती और जीवन फिर संकट में पड़ जाता। अगर यह परत ज्यादा पतली होती तो लगातार ज्वालामुखी फटते रहते और धरती की सतह पर भूगर्भीय गतिविधियां इतनी अधिक होतीं कि भूकम्प आदि के बीच में जीवन बचा पाना असंभव हो जाता। ऐसे ही महत्वपूर्ण और नाजुक संतुलन का उदाहरण है, वायुमंडल में ओजोन गैस का स्तर जिसे धरती की छतरी भी कहते हैं। अगर ओजोन की मात्रा वर्तमान के स्तर से ज्यादा होती तो धरती का तापमान बहुत कम होता और अगर ओजोन का स्तर कम होता तो धरती का तापमान बहुत ज्यादा होता और पराबैंगनी किरणें भी धरती की सतह पर ज्यादा टकराती।

पर्यावरण और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के नाश को समझने से पहले यह आवश्यक है कि पर्यावरण से संबंधित प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझें, क्योंकि तभी हम पर्यावरणीय समस्याओं का सही हल ढूंढ पाएंगे। पृथ्वी की सतह के ऊपर वायुमंडलीय गैसों का एक नाजुक संतुलन है और गैसों का यह संतुलन सूरज, पृथ्वी और ऋतुओं की मिन्नत से प्रभावित होता है। वायुमंडल पृथ्वी की मौसम प्रणाली और जलवायु का एक जटिल घटक है। वायुमंडल अपनी विभिन्न परतों से गुजरती सौर किरणों में से हानिकारक ऊष्मा सोख लेता है। जो सौर किरणें धरती तक पहुंचती हैं, वे उसकी सतह से टकराकर वापस ऊपर की ओर आती हैं। इन किरणों में से आवश्यक ऊष्मा को वायुमंडल फिर अपने में समा लेता है और धरती के तापमान के जीवन के अनुकूल बनाए रखने में मदद करता है।

वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा का स्तर कई मौसमी कारकों को प्रभावित करता है, जिसमें वायु की गतिविधियां, हमारे द्वारा महसूस किया जाने वाला तापमान तथा वर्षा शामिल है। महासागरों से नमी का वाष्पन वायुमंडलीय जल-वाष्प पैदा करता है और अनुकूल परिस्थितियों में यही वायुमंडल मौजूद जल-वाष्प वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि तथा वर्षण के अन्य रूपों में वापस धरती की सतह पर पहुंच जाते हैं। हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि (रेगिस्तान आदि) तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं। जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, निऑन, हीलियम, मिथेन, क्रिपटॉन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि। इनमें से किसी भी गैस का असंतुलन जीवन का संतुलन बिगाड़ सकता है।

प्रकृति का नाजुक संतुलन सभी को साथ लेकर चलता है, प्रकृति के बारे में सबसे कमाल की चीज है आपसी मेल। चाहे पौधे हों या समुद्री जीव, चाहे मानव हो या वन्य जीव सभी में हमें परस्पर संबंध नजर आते हैं। इससे भी ज्यादा, प्रकृति द्वारा बनाए गए इस संबंध को आपस में पारस्परिक क्रिया करके सभी इसे टिकाऊ और ज्यादा बेहतर बनाने में लगे रहते हैं। प्रकृति एक साथ जीने की प्रक्रिया का प्रतिबिंब है परंतु जिस प्रकार प्राकृतिक आपदाएं जैसे तूफान, चक्रवात, सूनामी, भूकंप, ज्वालामुखी आदि पृथ्वी के स्वरूप को बदलने की क्षमता रखते हैं उसी प्रकार मानव भी अपने अनैतिक क्रिया कलापों से से प्रकृति के इस नाजुक संतुलन को बिगाड़कर पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचा सकता है। आज से जब 456 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी का इतिहास शुरू हुआ था, तो पृथ्वी पर जीवन के लिए पर्यावरण अनुकूल नहीं था। धीरे-धीरे प्रकृति पृथ्वी को विभिन्न रूपों में सजाती गई और फिर पर्यावरण और जलवायु के अनुरूप जीवन भी अपने को ढालता गया। प्राणी एवं वनस्पतियां जलवायु आदि में हो रहे परिवर्तन के अनुसार अपने में भी बदलाव करते रहे। जैसे हमेशा से बर्फ से ढके टुंडरा क्षेत्रों में रहने वाले उल्लू ने समय के साथ-साथ अपना आवरण ज्यादा मोटा और सफेद कर लिया, जो उसे गर्म भी रखता और शिकारियों से सुरक्षा भी प्रदान करता। इसी तरह भेडि़यों का आवास गर्म होने लगा, तो उन्होंने अपने शरीर पर मौजूद मोटे, गर्म फर यानी मुलायम बाली की परत को त्याग दिया और पीढ़ी दर पीढ़ी आए इस बदलाव का फायदा यह हुआ कि वह अपने को गर्म होती धरती के अनुरूप ढाल पाए और इस कारण उनका शरीर ज्यादा तपने से बच गया। बारहसिंगा जंगल से निकलकर जब घास के मैदानों में आया, तो उसे मिले लम्बे पैर और उसमें तेज भागने की क्षमता विकसित हुई जिससे इन खुले क्षेत्रों में रहने के खतरों से वह अपने को बचा पाया। पृथ्वी में हिम युग और गर्म काल का चक्र चलता रहता है। अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि पिछले 7 लाख 40 हजार वर्षों में आठ हिम युग आ चुके हैं और इन हिम युगों के बीच में कुछ अंतराल के लिए गर्म काल आता है। जैसा अब चल रहा है (देखे बॉक्स)। एक हिम युग 80 हजार वर्षों से 1 लाख वर्ष से भी ज्यादा का हो सकता है और गर्म 10 हजार से 20 हजार वर्ष तक का हो सकता है। इसीलिए प्रकृति ने बदलते युग के साथ सभी जीव-जंतुओं, वनस्पति आदि को बदलने की क्षमता दी है, जिनमें यह क्षमता नहीं वह हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते हैं।

इसी तरह करीब 50-70 लाख वर्षों पहले जब मानव ने एक नई प्रजाति के रूप में जीवन को संजोती इस दुनिया में पहला कदम रखा, तो उसने भी अपने को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप ढालने के संकेत दिए, जो आज भी नजर आते हैं। उदाहरण के लिए आर्कटिक क्षेत्र में रहने वाले एस्किमों ने पाया नाटा और भरा हुआ शरीर जिससे वह ज्यादा से ज्यादा गर्मी को अपने शरीर में ही समाए रखने में कामयाब हुआ। इसी तरह अमेजन के वर्षा वन में रहने वाले आदिवासियों को प्रकृति से मिले लम्बे और पतले पैर तथा बालों रहित शरीर, जिससे वह ज्यादा से ज्यादा अपने शरीर की ऊष्मा बाहर निकाल सकने में सफल हुए। जो मनुष्य ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां सूरज की किरणें सीधी पड़ती हैं, और बहुत तीव्र गर्मी पैदा करती हैं। ऐसे क्षेत्रों में मानव शरीर को इन तेज किरणों के दुष्प्रभाव से बचाने के लए दिया गया गहरा रंग यानी मैलानिन पिगमैंट और इसके विपरीत जो मनुष्य बादलों से ढके, ठंडे प्रदेशों में रहते हैं, जहां सूरज की रोशनी इतनी कम होती है कि उनके शरीर में विटामिन के उत्पादन में गिरावट आ सकती है, तो उन्हें प्रकृति ने दिया कम मैलानिन पिगमैंट और पीली एवं फीकी त्वचा। इसी तरह ध्रुवीय भालू को मिला सफेद फर, पेंग्विन को मिला नाटा और मोटा सिलेंडरनुमा शरीर और छोटे-छोटे हाथ-पांव, जिससे शरीर की ऊष्मा कम से कम बरबाद हो। गिरगिट को मिली रंग बदलने की क्षमता, सांप को हाथ-पांव नहीं मिले तो बचाव के लिए मिला खतरनाक जहर। पौधों में तो बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने की अद्भुत क्षमता है, जहां सहारा रेगिस्तान में मुश्किल से कोई प्राणी जीवित रह पाता है। वहां हजारों वर्ष पुराने पेड़ खड़े हैं। रेगिस्तान में ही दुनिया का सबसे बड़ा कैक्टस (नागफनी) ‘सैग्वारो कैक्टस’ मिलता है। ऐसे ही रेगिस्तान में नागफनी के पौधों में मौजूद काटें भी असल में रूपांतरित पत्तियां हैं, जिससे पानी की क्षति बचाई जा सके। बर्फीले इलाकों में पाए जाने वालो ज्यादातर पौधों की जड़ें मोटी होती हैं, जिससे ज्यादा से ज्यादा खाद्य पदार्थ बुरे वक्त के लिए बचाया जा सके। ऊंट को रेगिस्तान में रहना था तो प्रकृति ने उसे लम्बे पैर दिए, जिसके खुरों के बीच में गद्दा और जाल दिए जिससे पैर में धंसे नहीं। ऊंट को ऐसे नथुने दिए जिन्हें वह रेतीले तूफानों में बंद कर सके और उसके कूबड़ में जमी वसा ही उसको चयापचयी (मेटाबोलिक) पानी उपलब्ध कराती है, जिससे ऊंट लम्बे समय तक बिना पानी के रह सकता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो प्रकृति के नाजुक संतुलन, व्यवस्था और अद्भुत क्षमता के रूप में दिए जा सकते हैं। परन्तु यह सब परिवर्तन या बदलाव बहुत धीमी प्रक्रिया नतीजा थे, जो धीरे-धीरे बदलते वातावरण के अनुसार जीवों में होते गए।

फिर करीब 12 हजार वर्ष पहले, मानव सभ्यता ने नए गुण दिखाने शुरू किए। जब मानव को ज्यादा कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा तो उसने अपनी संरचना में बदलाव के लिए कई पीढि़यों का इंतजार नहीं किया। बल्कि उसने अपने आसपास के पर्यावरण को अपनी बुद्धि के बल पर बदलना शुरू कर दिया। जिस भूमि पर वह रहता था, उसने उसी भूमि में परिवर्तन करने शुरू कर दिए और जिन पशुओं व वनस्पतियों पर वह निर्भर था उनमें भी रूपांतर करना उसने आरंभ किया। मानव सभ्यता के सबसे पहले करीब आया कुत्ता, जो जंगली भेडि़यों का ही परिवर्तित रूप है। भेडि़यों ने मनुष्य द्वारा किए गए शिकार से अपना पेट भरा और धीरे-धीरे मानव के करीब आते गए। हो सकता है कि मनुष्य और भेडि़ए दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हों, जैसे भेडि़ये को मानव द्वारा किए शिकार में से अपने भोजन का हिस्सा मिलता था, हो सकता है भेडि़ये के शिकार से मनुष्य भी अपना पेट भरते हों। जिस वक्त मानव पशुओं के अपने अनुरूप ढाल रहा था और उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर रहा था, उसी समय वह पौधों पर भी अपना नियंत्रण करने में लगा था। शुरू में तो मनुष्य ने घास के बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया। इसी क्रम में मनुष्य ने जाना कि पके हुए बीज जो पौधे से जुड़े हों, उन्हें जमा करना भूमि पर गिरे हुए बीजों की अपेक्षा ज्यादा आसान है। बस फिर क्या था, पौधों को बोने के लिए मानव ने अपने आसपास की भूमि के पेड़ काटने शुरू किए और झाडि़यों को उखाड़ फेंका, जिससे उसके द्वारा बोए गए पौधों को जगह और सूरज की रोशनी मिल पाए। जंगल के जंगल कटने शुरू हो गए और पर्यावरण पर चली इस पहली कुल्हाड़ी के साथ मानव ने खेती शुरू की और किसान बना।

पौधे और पशुओं के नए रूप धीरे-धीरे एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता तक फैलने लगे। मध्य पूर्व से यूरोप तक बढ़ते इस चलन ने धीरे-धीरे मानव सभ्यता में बुनियादी परिवर्तन लाने शुरू कर दिए। जैसे-जैसे खेती की पद्धति अपनाई जाती गई, वैसे ही मानव ने भूमि के चेहरे को अपने अनुरूप बदलना शुरू कर दिया। घोड़े, मवेशी, मुर्गी आदि सब पालतू बनते गए। चारागाह बनाए गए तथा फसलों के लिए जंगल काट-काटकर भूमि जुटाई गई। जंगल काटने के साथ-साथ मनुष्य ने अपने लिए अनुपयोगी एवं खतरनाक जानवरों को मारना शुरू किया। साथ ही साथ ऐसे पौधे भी उखाड़ फेंके जो उसके लिए उपयोगी न थे और इसी तरह प्राणियों और वनस्पतियों की कई प्रजातियां खत्म हो गईं। इसी तरह मानव अन्य पारितंत्रों से प्रजातियां अपने यहां उठा लया, जिससे उसे अलग-अलग किस्में तो मिलीं परन्तु कुछ घुसपैठिए प्रजातियों ने वहां के प्राकृतिक संतुलन को ही बिगाड़ना शुरू कर दिया और कई मूल प्रजातियां नष्ट हो गईं और पर्यावरण का नाश फिर रुका नहीं। फिर आया औद्योगिकीकरण का दौर, उपनिवेशवाद के काल में राज करने वाले देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधा-धुंध दोहन किया। बड़ी-बड़ी फैक्टरियां, संयंत्र आदि स्थापित हुए। यूरोप, अमेरिका जैसे देशों में जीवाश्म ईंधन (फोसिल फ्यूल) की खपत बढ़ती चली गई। प्राकृतिक संसाधनों के धनी देश जैसे भारत, अफ्रीका आदि बड़े और अमीर देशों की जरूरत को पूरा करने के लिए निचोड़े जाने लगे। जहां एक ओर औद्योगिकीकरण की बयार, धन, ऐशो-आराम, रोमांच और जीत का एहसात लाई, वहीं पृथ्वी की हवा में जहर घुलना शुरू हो गया। मानव अपने लालच के आगे धरती की हर पुकार और मांग को अनसुना करता चला गया। उद्योगों मे कोयला, तेल जलता था जिससे वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ने लगी। धीरे-धीरे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी तेजी से विकास हो रहा था। बड़े हथियारों के साथ राकेट बनने शुरू हुए। राकेट आदि से वायुमंडल को नुकसान होना स्वाभाविक था। क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स (सीएससी) और अन्य पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों का इस्तेमाल बढ़ गया। फिर 1984 में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन की छतरी में छेद का पता लगने पर दुनिया को समझ आना शुरू हुआ कि कैसे मानव की गतिविधियां वायुमंडल में अभूतपूर्व क्षति पहुंचा रही है। एक ऐसा नुकसान जिसकी भरपाई कर पाना मानव के बस में नहीं है और उस पर मानव का जीवन निर्भर है, यानी वायुमंडल की चादर में छेद। ओजोन की छतरी में हुआ यह छेद अपने आकार को बढ़ाता-घटाता रहा। परन्तु 1987 में उपग्रह से प्राप्त चित्रों से पता लगा कि यह छेद अब ऐवरेस्ट पर्वत जितना गहरा और संयुक्त राज्य अमेरिका जितना बड़ा है।

वायुमंडल के समताप मंडल (स्ट्रैट्रोस्फियर) में पृथ्वी से 15 और 35 कि.मी. ऊपर, ओज़ोन की परत होती है। यहां सूरज की पराबैंगनी किरणें ऑक्सीजन के अणु पर गिरती है और दो ऑक्सीजन के परमाणु से बने इस अणु को तीन ऑक्सीजन के परमाणु वाली ऑक्सीजन जिसे ओज़ोन कहते हैं, उसमें परिवर्तित कर देती है। ओज़ोन बनती है और फिर ऑक्सीजन में बदलती है और फिर ओज़ोन बनती है। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है जिससे ओज़ोन की एस स्थिर मात्रा बनी रहती है। परन्तु अति अभिक्रियात्मक तत्व जैसे क्लोरीन और नाइट्रिक ऑक्साइड ओज़ोजन को तेजी से अपघटित करते हैं। यह अणु एक शृंखलाबद्ध अभिक्रिया शुरू कर देते हैं। क्लोरीन का एक परमाणु एक हजार ओज़ोन के अणुओं को तोड़ने की क्षमता रहता है। उद्योगों से कई पदार्थ निकलते हैं जिनमें क्लोरीन होता है। सबसे खतरनाक इनमें क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) होते हैं क्योंकि इनका आसानी से अपघटन नहीं होता। इनकी इसी खासियत की वजह से इनका उपयोग काफी व्यापक औद्योगिक प्रक्रियाओं एक घरेलू समान जैसे फ्रीज, वातानुकूलक, स्प्रे कैन आदि में होता है।

पृथ्वी से 15 कि.मी. ऊपर क्षोभ मंडल में सीएफसी स्थिरता के कारण ही कुछ वर्षों में समताप मंडल में पहुंच जाता है। समताप मंडल में पराबैंगनी किरणें इन्हें मुक्त क्लोरीन परमाणु और अन्य क्लोरीन युक्त पदार्थों में अपघटित कर देती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में यह क्लोरीन के परमाणु ओज़ोजन के अणुओं का शिकार शुरू कर देते हैं। ओज़ोन के छेद के लिए सिर्फ क्लोरीन को दोषी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि अन्य गैंसें जैसे, हैलोन्स (आग बुझाने के काम आती है) मिथाइल क्लोरोफार्म (सफाई, गोंद आदि में) तथ कार्बन टेट्राक्लोराइड (ड्राइ क्लिनिंग आदि में) भी जिम्मेदार है। यह सभी क्लोरीन, ब्रोमीन और फ्लोरीन उत्सर्जित करते हैं, इन्हीं को हेलोजन कहते हैं। ओज़ोन की छतरी में छेद होने से पराबैंगनी किरणों के कारण गोरे लोगों में त्वचा का कैंसर, मोतियाबिंद आदि हो सकते हैं, पर पराबैंगनी का सबसे बुरा प्रभाव फसलों के उत्पादन और पारितंत्रों पर पड़ सकता है। इसी तरह जलीय जीव भी घातक रूप से प्रभावित हो सकते हैं। पराबैंगनी किरणें डीएनए में उत्परिवर्तन (न्यूटेशन) करने की क्षमता रखती है।

100 वर्षों से भी ज्यादा समय से वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् पूरी दुनिया में जीवाश्म ईंधन को जलाने से पैदा होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस के बढ़ते स्तर के कारण धरती के वायुमंडल का तापमान बढ़ने की चेतावनी दे रहे हैं। 1980 के दशक में विभिन्न देशों के राजनेताओं ने भी इस समस्या की गंभीरता को समझा और ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापन था, भूमंडलीय तापन के मुद्दे पर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। ग्लोबल वार्मिंग के कारण प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि होने की भविष्यवाणी वैज्ञानिक पहले ही कर चुके थे। अमेरिका में आया कैटरीना चक्रवात (हैरीकेन) और उसके द्वारा मचाई गई भयानक तबाही। इसी भविष्यवाणी को सच साबित करते नजर आ रहे। अमेरिका, चीन, मैक्सिको, आदि देशों में हर वर्ष आने वाले चक्रवातों की तीव्रता बढ़ रही है और इसका सीधा संबंध महासागरों के बढ़ते तापमान से है। जितनी ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस आक्साइड और वाष्प आदि उत्सर्जित होगी। उतने ही अनुपात में पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा क्योंकि ये गैसें सूरज से आने वाली छोटी तरंगों वाली ऊर्जा किरणों को तो धरती पर जाने देती है परंतु धरती की सतह से परावर्तित लम्बी तरंग वाली ऊष्मा किरणों को वापस जाने से रोकती है।

दुर्भाग्य से इन ग्रीन हाउस गैसों का तेजी से स्तर बढ़ रहा है, जिसका मुख्य कारण, तेजी से कटते जंगल और जीवाश्म ईंधन का उपयोग है। असल में पेड़-पौधे इन कार्बन डाइऑक्साइड जो प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है, उन्हें सोखते हैं। इसी तरह महासागर भी इन गैसों को अपने में भंडारित करते है और धीरे-धीरे उन्हें छोड़ते हैं। पर पृथ्वी को भी सहने की अपनी सीमा है। इन गैसों का उत्पादन धरती के सोखने की क्षमता से ज्यादा हो रहा है। साथ ही साथ जंगल आदि काटे जा रहे हैं, इसीलिए पर्यावरण पर इन क्रियाकलापों के दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं।

एक अनुमान के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण 2050 तक समुद्री जल स्तर करीब 7 सें.मी. और 165 सें.मी. तक बढ़ सकता है। बढ़ते तापमान के कारण महासागरों में फैलाव होगा और ग्रीन लैंड, अंटार्कटिका तथा ग्लेशियरों के पिघलने से भी समुद्री जल स्तर बढ़ेगा। अगर समुद्री जल स्तर 1 मीटर तक भी बढ़ा तो मालद्वीप देश और अन्य निचले तटीय इलाके समुद्र की गहराई में समा जाएंगे और करीब 30 करोड़ इससे प्रभावित होंगे। लंदन, बैंकाक तथा न्यूयार्क जैसे शहर भी इस बर्बादी से अछूते नहीं रहेंगे। इसके साथ-साथ काफी बड़ी मात्रा में कृषि भूमि भी नष्ट हो जाएगी जिससे पूरी दुनिया के खाद्य उत्पादन में भयानक गिरावट आएगी।

अगले 60 वर्षों में ध्रुवीय क्षेत्रों का तापमान 120 से. तक बढ़ने की उम्मीद है, जिससे वहां कई प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का खतरा है, मुख्यतः ध्रुवीय भालू, वालरस आदि का। आर्कटिक की बर्फ पिघलने से उसके किनारे के नीचे पैदा होने वाली काई खत्म हो जाएगी। जिस कारण उसे खाने वाली छोटी मछलियां भी खत्म हो जाएंगी और उन छोटी मछलियों पर निर्भर बड़ी मछलियां जैसे व्हेल आदि भी खत्म। पर इन सबसे ज्यादा विध्वंसकारी है आर्कटिक के टुण्ड्रा क्षेत्रों में बर्फ में दफन अरबों टन मिथेन गैस जो, इन बर्फ के पिघलने पर बाहर निकल आएगी और हवा को और जहरीला बना देगी। बढ़ते तापमान से पानी में ज्यादा भाप बनेगी, यह भाप या वाष्प भी ग्रीन हाउस गैस ही है। इस कारण तापमान और तेजी से बढ़ेगा।

बांधों का भी पर्यावरण को हानि पहुंचाने में बड़ा हाथ है, जितना बड़ा बांध उतना ही ज्यादा नुकसान। बांध जब बनता है, तो शुरू-शुरू में उसके कुछ फायदे जरूर नजर आते हैं, जैसे बिजली मिलना, पानी की आपूर्ति आदि। परन्तु जल्दी ही बांध के आपूर्ति आदि, परन्तु जल्दी ही बांध के दुष्प्रभाव अपना असर दिखाने लगते हैं। किसी इलाके में खाद्य शृंखला व प्रकृति चक्र को सुचारू बनाने में हजारों वर्ष लगते हैं जबकि बांध कुछ ही वर्षों में हजारों वर्षों से बने प्रकृति चक्र को तोड़ देते हैं। बांध के कारण काफी सारी कृषि भूमि बर्बाद हो गई। अकेले हरियाणा की 4.26 लाख हैक्टर भूमि दलदली और क्षारीय हो गई है। बांधों को बनाने में डूब क्षेत्र में आने वाले विस्थापितों का मसला हमेशा एक अहम सवाल रहा है। भाखड़ा नांगल बांध के कई विस्थापित अभी तक भटक रहे हैं। बांध के कारण मिट्टी में क्षारीयता बढ़ जाती है। साथ ही साथ वन कटान, खनन आदि के कारण गाद भी बढ़ती है। जैसे-जैसे गाद बढ़ेगी, जलाशय की जलग्रहण क्षमता तथा विद्युत उत्पादन दोनों घटेंगे। गाद भरने से बांध-टूटने का खतरा बढ़ जाता है और पानी छोड़ने से बाढ़ से भयानक तबाही मच जाती है। बरसात में बांध से पानी इतनी गति से छोड़ा जाता है कि एक दीवार की तरह लहर आती जो अपने साथ गांव के गांव बहा ले जाती है। अगस्त-सितम्बर 2006 की बारिश में ऐसे कई मामले सामने आए। आज अमेरिका जैसे विकसित देश अपने 500 से अधिक बांध तोड़ चुका है और 200 बांध और तोड़ने की तैयारी चल रही है। और बांधों का तोड़ना ज्यादातर फायदे का सौदा साबित हो रहा है, क्योंकि तोड़ने का खर्चा, रखरखाव के खर्चे से काफी कम है और अब टूटे बांधों वाले क्षेत्रों में मछली उद्योगों में तेजी से पनप रहा है, बांधों के रहते पूरी तरह बंद था। आज हरित क्रांति के जन्म की भूमि पंजाब और हरियाणा में भी पैदावार घट रही है। मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी, इसका मुख्य कारण है। हम अपने लालच में धरती से जितने ले रहे हैं उतना लौटा नहीं रहे हैं। किसान आत्महत्या की ओर रुख कर रहा है। कीटनाशियों के उपयोग जहां मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीवों की संख्या में कमी की है, वहीं मिट्टी की उर्वरक क्षमता घटाने के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है। शीतल पेय के अलावा हर खाद्य वस्तु, दूध आदि में कीटनाशियों की मात्रा खतरनाक स्तर तक मौजूद है।

भारत में जहां नदियों को श्रद्धा एवं सम्मान से देखा जाता है। आज लगभग सभी नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। फैक्टरियों, संयंत्रों आदि से निकले दूषित जल एवं रसायनों से नदियां जीवनदायनी का रूप खो चुकी हैं। नदियों में भारी धातुओं जैसे आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि की मात्रा तेजी से बढ़ रही है, जिस कारण लोगों को विभिन्न रोग घेर रहे हैं। बिहार के 12 जिले आर्सेनिक की चपेट में है, झारखंड, कलकत्ता, मुंबई भी अछूते नहीं हैं। आर्सेनिक से होने वाली चर्मरोग और लीवर को समस्या से करीब 2 लाख लोगों के प्रभावित होने के आसार हैं। समुद्र में नाभिकीय अपशिष्ट का निपटारा भी पूरे महासागरों के पारितंत्र के खतरे में होने का संकेत दे चुका है। कई जलीय जीव लुप्त हो चुके हैं। पर्यावरण की बरबादी के चलते, पूरे ग्रह की जैवविविधता आज खतरे में है। हर रोज जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की औसतन 100 प्रजातियां धरती से विलुप्त हो जाती है, ऐसे ही चलता रहा तो अगली शताब्दी तक 60,000 किस्म के पौधे-दुनिया से हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे।

प्रसिद्ध पर्यावरणीय चिपको आंदोलन के श्री सुन्दरलाल बहुगुणा जी ने पिछले महीने एक मुलाकात के दौरान कहा था कि-‘‘लोग कहते हैं, कि विकास के लिए पेड़ काटने होंगे, क्योंकि ऐसे ही खड़े पेड़ हमें कुछ नहीं देते। बहुत से लोगों के लिए विकास का अर्थ है वैभव और ऐसे विकास में हमें विलासता और आराम के लिए ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करना होगा। पर इसके संसाधन खर्च होंगे और संसाधन तो सीमित है और जब यह संसाधन खत्म होने लगेंगे तो हमारे विकास का क्या होगा? क्या विकास वैभव है या शांति। ये पेड़ हमें जीवन देते हैं, मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। 1 इंच मोटी उपजाऊ मिट्टी की परत बनाने में प्रकृति को 1000से 1500 साल लगते हैं। पेड़ तो प्राकृतिक स्पंज हैं, जो ज्यादा पानी सोखते हैं और जरूरत पर छोड़ते हैं। हमें तय करना होगा कि हम अपने वैभव और विलास के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करें या आने वाली पीढ़ी के लिए एक हरा भरा संसार छोड़ जाएं।

अभी वक्त है कि हम प्रकृति की चेतावनी को समझें और पर्यावरण से छेड़खानी बंद करें। हम आज प्रदूषण से हो रहे पर्यावरण की हानि को अच्छी तरह समझ चुके हैं। हमें पृथ्वी के जीवन पर मंडराते खतरे अब नजर आने लगे हैं। इसलिए जरूरत है अपने लालच और इच्छाओं से ऊपर उठकर आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचने की। हमें रासायनिक उर्वरक और कीटनाशियों को छोड़कर जैविक खेती को अपनाना होगा। पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। प्लास्टिक, जीवाश्म ईंधन आदि का कम से कम उपयोग करना होगा। अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों को टटोलना होगा। बायो डीजल, सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन ईंधन, पन एवं पवन बिजली जैसे प्राकृतिक अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को बड़े स्तर पर अपनाना होगा। बड़े विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से हमेशा पीछे हटते रहे हैं, वरना ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम रकने के लिए बनी क्योटो संधि (अगस्त 2002 में भारत इसमें शामिल हुआ) पर अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों के भी हस्ताक्षर होते। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा तो धरती पर जीवन सुरक्षित रहेगा। आज जरूरत है अपनी पिछली गलतियों से सबक लेने की और उन्हें सुधारने की। हमें अपने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आज से ही कदम उठाने होंगे वरना कल बहुत देर हो जाएगी।

पर्यावरण पर संगोष्ठियां

स्टॉकहोम संगोष्ठी, 1972

– 1972 में 5 से 14 जून तक स्टॉकहोम में इस संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। इसमें 114 राष्ट्रों ने प्रतिभागिता की तथा 150 एक्शन योजनाएं तय की गईं। इसी संगोष्ठी में 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ घोषित किया गया।

नैरोबी संगोष्ठी, 1982

– 1982 में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण पर संगोष्ठी नैरोबी में सम्पन्न हुई।

ऽ रिओ शिखर सम्मेलन, 1992

– 1992 में 3 से 14 जून तक संयुक्त राष्ट्र ने रिओ-डी-जिनेरो में ‘अर्थ समिट’ का आयोजन किया। इसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, वन, जनसंख्या, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, वित्त, डिग्रेडेशन जैसे 6 मुद्दों पर चर्चा की गई। सतत् विकास का ब्लू प्रिंट तैयार किया गया।

वायुमंडल की संरचना

1. क्षोभ मंडलः पृथ्वी में दूरी 8 से 15 कि.मी. 80 प्रतिशत हवा का द्रव्यमान यही होता है। इसलिए यह पृथ्वी पर मौसम को प्रभावित करता है।

2. समताप मंडलः पृथ्वी से दूरी 15 से 30 कि.मी.। तापमान स्थिर रहता है। ओज़ोन परत यहां होती है।

3. मध्य मंडलः पृथ्वी से दूरी 30 से 80 कि.मी. तक। यहां तापमान बहुत ही ठंडा होता है।

4. आयन मंडलः पृथ्वी से दूरी 80 कि.मी. से ऊपर तक। सबसे ऊपर का मंडल जिसमें आयनित अणु एक परमाणु होते हैं।

(चरखा फीचर्स)

1 COMMENT

  1. fundabook.com पर प्रकाशित लेख इस लिख में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को रोकने के लिए 10 आसान उपाय दिए गये है. यह उपाय बहुत ही साधारण से हैं जिन्हें अपनी दैनिक आदतों में शामिल करके हम भी पर्यावरण संरक्षण में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं.

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