‘हमारा पर्यावरण व प्राणी जगत’

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-मनमोहन कुमार आर्य- environment

सारी दुनिया में पर्यावरण एक ऐसा ज्वलन्त विषय है जिसको लेकर बुद्धिजीवी वर्ग अत्यन्त चिन्तित व आन्दोलित है। ऐसा इस कारण से है कि पर्यावरण कोई साधारण समस्या नहीं है अपितु यह मनुष्य जाति व समस्त प्राणी जगत के जीवन मरण का प्रष्न है। यदि पर्यावरण को सुरक्षित व नियंत्रित न किया गया तो मानव जाति सहित समस्त प्राणी जगत का भविष्य अनिश्चित, असुरक्षित, अन्धकारमय व विनाशकारी होकर उसके अस्तित्व को समाप्त भी कर सकता है। पर्यावरण प्राणी जगत के लिए ऐसा ही है जैसा कि चेतन-तत्व जीवात्माओं के लिए उनके अपने शरीर अर्थात् आत्मा के लिए मानव शरीर। ऐसा इसलिए है कि मानव शरीर उसमें निवास करने वाली जीवात्मा का एक प्रकार से पर्यावरण ही है। हम अपने शरीर की रक्षा के सभी उपाय करते हैं। स्नान करके इसे स्वच्छ रखना, शुद्ध वायु में श्वास, शुद्ध जल का पान, पौष्टिक व सन्तुलित भोजन, समय पर सोना व जागना, पुरूषार्थ व तप, ईश्वरोपासना, मन व मस्तिष्क में सत्य व शुद्ध विचार, यज्ञ-अग्निहोत्र, माता-पिता की सेवा, परोपकार, समाज सेवा, निर्धनों की सहायता, भूखों को भोजन, अज्ञानियों को शिक्षा आदि सब कुछ करते हैं। इसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है और वह स्वस्थ, निरोग, दीर्घजीवी, बलशाली, प्रतिष्ठित, यशस्वी, स्वावलम्बी, सुख व शान्ति से युक्त रहता है। जिस प्रकार हमारी आत्मा अर्थात् हमें, यह जड़ व मरणधर्मा शरीर स्वस्थ व निरोगी चाहिये, उसी प्रकार से शरीर को स्वयं को स्वस्थ व निरोग रखने के लिए शुद्ध, सन्तुलित, प्रदूषण रहित, हरा-भरा प्राकृतिक वातावरण तथा शुद्ध अन्न-वनस्पति-औषधियां चाहिये। यदि षरीर को स्वच्छ व प्रदूषण रहित वातावरण व पर्यावरण नहीं मिलेगा तो हमारे शरीर का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा और जीवन के सामान्य कार्यों को करने के स्थान पर हम जीवन की पूरी अवधि इसे रोगों से बचाने व आ गये अनचाहे रोगों के उपचार आदि में लगे रहेंगे। सुख का नाम भी शायद जीवन में याद न रहें, ऐसी स्थिति पर्यावरण के प्रदूषित होने पर भविष्य में आ सकती है।

आईये, कुछ चर्चा हम पर्यावरण की भी कर लेते हैं। पर्यावरण, पृथिवी-अग्नि-जल-वायु-आकाष की समस्त प्राणी जगत के जीवन-आयु-स्वास्थ्य के अनुकूल षुद्ध व आदर्ष स्थिति को कहते हैं। यदि हमारा वायुमण्डल षुद्ध व प्रदूषण से मुक्त है, नदियों, नहरों, कुओं, तालाब, सरोवरों, वर्षा व खेतों में सिंचाई का जल भी शुद्ध व हानिकारक प्रभाव से मुक्त है, हमारी पृथिवी की उर्वरा-षक्ति अपनी अधिकतम क्षमता के साथ विद्यमान है, हमारे जंगल घने व सुरक्षित है, देश के 3/4 भाग में वन व सभी प्रकार के वन्य-जन्तु हैं, भूमि के शेष भाग में कृषि-खेत, नगर-गांव-सड़कें व उद्योग आदि हैं, खनन द्वारा भूमि का अनावश्यक व अनुचित दोहन नहीं होता है, वातावरण स्वास्थ्य के अनुकूल है, समय पर वर्षा होती हो, वर्षा का जल पीने योग्य हो तथा उसमें हानिकारक तत्व घुले हुए न हों, सभी ऋतुयें समय पर आती-जाती रहती हों, तो यह मान सकते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक व सामान्य है। आज की स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। अतः अब यह देखना आवष्यक है कि यह स्थिति उत्पन्न कैसे हुई?

हमारी सृष्टि आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व एक सत्य, चेतन व अपौरूषेय सत्ता द्वारा रची गई है। तभी से इस पर मानव वा प्राणी जगत भी हैं, वनस्पतियां, जल, अग्नि, वायु आदि सब कुछ है। आरम्भ में वायुमण्डल एवं पूरा पर्यावरण आदर्श रूप में था, अर्थात् उसमें किंचित भी असन्तुलन या प्रदूषण नहीं था। जनसंख्या कम थी। धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि होने लगी। इस कारण, सम्भवतः एकान्त प्रियता या भीड़भाड़ से दूर रहने के स्वभाव के कारण, लोग दूर-दूर जा कर बसने लगे और आरम्भ की कुछ षताब्दियां व्यतीत होने के साथ पृथिवी के चारों ओर मानव पहुंच गये व अपने निवास स्थान पृथिवी के सभी भागों में बना लिये। मनुष्य जहां रहता है वहां उसके शौच, रसोई या भोजन, वस्त्रों को धोने व अन्य कार्यों से जल व वायु में प्रदूषण उत्पन्न होता है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि प्रदूषण व पर्यावरण के बारे में बहुत सतर्क, सजग व सावधान थे। उन्होंने मानव जीवन पद्धति सपमि जेलसम को कम से कम आवश्यकताओं वाली बनाया। वह जानते थे कि जितनी सुख की सामग्री प्रयोग में लायी जायेगी, उतना ही अधिक प्रदूषण होगा और उससे मनुष्य का जीवन, स्वास्थ्य व सुख-शान्ति प्रभावित होंगे। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि हमारी इन्द्रियों की षक्ति सीमित होती है। इसे जितना कम से कम प्रयोग करेंगे व खर्च करेंगे, उतना अधिक यह चलेगीं या काम करेगी। जो व्यक्ति अधिक सुख-साधनों का प्रयोग करता है उसकी इन्द्रिया व षरीर के अन्य उपकरण, हृदय, पाचन-तन्त्र यकृत-प्लीहा-लीवर-किडनी आदि प्रभावित होकर विकारों आदि से ग्रसित होकर रूग्ण हो जाते हैं। होना तो यह चाहिये कि हम तप, पुरूषार्थ, श्रम, योगासन, हितकर षाकाहारी भक्ष्य श्रेणी का भोजन, अभक्ष्य पदार्थों का सर्वथा व पूर्णतया त्याग, स्वाध्याय, ध्यान व चिन्तन पर अधिक ध्यान दें जिससे हमारा षरीर स्वस्थ व सुखी रहे। वायु व जल प्रदूषण को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ऋषियों ने एक ऐसी अनोखी नित्यकर्म विधि बनाई जो सारी दुनियां में अपनी मिसाल स्वयं ही है। इसके लिए उन्होंने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ गोघृत, स्वास्थ्यवर्धक वनस्पतियों, ओषधियों, सुगन्धित व पुष्टिकारक पदार्थो से दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया।

इस अग्निहोत्र को करने से सभी पदार्थ अग्नि के संसर्ग से सूक्ष्म होकर वायु मण्डल में फैल जाते हैं। वायुमण्डल में वायु के प्रदुषणयुक्त अणु-परमाणु यज्ञ की अग्नि से सूक्ष्म किए गये गोघृत, वनस्पति-ओषधि-सुगन्धित-पुष्टिकारक द्रव्य-सामग्री के अणु-परमाणु से मिलकर प्रदूषण के प्रभाव को समाप्त करते थे। इससे वायुमण्डल अपनी आदर्ष स्थिति-संरचना-बवउचवेपजपवद में रहता था। इस प्रकार यज्ञ से उत्पन्न वायु-गैस-सूक्ष्मकणों के वायुमण्डल में चहुंदिष फैलाव से दूर-दूर तक का वायुमण्डल षुद्ध व पवित्र व रोगकृमि रहित हो जाता था। वर्षा होने पर वह यज्ञ के परमाणु-अणु व कण हमारी भूमि पर आते थे जो नाना प्रकार की वनस्पतियों, अन्न, पुष्पों व सभी प्रकार की ओषधियों की गुणवत्ता में वृद्धि अंसनम मकपजपवद करते थे। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यज्ञ के प्रभाव का वनस्पति व समस्त प्राणी जगत पर अध्ययन व परीक्षण कर उससे होने वाले अच्छे प्रभाव पर अनुसंधान की आवश्यकता है। हम समझते हैं कि यदि ऐसा अनुसंधान कोई वेद ज्ञानी, योगाभ्यासी व आघुनिक वनस्पति विज्ञान सहित सभी विषयों के वैज्ञानिकों का समूह करे, तो उससे मानव व प्राणी जगत के लिए लाभप्रद अनेक नये तथ्यों पर प्रकाष पड़ सकता है और तब अग्निहोत्र यज्ञ की महत्ता व उपयोगिता और अधिक समझ में आ सकती है। यह तो निष्चित है कि वायु व जल का वनस्पतियों से गहरा सम्बन्ध है। यज्ञ से वायुमण्डल में जो गुणात्मक परिवर्तन होता है, उसका वनस्पतियों पर भी प्रभाव तो होगा ही। मनुष्यों द्वारा यह प्रभाव एक रूप में नासिका से सुगन्ध के ग्रहण द्वारा प्राप्त होता है। यज्ञ व अग्निहोत्र की यह सुगन्ध आरोग्यकारी होने के साथ फूलों की सुगन्ध से अधिक प्रभावकारी होती है। अब क्योंकि यज्ञ में वनस्पतियां, औषधियां, गोधृत व षक्कर आदि मीठे व पौष्टिक अनेक पदार्थ भी डाले गये हैं, तो उनका प्रभाव भी मानव षरीर व जीवन पर निष्चित रूप से होगा। इस प्रभाव को वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करने व जानने के लिए यज्ञ-प्रेमियों को प्रयास करना चाहिये। इस सन्दर्भ में यह कहना भी उचित होगा कि हमने विदेशी पाश्चात्य संस्कार इतने अधिक ले लिये हैं कि वायु व वृष्टि के संषोधक अपने प्राचीन जीवनोपयोगी क्रिया-कलापों, कर्मकाण्डों व विधि-विधानों को तिलांजति दे रखी है। उन पर विचार ही न करना करना हमारी घातक सोच है। आज हमारा वायु मण्डल अत्यधिक अषुद्ध है जिसका कारण उद्योगों से उत्पन्न धुएं, वाहनों में ईंधन के जलने से निकलने वाली हानिकारक गैसों तथा वृक्षों की कमी आदि हैं। इसी प्रकार से उद्योगों में अनुपयोगी पदार्थों व घरेलू अनावष्यक पदार्थों को जल में डाल कर बहा दिया जाता है जिससे वायु व जल दोनों प्रदुषित हो गये हैं। इनका सुधार तो हम अपनी आवष्यकताओं को सीमित करके व विज्ञान की सहायता से कर सकते हैं। अधिक संख्या में वृक्षारोपण कर भी समस्या को कुछ-कुछ कम किया जा सकता है। सरकार के साथ नागरिकों को अपना कर्तव्य पालन करना आवष्यक है।

आज सारा विश्व पश्चिम जगत के वैज्ञानिक व औद्योगिक उत्पादों के कुचक्र में फंसकर अपने स्वाभाविक व नैसर्गिक जीवन तथा धर्म-कर्म को भूल कर एवं उसे छोड़कर प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन व उससे उपलब्घ साधनों के उपभोग को ही जीवन की सफलता का पर्याय मान रहा है। इससे समाज में नाना प्रकार के रोग व दुःख उत्पन्न होकर मनुष्यादि प्राणी अल्पायु में अकाल मृत्यु के मुख में जा रहे हैं। विवेकहीन होने के कारण इसका प्रमुख कारण आवष्यकता से अधिक व अनेक अनुपयोगी प्रकार के भोग-पदार्थ जिसमें भव्य निवास, मोटर-गाड़ी, खर्चीले स्कूलों की पाष्चात्य मूल्य प्रधान षिक्षा, पुरूषार्थ रहित आरामदायक जीवन, बड़े बैंक बैलेन्स के साथ-साथ असमय का भोजन व खाना-पीना, अनियमित सोना-जागना, असन्तुलित व सीमा से अधिक दूरदर्शन, मोबाइल आदि का प्रयोग जिसका प्रभाव आंखों, कानों, मन, मस्तिष्क व शरीर के यन्त्र-तन्त्र पर प्रतिकूल रूप से पड़ रहा है। इनसे जीवन में होने वाले हानिकारक प्रभाव को पीडि़त व उसके परिवार वाले जान ही नहीं पाते हैं। डॉक्टर आदि इस पर कुछ कम ही बताते हैं। हम समझते हैं कि जीवन को स्वस्थ व प्रसन्न रखने के लिए प्रातः 4 से 5 बजे के बीच उठना व रात्रि 10 बजे तक सो जाना, योगासन व व्यायाम करना, षरीर को स्नान आदि से स्वच्छ रखना, त्वचा पर किसी प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग न करना व केवल हर्बल प्रसाधनों का बहुत अल्प मात्रा में प्रयोग करना, अल्पमात्रा में शुद्ध व शाकाहारी पौष्टिक भोजन जिसमें पौष्टिक अन्न से बनी चपाती, चावल, दालें, हरि तरकारियां, दूध, दही, मट्ठा, सभी प्रकार के स्वास्थ्यवर्धक फल, बादाम, काजू, पिस्ता आदि हों, समय पर लेना या करना चाहिये। अग्निहोत्र यज्ञ से हमारे घरों का वातावरण भी पूर्ण शुद्ध रहना चाहिये, हमें अपने विचार भी शुद्ध व पवित्र रखने चाहिये जिसके लिए हमें वेद के विधान के अनुसार ईश्वरोपासना-संन्ध्या आदि भी करनी चाहिये। यदि ऐसा करेगें तभी हम स्वस्थ रह सकते हैं अन्यथा रोगों का आक्रमण आयु की किसी भी स्थिति व अवस्था में हो सकता है।

हमारा पर्यावरण मुख्यतः पृथिवी, जल, वायु व आकाश का समूह हैं। हमारा भोज्य-अन्न शुद्ध भूमि में षुद्ध प्राकृतिक खाद व पानी से उत्पन्न होना चाहिये। आज कल खेतों में प्रयोग किये जाने वाले रसायनिक खाद व कीटनाषकों का छिड़काव भी हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ने व असाध्य रोगों को उत्पन्न करने का सबसे बड़ा कारण सिद्ध हुआ है। देष भर में एक मिथ्या-विष्वास पैदा हो गया है कि रासायनिक खाद व कृत्रिम कीटनाशकों के छिड़काव से पैदावार अधिक होती है। वास्तविकता यह है कि हम प्राकृतिक खादों व कीटनाशकों से भी वही परिणाम प्राप्त कर सकते है और रोगों से बच सकते हैं। यद्यपि बुद्धिमान व विद्वानों को इस विषय से सम्बन्धित तथ्यों का ज्ञान है परन्तु कुछ विशेष कार्य होता दिखाई नहीं दे रहा है। रासायनिक खाद आदि के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले अन्न से असाध्य रोगों में कैंसर, हृदय व मधुमेह आदि अनेक भयंकर रोग सम्मिलित हैं। बड़े व छोटे नगरों तथा ग्रामों तक कृत्रिम प्रकार का विषैला दूध, दही व घृत का प्रतिदिन विक्रय हो रहा है। आजकल मुनाफाखोरी के चक्कर में सब्जियों व फलों में विषैले इंजेक्षन लगाकर उनका आकार अल्प-समय में बढ़ा दिया जाता है। इससे एक ओर कुछ थोड़े से समाज विरोधी लोग मालामाल हो रहे हैं तो दूसरी ओर असंख्य लोग रोगों का शिकार होकर असमय मृत्यु का ग्रास बन रहे हैं। समाज के शत्रु धन के लिए ऐसे घिनौने काम करते हैं जिन्हें सरकारी तन्त्र के लोभ की प्रकृति वाले कर्मियों से सहयोग प्राप्त होता है। यह बहुत ही चिन्ताजनक व स्वाधीन देश के लिए अपमानजनक है। हमें लगता है कि हमारी व्यवस्था के संचालकों को लोगों की अनुचित व बुरी प्रवृत्ति का न तो पूरी तरह से ज्ञान है और न उसे समाप्त करने में उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति ही दृष्टिगोचर होती है। भगवान भरोसे ही आज का मनुष्य ऐसी विपरीत परिस्थिति में जीवित है। अतः आवष्यकता है कि बाजार से खरीदी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को लेने से पूर्व ग्राहक द्वारा उसकी शुद्धता की पूरी परीक्षा हो अथवा संदिग्ध वस्तुओं का प्रयोग ही न किया जाये व अत्यल्प मात्रा में करें। बुद्धिमान लोग जानते हैं कि इन समाज विरोधी कार्य में अषिक्षा व चारित्रिक गिरावट के साथ षीघ्र अधिक धन बटोरने का मनोविज्ञान काम करता है। इनका निवारण करना षिक्षा व समाज षास्त्रियों के साथ सरकार का काम है। यदि सरकारी मषीनरी ठीक काम करे और हमारी दण्ड व्यवस्था चुस्त-दुरूस्त हो तो परिणाम कुछ अच्छे हो सकते हैं।

हमारे पशु, पक्षी व सभी मनुष्येतर प्राणी भी हमारी सृष्टि और पर्यावरण का अंग हैं। ईश्वर ने, जिसे हमारे नास्तिक बन्धु अज्ञान, हठ व दुराग्रह से ‘प्रकृति’ कहते हैं, मनुष्य को शाकाहारी प्राणी बनाया है। मनुष्यों के दांतों की बनावट षाकाहारी प्राणियों के समान है। मांसाहारी प्राणियों के दांतों की बनावट व आकृति षाकाहारी प्राणियों से अलग प्रकार की होती है। मनुष्य की भोजन पचाने की प्रणाली भी षाकाहारी प्राणियों के समान है। शाकाहारी पशु अपनी सारी आयु स्वस्थ व सुखी रहते हुए व्यतीत करते हैं। उनके सामने सामिष वस्तुएं या भोजन रखा भी जाये तो भी वह उसका प्रयोग नहीं करते। इसी प्रकार ऐसे लाखों निरामिष भोजी लोग हैं जिन्होंने अपने पूरे जीवन किसी सामिश पदार्थ का भक्षण नहीं किया और 80 व 100 वर्ष के बीच की आयु में भी पूर्ण स्वस्थ हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य स्वभावतः सामिष भोजी नहीं है। सामिश-भोजी मनुष्यों की प्रकृति, स्वभाव, जीवन, स्वास्थ्य, चरित्र, मन व बुद्धि, काम की प्रवृत्ति यह सभी मांसाहार व मदिरापान आदि से कुप्रभावित होती हैं। सामिष भोजन करना व मूक प्राणियों को किसी भी प्रकार से दुःख देना ईष्वर व प्रकृति के प्रति जघन्य अपराध है जिसका दण्ड, न कम न अधिक, तो ईष्वर से समय आने पर मिलता ही है। अतः ‘‘जिओ व जीने दो’’ के सिद्धान्त का पालन प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिये। इस सिद्धान्त में अंहिसा तो है ही साथ में यह सृष्टि व प्रकृति को मानव जीवन के प्रति अधिक उपयोगी व सहयोगी बनाता है और मानव जीवन को सुखी, स्वस्थ व निरोग रखता है।

अब यह निश्चित हो गया है कि कृत्रिम रसायनिक खाद से हमारी कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति अर्थात् अन्न उत्पादन की शक्ति व सामर्थ्य धीरे-धीरे कम व नष्ट होती है और जो अन्न प्राप्त होता है वह शरीर पोषण कम करता है और साथ हि अनेक असाध्य रोग उत्पन्न कर जीवन को समय से पूर्व मृत्यु का ग्रास बनाता है। अतः कृत्रिम खादों का प्रयोग समाप्त कर और प्राकृतिक खाद का प्रयोग बढ़ाने के लिए योजनायें बनायी जानी चाहियें। कृषि नीति की समीक्षा कर ऐसे उपाय करने चाहियें जिससे आज के युवा कृषि व कृषि कार्यों में अपना व्यवसाय चुनें। करने से क्या नहीं होता। यदि ऐसा करेगें तब हि हमें स्वास्थ्यप्रद अन्न वा भोजन प्राप्त हो सकेगा अन्यथा विनाष व अन्धकार हमारे सामने उपस्थित है। दोनों में से एक को ही चुना जा सकता है। इस क्षेत्र में जागरण इस प्रकार का होना चाहिये कि हमारे राजनैतिक व सरकारी लोग किन्हीं आर्थिक व अन्य कारणों से हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ न कर सके।

आजकल हमारे देश में लोगों के पास जो धन व सुख की सामग्री है उसमें भारी असामनता व अन्तर है। कुछ लोगों के पास अथाह धन व सुख के साधन है तो कुछ के पास जीने के लिए दो समय का भोजन भी नहीं है। करोड़ों लोग बिना पर्याप्त भोजन, शिक्षा व सुख-सुविधाओं के अपना जीवनयापन करते हैं। रोग होने पर ऐसे लोग बिना उपचार के मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। यद्यपि हमारे चिकित्सकों द्वारा चिकित्सक बनने पर यह षपथ ली जाती है कि वह हर रोगी का उपचार करेंगे, परन्तु फिर भी आम आदमी डाक्टरों के पास जाने की हिम्मत नहीं कर पाता। आम आदमी तो क्या आज मध्यम श्रेणी का व्यक्ति भी डॉक्टर के पास किसी छोटी से छोटी बीमारी का उपचार कराने के लिए जाते समय डरता है कि कहीं लेने के देने न पड़ जायें। आज चिकित्सा के नाम पर कुछ लोग लूट करते हैं। अनावष्यक महंगे टैस्ट कराये जाते हैं, चाहे रोगी की सामर्थ्य हो या न हो। महंगी दवायें लिखी जाती हैं जिसका एक कारण इसमें कमीशन का लिया जाना भी होता है। इसमें कुछ सत्यता तो है ही। इसके अनेक उदाहरण भी सामने आ चुके हैं। यह एक प्रकार का चारित्रिक प्रदूषण है जो कि समाज व मनुष्य के अस्तित्व के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसे बढ़ने नहीं देना चाहिये अन्यथा यह मनुष्य में दया, करूणा, प्रेम, ममता, संवेदना आदि सभी कुछ समाप्त कर समाज के प्रत्येक मनुष्य को दूसरे के भोग की वस्तु बना कर रख देगा। हमने ऐसी सत्य घटनायें सुनी, पढ़ी व जानी हैं जब चिकित्सक ने रोगी को बिना बतायें उसकी किडनी निकाल ली और असत्य बात कह कर उसे समझाया गया कि उसके जीवन की रक्षा के लिए आपरेषन करना पड़ा। वह समय-समय पर दवा लेता रहे। यह घोर चारित्रक पतन का प्रमाण है एवं चारित्रिक प्रदूषण का उदाहरण है। यह सब समाज में चलता है क्योंकि हमारी दण्ड व्यवस्था में ऐसे अपराधियों को पकड़ने और शीघ्र दण्ड देने में समस्या है। चारित्रिक प्रदूषण के उदाहरण सभी व्यवसायों में देखने में आते हैं। यह सब आधुनिक शिक्षा की कमियों को उजागर करता है और उसे कलंकित करता है। ऐसा भी लगता है कि आधुनिक षिक्षा भ्रष्टाचार की पोषक है। षिक्षा का मुख्य उद्देष्य मुख्यतः चारित्रिक व नैतिक दृष्टि से संस्कारित व चरित्रवान नागरिक उत्पन्न करना है। व्यवस्था में कमियां तो स्वीकार करनी ही पड़ेगीं। परन्तु दुःख इस बात का है इस रोग को अभी पहचाना ही नहीं गया है, उपचार कब होगा, होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

अतः पर्यावरण की सुरक्षा व उसके खतरों का जब उल्लेख होता है तो उसे सभी पहलुओ से देखना उचित है। रोग पता होने पर ही समाधान हो सकता है। समाधान तभी होगा जब हममें रोग को रोग कहने व उसका उपचार करने की दृण इच्छा शक्ति होगी। कोई भी कार्य असम्भव नहीं होता। असम्भव वहीं होता है जहां इच्छा शक्ति कमजोर होती है। आज अनेक मनुष्य पर्यावरण का षत्रु बने हुये है। शत्रुता को छोड़कर कर सभी को प्रकृति को अपना मित्र बनाना चाहिये और उसके साथ मित्रता का व्यवहार करना चाहिये, इसी में सबकी भलाई है।

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