हर बुजदिल हिंदू मुसलमान है : कहना कितना सही ?

सामान्यतया जब भी किसी हिंदू युवा को मुसलमानों या इस्लामिक आतंकवाद पर या मुस्लिम फंडामेंटलिज्म पर बोलना होता है तो यह बात सुनने को अक्सर मिलती है कि जो आज मुसलमान हैं ,वह कभी हिंदू थे। परंतु उनके पूर्वज कायर थे, जिन्होंने सनातन को छोड़ दिया और इस्लाम स्वीकार कर लिया। वे मुस्लिम अत्याचारों को सहन नहीं कर पाए, जबकि हमारे पूर्वज बहुत ही शूरवीर थे, जिन्होंने मुस्लिम अत्याचारों को सहन करने के उपरांत भी सनातन को नहीं छोड़ा।
हमारा मानना है कि इस प्रकार की बातें तात्कालिक आधार पर ताली बजवाने के लिए उचित कहीं जा सकती हैं, कई बार तर्क का सामना करने के लिए अथवा दूसरे को शांत करने के दृष्टिकोण से भी ऐसा बोला जा सकता है। यद्यपि इतिहास के तथ्य कुछ और कहते हैं। जिन लोगों को इतिहास बोध नहीं है, उनके मुंह से ऐसी बातें सुनना अच्छा लग सकता है, परंतु जिनको इतिहास बोध है, वे ऐसा नहीं कह सकते।
इतिहास के अध्ययन से हमको पता चलता है कि जिन लोगों ने इस्लाम को स्वीकार किया, उन्हें इस्लाम स्वीकार करने से पहले कितने ही प्रकार के अत्याचारों से गुजरना पड़ा था। 95% मामले ऐसे थे, जिनमें इस्लाम स्वीकार करने के अतिरिक्त उनके सामने अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया था। कुछ लोगों के सामने इस्लाम स्वीकार करना तात्कालिक बाध्यता बन गई थी। एक समय ऐसा था जब तात्कालिक बाध्यता के आधार पर इस्लाम को स्वीकार करने वाले लोगों को हमारे समाज के लोग सहजता से ‘ घर वापसी’ करवाकर उन्हें अपना लेते थे।
यद्यपि इस्लाम स्वीकार करने के उपरांत भी अनेक लोगों ने ‘ घर वापसी’ की। हम सभी जानते हैं कि जब भी कोई मुस्लिम आक्रांता यहां आया या यहां आने पर उसने अपना राज्य स्थापित करने के पश्चात किसी अन्य हिंदू राज्य पर आक्रमण किया तो वहां उसने बड़े-बड़े नरसंहार उत्सव के रूप में किये। ‘शांतिदूतों’ के उत्पात के कारण बार-बार हिंदुओं को बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ा। लोगों ने अपनी प्राणरक्षा और धर्म रक्षा के लिए घर बार छोड़कर भागना स्वीकार किया, मरना स्वीकार किया, परंतु इस्लाम स्वीकार नहीं किया। हिंदू जनसंख्या का विस्थापन होना उस समय एक साधारण सी बात हो गई थी। मुस्लिम अत्याचारों से बचने के लिए बड़ी संख्या में एक क्षेत्र के लोग दूसरे प्रांत की ओर पलायन कर जाते थे। कभी उत्तर प्रदेश ,मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के लोग राजस्थान की ओर भागे तो कभी राजस्थान के लोग उत्तर प्रदेश, हरियाणा ,पंजाब या दूसरे प्रान्तों की ओर भागे। उनकी परिस्थितियों में अपने आप को खड़ा करके देखने की आवश्यकता है कि जब चारों ओर डकैतों, बलात्कारियों , अपराधियों, अत्याचारियों के झुण्ड के झुण्ड गिद्धों के रूप में घूम रहे थे और भारत की निरपराध और निशस्त्र जनता को ( जिसने अबसे पहले ऐसे अत्याचारियों को देखा ही नहीं था ) उनका सामना करना पड़ रहा था । तब वह कैसी विकट परिस्थितियों से गुजर रहे थे और किस प्रकार अपने धर्म की रक्षा कर रहे होंगे ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है । उन्हें केवल कायर कह देने से काम नहीं चलेगा। उनकी परिस्थितियों को भी समझना और समझाना पड़ेगा।
इन परिस्थितियों में उन लोगों के घर बार ही नहीं उजड़े, उनका अपना प्रदेश भी उनसे छिन गया। कितने ही हिंदू परिवार ऐसे रहे , जिनके मूल गांव उनसे सदा- सदा के लिए छिन गए। इसकी थोड़ी-थोड़ी सी झलक आपको वर्तमान में कश्मीर से पलायन कर देश के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों की स्थिति को देखकर मिल सकती है। क्या इन कश्मीरी विस्थापितों को केवल कायर मान लिया जाए ? परिस्थिति के दूसरे पक्ष पर विचार करने से पता चलता है कि ये लोग कायर नहीं हैं ,ये धर्म रक्षक लोग हैं। जिन्होंने सनातन को बचाने के लिए अपने आप को उजाड़ दिया।
विश्व के दूसरे देशों का इतिहास उठाकर देखिए। लोगों ने अपने आप को बचाने के लिए अपना धर्म छोड़ दिया, सांस्कृतिक परंपराएं छोड़ दीं। उन लोगों को प्राण प्यारे थे, धर्म- संस्कृति और परंपराओं से उन्हें कोई अधिक मोह नहीं था। इसके विपरीत भारत के लोगों ने धर्म – संस्कृति और अपनी परंपराओं को बचाए रखने के लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहन किये। जितने भर भी आज के पिछड़े, दलित , शोषित लोग दिखाई देते हैं, इन सबके इतिहास को उठाकर देखिए। ये किसी काल विशेष में किसी न किसी रियासत के राजाओं के वंशज हैं। जिन पर जब मुसलमानों का दबाव पड़ा तो ये लोग किसी क्षेत्र विशेष से पलायन कर अन्यत्र विस्थापन कर गए । सैकड़ों वर्षों तक घने जंगलों के बीच रहकर छापामार युद्ध के माध्यम से विदेशियों को लूटना और उन्हें भगाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन जारी रखना , उनकी परंपरा और स्वभाव में सम्मिलित हो गया। कितने दुख की बात है कि आज हम इन लोगों को हेय दृष्टिकोण से देखते हैं। उनके इतिहास को नहीं देखते। उनके संघर्ष को नहीं देखते। इनके भारत प्रेम को नहीं देखते। इनके सनातन प्रेम को नहीं देखते। इन्होंने अपनी पीढ़ियां भारत की उन्नति के लिए खपा दीं । भारत को बचाने के लिए खपा दीं और हमने इनको क्या पुरस्कार दिया ? दलित, शोषित , पिछड़े आदि कहकर इनकी अवमानना के अतिरिक्त।
हम उन लोगों को भी वीर मानते हैं जिन्होंने नि:शस्त्र होकर अपने धर्म की रक्षा की। दिनकर जी की ” संस्कृति के चार अध्याय ” नामक पुस्तक का अध्ययन कीजिए। पृष्ठ संख्या २३९ पर विद्वान लेखक हमको बताते हैं कि मुस्लिम काल में हिंदुओं को अस्त्र-शस्त्र लेकर घुड़सवारी करने की आज्ञा नहीं थी । किसी भी मुसलमान के आगमन पर उन्हें अपने घोड़े तक पर चढ़ने की अनुमति नहीं थी। अपने घरों में किसी की मृत्यु हो जाने के उपरांत महिलाओं को रोने की भी अनुमति नहीं थी।
ऐसी परिस्थितियों में भी धर्म की रक्षा करना धर्म के प्रति समर्पित समाज के वीर लोगों के द्वारा ही संभव है। ऐसी विषम परिस्थितियों में रहकर हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार अपना समय व्यतीत किया होगा ? थोड़ा इस पर भी विचार करना चाहिए। ऐसे अपने वीर पूर्वजों को कायर कह देना, मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
अस्त्र शस्त्र विहीनकर जन समुदाय को मारना या उन्हें गुलाम बनाना या उनसे बेगार लेना या उन पर अमानवीय अत्याचार करना उन लोगों की कायरता है, जिन्होंने ऐसे अत्याचार पूर्ण कार्य किये। अतः दंड उनको देना चाहिए जिन्होंने दंड का कार्य किया है। दंड सहन करने वाले को या निरपराध को दंडित करना न्यायाधीश की मूर्खता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं। अपराधी को छोड़ने और निरपराध को फांसी चढ़ाना किसी भी न्यायाधीश को शोभा नहीं देता।
सब ओर से घेर घेरकर हिंदुओं को जिस प्रकार मारा गया, महिलाओं को आग में कूदने के लिए विवश किया गया, वह इतिहास का एक काला अध्याय है। तनिक कल्पना कीजिए कि मुसलमानों का एक गुंडा दल ( जिसे सैन्य दल कहकर महिमा मंडित किया गया है ) हजारों लाखों हिंदुओं का कत्ल करने के पश्चात जीवित बचे लोगों को कौड़ियों के भाव गुलाम बनाकर बेच रहा है। आप वहां खड़े हैं। महिलाओं को किसी दूसरे देश ले जाया जा रहा है। पुरुषों को किसी दूसरे देश ले जाया जा रहा है। बच्चे गुलाम बनाकर किसी और स्थान पर ले जाए जा रहे हैं । उस कारुणिक दृश्य की कल्पना करने से भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जब हम यह सोचते हैं कि आज के पश्चात ये लोग जीवन भर कभी किसी एक दूसरे को देख नहीं पाएंगे ? कौन कहां रहेगा ? कहां मर जाएगा ? कैसे-कैसे अत्याचार सहन करेगा ? किसी को कुछ पता नहीं है। यद्यपि इस अत्यंत पीड़ादायक स्थिति में भी इन्हें धर्म प्रिय है । क्योंकि जब उनके सामने यह विकल्प रखा गया था कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या फिर मौत स्वीकार करो , तब इन्होंने धर्म को बचाने के लिए मौत से भी बुरी स्थिति अर्थात गुलामी के जीवन को स्वीकार कर लिया। बिछुड़ना स्वीकार कर लिया। उजड़ना स्वीकार कर लिया। परन्तु धर्म को नहीं त्यागा । क्या कमाल की वीरता थी उन लोगों की ? और हम हैं कि उन्हें आज भी इतिहास के कठघरे में खड़ा कर उनके साथ अन्याय कर रहे हैं। समय आ गया है कि उन्हें इस अन्याय से मुक्ति दी जाए ।
आज हमारे देश में अशिक्षा क्यों है ? उत्तर केवल एक है कि लोगों ने धर्म की रक्षा के लिए मदरसा का बहिष्कार किया। अशिक्षित रहना स्वीकार कर लिया , परन्तु मदरसा की शिक्षा ग्रहण नहीं की। दूसरा कारण यह है कि लोगों ने दीर्घकाल तक अपनी अपनी राजधानियों को छोड़कर ,अपने-अपने क्षेत्र और अपने-अपने प्रदेशों को छोड़कर दूर जंगलों में जाकर रहकर पीढ़ियों तक गोरिल्ला युद्ध कर देश को आजाद करने का काम किया। पीढ़ियों को शिक्षा से वंचित कर लिया, धुन केवल एक थी कि देश को आजाद करेंगे। गांधी नेहरू छाप इतिहास ने उन सबके साथ हुए अत्याचारों को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। इसी इतिहास से प्रेरित होकर लोग कह देते हैं कि हमारे पूर्वज कायर थे, जिन्होंने सहज रूप में इस्लाम स्वीकार कर लिया ?
हमने पर्दा प्रथा आरंभ की, धर्म की रक्षा के लिए, इस्लाम से अपनी रक्षा के लिए। हमने बाल विवाह आरंभ किया – इस्लाम से अपनी रक्षा के लिए। हमने सती प्रथा स्वीकार की- अपने धर्म की रक्षा के लिए अथवा कहिए कि इस्लाम से अपनी रक्षा के लिए। हमने जजिया कर दिया- अपने धर्म की रक्षा के लिए। हमने निर्धन होकर दर-दर भटकना स्वीकार किया- अपने धर्म की रक्षा के लिए ।परंतु यह सब देश, काल और परिस्थिति के अंतर्गत लिए गए निर्णय थे , ये हमारे सनातन के स्थाई मूल्य नहीं थे। आज हम इनके कारण कहीं और खोजते हैं, समस्या की वास्तविक जड़ पर प्रहार नहीं करते। इतिहास बोध न होने के कारण हम समझ लेते हैं कि भारत में ऐसी जड़तावादी स्थिति युग युगों से रही है। नेहरू जैसे अज्ञानी इतिहासकार जानबूझकर हमको बता गए कि भारत में जड़तावाद के अतिरिक्त कुछ नहीं था । जबकि इस्लाम और ईसाई मत प्रगतिशीलता के प्रतीक बताए गए।उन्होंने यह नहीं बताया कि इस्लाम के अत्याचारों के कारण इस प्रकार की जड़ता समाज में व्याप्त हो गई थी। इस जड़ता में फंसने से पहले भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर प्रकाश ने आत्महत्या की। आज अंधकार में खड़े होकर हम प्रकाश को कोस रहे हैं और कहते हैं अपने आप को कि हम ” तमसो मा ज्योतिर्गमय…. ” के उपासक हैं ?
महाराणा प्रताप ने समय को देखकर युद्ध के क्षेत्र से बाहर निकल जाना स्वीकार किया, कृष्ण जी ने भी समय आने पर रण छोड़ना स्वीकार कर लिया, परंतु यदि सामान्य हिंदुओं ने समय का विचार करते हुए कहीं कहीं इस्लाम स्वीकार कर लिया और वह भी इस उम्मीद के साथ कि कल समय व्यतीत हो जाने पर घर वापसी कर लेंगे तो उन्होंने क्या अपराध कर दिया था ? विशेष रूप से तब जब कि इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि समय आने पर उन्हीं लोगों को घर वापसी से हमारे ही धर्माधिकारियों ने रोक दिया। यानी इस्लाम की ओर से तो चारों ओर से लोग उन पर भाले लेकर खड़े ही थे, जब वे लोग समय आने पर अपने लोगों की ओर आए तो इन्होंने भी उन्हें भाले ही दिखाए। मन मसोस कर वे उसी आग में चले गए जिसमें उन्हें इस्लाम ने धकेल दिया था। इस्लाम को मानने वालों ने उन्हें आग में धकेला- यह तो माना जा सकता है, परंतु समय आने पर अपने लोगों ने भी उन्हें भाले दिखाकर उसी आग में धकेल दिया तो इसे आप क्या कहेंगे ? हमारे विचार से इसको बौद्धिक कायरता कहा जाना चाहिए। इसलिए जब अपने पूर्वजों को कायर कहकर कोसने की बात आए तो इन धर्माधिकारियों को बौद्धिक कायर कहकर संबोधित करना चाहिए। क्योंकि हमारे पूर्वजों पर इस्लाम से भी बड़े अत्याचार इन लोगों ने किये। इनको अत्याचारियों में सम्मिलित करना चाहिए। आपको स्मरण होगा , स्वामी दयानंद जी के जीवन में एक ऐसा अवसर आया था, जब कश्मीर के मुसलमानों ने अपने आपको फिर से सनातनी हिंदू बनाने के लिए प्रार्थना की थी। स्वामी जी ने कश्मीर के तत्कालीन राजा के सामने लोगों का यह प्रस्ताव रखा। राजा उनकी घर वापसी के लिए तैयार हो गया। परंतु मठाधीशों ने राजा के कान भर दिए और हिंदू से मुसलमान बने सनातनी भाइयों की घर वापसी नहीं हो पाई। आज उन्हीं पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा है, जिन्होंने कल ऐसी व्यवस्था दी थी कि जो एक बार गधा बन गया, वह घोड़ा नहीं बन सकता।
हमको समझना चाहिए कि कायर हमारे पूर्वज नहीं थे, कायर वह लोग थे , जिन्होंने समय उपस्थित होने पर भी समय का सदुपयोग नहीं किया।
लोग इधर से उधर भागते रहे, जो किसी परिस्थितिवश शिकार बनाकर फंसकर खड़े हो गए, उन्हें तात्कालिक आधार पर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। परंतु समय आने पर उन्होंने जब घर वापसी की गुहार लगाई तो उनकी गुहार सुनी नहीं गई। हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अनेक ऐसे मुस्लिम नवाब, सुल्तान और बादशाह हुए , जिन्होंने बड़ी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतरण करके उन्हें इस्लाम में दीक्षित किया। ऐसे उदाहरण भी हैं जब औरंगजेब जैसे बादशाह ने हिंदुओं के सवा मन जनेऊ प्रतिदिन उतरवाने का संकल्प लिया। कल्पना कीजिए कि यदि सवा मन जनेऊ प्रतिदिन उतर रहे थे तो कितने हिंदुओं का धर्मांतरण प्रतिदिन हो रहा होगा ? यदि इस प्रकार किसी मजबूरी में फंसे लोगों को अपना जनेऊ उतारना पड़ रहा था तो समय वह भी आया जब बड़ी संख्या में यही लोग घर वापसी करने में सफल हुए। अनेक आचार्य, राजा और समाज सुधारक ऐसे भी हुए , जिन्होंने घर वापसी के यज्ञ रचाये, अर्थात उन्होंने अपने इस पुनीत कार्य से औरंगजेब को असफल कर दिया। हम यह भूल जाते हैं कि यदि घर वापसी के बड़े-बड़े यज्ञ न रचे गए होते तो आज भारत में सनातन का नाम लेने वाला कोई बचता नहीं।
अधिक से अधिक 5% ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने इस्लाम स्वेच्छा से स्वीकार किया था। उन्हें आप गद्दार भी कह सकते हैं, देशद्रोही भी कह सकते हैं ,धर्मद्रोही भी कह सकते हैं। परंतु सभी मुसलमानों के पूर्वज कायर रहे थे, यह नहीं कह सकते।
अतः बोलने से पहले हमें तोलना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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