सांध्य किरणें

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रोशनी की  कुछ  लंबी  बीमार  किरणें

बड़ी  देर  से  शाम  से  आज

दामन में दर्द लपेटे, खिड़की पर पड़ी

कमरे में अन्दर आने से झिझक रही हैं।

 

यह  कोमल  सांध्य  किरणें   पीली,

जाने कौन-सी व्यथा घेरे है इनके

मृदुल उरस्थल को आज !

कोई   दानव   ही   होगा  जो  कानों  में

सुना गया है इनको दु:ख की उसास,

पर

कोई भी तो नहीं है यहाँ आस-पास !

 

विह्वल,  मैं   खिड़की  तक  जा  कर

परदा   हटा   कर,

हाथ  बढ़ाता  हूँ,  और  वह

पीली   बीमार   किरणों   की   लकीरें

न   जाने   क्या-क्या   प्रत्याशा  लिए,

झट खिड़की से हट कर

मेरे हाथ पर लेट जाती हैं,

पर मेरा उत्ताल-तरंगित हाथ उन्हें

सहला नहीं पाता, और न हीं

थपकियाँ  दे-देकर  वह उनको

अन्दर ला सकता है।

 

बीमार बच्चे-सी किरणों की आँखें

मेरी  विस्फारित  आँखों  में  देखती

कुछ भी न कह सकने की कसक,

पल-पल  मद्धम  हुई  जाती  हैं  जैसे

निष्ठुर अहेरी के प्रहार के पश्चात

किसी आहत पक्षी की उदास-उदास

रक्तरंजित पलकें पल-पल

अंत   को  अंगीकार  करती

मुंदती चली जाती हैं।

 

कुछ  देर  की  ही  तो  बात  है

यही रोशनी जो चिरकाल के

अँधेरों को चीरती थी,

अब   आती   रात  के   राक्षसी  अँधेरे

उसके रूखे-सूखे-पीले-बीमार

अवशेष विक्षोभी अस्तित्व को

निगल जाएंगे,

और ऐसे में

यह बेचारी शाम की अन्तिम

असहाय,  दुखी,  त्रस्त  किरणें

अँधेरे के

षड्यन्त्र-व्यूह-जाल   में  फंसी,

सारी रात कितनी कसमसायंगी,

और मैं भी अस्त-व्यस्त,

हाथ-पैर-मारता, छटपटाता,

किसी भी तरीके

इन अक्षम्य अँधेरों को

सुबह से पहले

दूर नहीं कर सकूँगा ।

विजय निकोर

 

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