वनवास और त्याग से साकार होगा रामराज्य

भारत विकास संगम के समापन सत्र में संगम के संरक्षक माननीय के.एन. गोविन्दाचार्य ने मंचस्थ पूज्य सिद्धेश्वर स्वामी, प्रमुख संतजन, सम्मानित अतिथि गण, मातृ शक्ति और देश के कोने-कोने से आई सज्जन शक्ति के अभिवादन के साथ अपने उद्बोध्न की शुरुआत की। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश…

भारत विकास संगम का 10 दिवसीय अधिवेशन अपने समापन की तरफ आ रहा है। इस मंच से प्रबुद्धजनों ने जो विचार प्रकट किये हैं उनके प्रति मैं पूरा सम्मान प्रकट करता हूं। यहां के आमजनों के मन में भी कार्यक्रम के आयोजन को लेकर जो सद्भाव और पवित्रता प्रकट हुई है, वही कार्यक्रम के आयोजन की सफलता का प्रेरणादायी तत्त्व है। पूरे कार्यक्रम की सफलता किसी एक विचारधारा, विद्यालय अथवा व्यक्ति के योगदान से नहीं बल्कि सम्पूर्ण जनता की ताकत तथा साहस पूर्ण पहल का परिचय देती है। पथ का अंतिम लक्ष्य नहीं है सिंहासन चढ़ते जाना यह गीत हमारे कार्य की प्रेरणा होना चाहिए। ‘समाज आगे, सत्ता पीछे, तभी होगा स्वस्थ विकास’ यह भारत विकास संगम का मूल मंत्र है। समाज में अनेकों लोग काम कर रहें हैं और एक आंकड़े के अनुसार लगभग 6 लाख गांवों में 21 लाख एनजीओ काम कर रहे हैं, फिर भी समाज में विविध समस्याओं की उपस्थिति तथा निरंतर विद्रूप होती व्यवस्था हमारे लिये एक चुनौती बन कर खड़ी है। इसलिए हमारा लक्ष्य केवल संगठन में वृदि करना नहीं होना चाहिए। इस अधिवेशन में आये हुए समस्त सज्जन शक्ति से हमारा निवेदन है कि जब हम यहां से लौटकर जायें तो यह सोच कर जायें कि हमारे केन्द्र पर अब कोई गरीबी रेखा के नीचे नहीं रहेगा, कृषि का उत्पादन दो गुना होगा, गाय-बैल की संख्या दोगुनी होगी, हम एक लाख नशामुक्त गांव खड़ा करेंगे, खून की कमी से कोई महिला नहीं मरेगी, कुपोषण का शिकार कोई बच्चा नहीं मिलेगा, यह संकल्प लेकर जाना होगा। सभी की सामूहिकता तथा संगठनों की आपसी संवाद, सहमति एवं सहकार के साथ ही ऐसी स्थिति खड़ी हो सकती है। यदि हम ठान लें तो 10 वर्षों के अन्दर इन बुराइयों का मूलोच्छेद हो सकता है। हमें इस अधिवेशन के पश्चात् अपने कार्य की एक वर्ष के अन्दर की तैयारी करनी है। समस्त जिलों में जिला विकास संगम करना है, सबको-भोजन सबको काम की योजना बना कर उसका क्रियान्वयन करना है। आप सब संगम के इस समापन सत्र से बड़ा लक्ष्य लेकर अपने-अपने क्षेत्र में जायें, यह हमारी अपेक्षा है। देश की सज्जन शक्ति के हजारों सक्रिय संगठनों/समाजसेवियों की एक ‘डायरेक्ट्री’ मार्च 2011 तक बनाई जानी चाहिए। कौन-कौन से लोग किस-किस क्षेत्रा में कैसा कार्य कर रहें हैं, ये सभी जानकारी सर्वसुलभ हो, तभी एक दूसरे के कार्य में सहकार बढ़ेगा। मैं अपील करता हूं कि अपने कार्यों व संस्थाओं का एक संक्षिप्त विवरण अवश्य उपलब्ध कराते जाएं।

हमें छोटी-छोटी पांच बातों पर भी ध्यान देने की जरुरत है- पहली यह कि जाति, क्षेत्र, भाषा आदि भेदों को छोड़कर हमें रोटी, रिहाइश और रिश्ते की नयी परिभाषा व प्रयोग अनुपादित करना होगा। दूसरा यह कि अपने जीवन के आवश्यक रोजमर्रा के सामानों का उपयोग हम चाहत से देशी, जरूरत से स्वदेशी करें तथा मजबूरी में ही विदेशी करें और मजबूरी कम होती चले, इसका निरंतर प्रयास करें। तीसरा यह कि आज सीमा के घुसपैठ पर सभी जन दिलचस्पी लेकर बातें करतें हैं और मौखिक चिन्ता प्रकट करते हैं लेकिन इसके साथ ही हमें अपने मुहल्ले व पास-पड़ोस की भी चिन्ता करनी होगी और पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध विकसित करने होंगे। चौथी यह कि गलत तरीके से अमीर बनने के लालच पर लगाम लगाना होगा। हमें यह तय करना होगा कि हमारी इमारत एक मंजिल कम बने मगर उसकी आधारशिला पवित्र, पारदर्शी और मजबूत हो। पांचवी यह कि हम जो भी करें उसे परिपूर्णता के साथ करें। हमारे छोटे-छोटे कामों में भी परिपूर्णता दिखनी चाहिए। उदाहरण के लिए हर रोटी गोल बने, इसका निरंतर प्रयास रोटी बनाने वाले हाथों को करना होगा।

यह सम्मेलन देश में तब हो रहा है जब चारों तरफ कहीं विकीलीक्स की, तो कहीं नीरा राडिया के ‘लीक्स’ की चर्चा हो रही है। ऐसे समय में सम्मेलन में 10 दिनों तक देश के प्रत्येक कोने से आये हुई सज्जन शक्ति के द्वारा भारत को दुनिया का सरताज बनाने के लिए आह्वान किया जा रहा है। देश में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। अच्छे प्रयासों को भी समाज के पटल पर लाने की आवश्यकता है। आज समाज में चुनौतियां भी बहुत हैं, लेकिन चुनौतियां तो वीर पुरुषों के लिए अपनी क्षमता को प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करती हैं। जिस तरह इस सम्मेलन में जुटे प्रमुख लोगों ने अपने सहयोग व समर्थन की सदाशयता दिखायी है, उससे सिद्ध है कि अच्छे कार्यों में सहयोग करने वालों की कमी कहीं भी नहीं होती है।

भारत को यदि दुनिया की महाशक्ति के रूप में देखना है तो ऐसी सोच रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस अभियान के महारथ को भगवान जगन्नाथ की रस्सी की तरह खींचने का काम करना होगा, जिसमें प्रयास तो सबका होता है परंतु रथ का संचालन ईश्वरीय सद्प्रेरणा से निरंतरता पूर्वक होता है। हम भी इस महान अभियान में बड़े कामों के लिए एक उपकरण बनें, यह सभी की इच्छा होनी चाहिए।

सार्वजनिक जीवन में गलत तरीके से पैसे लेकर सही काम किया जाना असम्भव है। गलत तरीके से पैसा अर्जित करने वालों को जीवन का वास्तविक सम्मान कभी भी नहीं मिल सकता है। कुछ दिग्भ्रमित लोगों द्वारा ऐसे लोगों को सम्मानित किये जाने का प्रयास यदि किया जा रहा हो तो उसकी सामाजिक स्तर पर निन्दा और तिरस्कार होना चाहिए। समाज में जो भी अच्छे कार्य करने वाले लोग हैं उन्हें हमें निरंतर जोड़कर चलते रहना होगा। जब एक दूसरे का सहकार होगा तभी सार्थकता भी अपनी परिपूर्णता की तरफ अग्रसर होगी।

राम महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन राम से बड़ा राम का नाम है। राम के नाम से बड़ा राम का काम है और राम का जो काम है वही रामराज्य की स्थापना है। यदि हम रामराज्य की कामना करते हैं तब रामराज्य की स्थापना के लिए हमें वनवास और त्याग करना होगा। रामराज्य की स्थापना के लिए यदि 14 वर्ष तक वनवास भोगने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम चाहिए तो भरत की तरह 14 वर्ष तक खड़ांऊ के माध्यम से त्याग का अप्रतिम उदाहरण देते हुए राज्य चलाने का साहस रखने वाला भी चाहिए। रामराज्य ऐसे नहीं आता है, रामराज्य तो तब आता है जब राम वानरों से, आदिवासियों से, शबरी से सबसे जुड़ते हैं।

व्यवस्था के परिवर्तन में तथा रामराज्य की स्थापना में हमेशा लड़ाई की शुरुआत और अन्त आम आदमी करता है। वह आम आदमी कभी हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जामवन्त आदि के रूप में भी हो सकता है। आज देश का सामान्य आदमी ही रामराज्य लाने में सक्षम है। राम-रावण युद्ध के दौरान देवतागण केवल जय हो! जय हो! का उद्घोष कर रहे थे। उन्होंने यह नहीं सुनिश्चित किया था कि किसकी जय हो? राम की अथवा रावण की? वे तब भी युद्ध के दौरान राम की जय हो, बोलने में रावण की शक्ति से भयकंपित थे। इसलिए आज हमें देवताओं की भूमिका में जय हो! करने वालों की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। जब आपके कार्यों की जय होगी तो देवतागण खुद जयगान करेंगे।

मेरा विश्वास है कि युद्ध साधनों से नहीं अपनी साधना से जीता जाता है। हमें साधन की तरफ अकर्मण्यतापूर्वक देखने की आवश्यकता नहीं। हमें अपनी साधना के द्वारा सभी साधनों को जुटा कर सम्पूर्ण परिवर्तन के युद्ध की शुरुआत करनी होगी। साधना के बल पर शुरू हुआ यह युद्ध निश्चय ही कालजयी विजय दिलाएगा। तब समाज आगे होगा और सत्ता पीछे होगी।

मंदराचल मंथन के समय बार-बार पर्वत धरातल में नीचे चला जाता था। देवताओं और दानवों को इस मंथन में जब असुविधा होने लगी तो भगवान ने कूर्मावतार लिया। मंदराचल के आधार के रूप में भगवान ने अपने को कछुए के रूप में स्थापित किया। आज जब देश में सभी सज्जन शक्तियों के सम्मेलन और सामाजिक समस्याओं पर एक वृहद् मंथन का आयोजन किया जा रहा है, ऐसे में भारत विकास संगम की भूमिका कूर्मावतार की तरह से समुपस्थित हुई है।

10 वर्ष के अन्दर भारत में समृद्ध और संस्कृति का समग्र रूप लाने में ईश्वर हम सभी को प्रेरणा, साहस तथा कौशल दे, यही प्रार्थना करते हुए मैं अपनी बात पूरी करता हूं।

4 COMMENTS

  1. मै आर यस यस का कार्यकर्ता नहीं – मै भी इस कार्यक्रम में उपस्थित था गोविन्दाचार्य की सबसे बड़ी उपलब्धी यह थी की सभी विचारधारायो के लोगो को इकट्ठा किया था दस दिनों के इस कार्यक्रम में ८ से ९ लाख लोग आये थे मजेदार बात यह रही समाज के काम में लगे लोग आये थे जिनमे से अधिकतर गैरराजनीतिक थे यह भारत के विकास में लगे लोगो का अद्भूत सम्मलेन था देश विदेश से लोगो का अधिक जमावड़ा होने के कारण रोमन का प्रयोग किया गया होगा लेकिन पार्टी संगठन से अलग रहते हुए भी गोविन्दाचार्य की ताकत होने के पीछे भी कोई कारण होगा चर्चा में यह है की राजा -रामदेव -रविशंकर- गोविन्दाचार्य की अहम् मीटिंग हुई है किस लिए हुई नहीं पता कुछ दिनों में नया विस्फोट होने वाला है

  2. लेख मैने नही पढा. लेकिन पृष्ठ भाग मे लगा पर्दा (बैक ड्राप) पर “अभिवृद्धी विभाग” को रोमन लिपी मे “abhivrudhi vibhag” लिखा देखता हुं. यह कैसा भारत विकास संगम है. कथनी और करनी मे इतना बडा अंतर हो तो लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा ?

  3. गोविन्दाचार्य जी आपने एक आदर्श खाका अवश्य खीचा ,पर क्या इस सम्मेलन में उपस्थित लोग इस पर चल सकेंगे?अगर ऐसा हो जाये तो मेरे विचार से भारत का नक्शा दस से कम वर्षों में भी बदल सकता है.पर आज हालत तो यह है की लाखों की संख्या में गैर सरकारी संस्थाए देश में काम कर रही हैं,पर न तो उनमे आपस में सहयोग है और न वे एक दूसरे की काम की सराहना कर पाते हैं.सब अपनी झोली भरने और अपने दिखावे में लगे हैं.मेरे विचार से तो अधिकतर गैर सरकारी संस्थाएं (एन.जी.ओ.)सरकारी संस्थाओं से भी बेकार हैं और केवल धन कमाने और अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगी हुई हैं होना तो यह चाहिए था की ये संस्थाएं आपसी तालमेल से काम करती. पर आज तो हाल यह है की एक ही काम को विभिन्न संस्थाएं अपने अपने ढंग से करने का पर्यत्न कर रही है.दिखावा तो बहुत है पर परिणाम वही ढाक के तीन पात.मैं मानता हूँ की कुछ लोग सचमुच अच्छा कम कर रहे हैं,पर उनकी संख्या मुझे तो बहुत कम दिखती है. काश गोविन्दाचार्य जी इस तरफ ध्यान देते.

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