न्यायिक ढांचे  में विस्तारक विकेन्द्रीयकरण जरूरी

धीतेन्द्र कुमार शर्मा

गुजरे 12 सितम्बर को राजस्थान की वकील बिरादरी में तूफानी हलचल थी। राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर और जयपुर दोनों पीठ, राजधानी जयपुर, और कोचिंग कैपिटल कोटा, झीलों की नगरी उदयपुर के अलावा कई स्थानों पर बार एसोसिएशनों (अधिवक्ताओं के संगठन) ने तल्ख प्रदर्शनों के साथ हड़ताल (न्यायिक कार्य बहिष्कार) रखी। वजह बना केन्द्रीय कानून राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुनराम मेघवाल का सोशल मीडिया पर प्रचारित एक बयान जिसमें वे भारत के मुख्य न्यायाधीश के आगामी दिनों में प्रस्तावित बीकानेर दौरे के दरम्यान बीकानेर में हाईकोर्ट वर्चुअल बैंच स्थापना को लेकर कुछ बड़ा होने के संकेत दे रहे हैं। वकील समुदाय इस मसले पर नाराज है और इसने उग्र आंदोलन की चेतावनी दी है।

राजस्थान में हाईकोर्ट की नई बैंचों की स्थापना की मांग दशकों पुरानी है। कोटा, उदयपुर और बीकानेर में इस मसले पर महीनों तक लगातार न्यायिक कार्य बहिष्कार जैसे आंदोलन हो चुके। अब भी वकील समुदाय इस मांग को लगातार माह में एक निश्चित दिन न्यायिक कार्य बहिष्कार करके इस ज्योति पुंज को प्रज्वलित किए हुए हैं। तीनों शहरों में हो रहे उग्र आंदोलन को देखते हुए दो साल पहले अगस्त 2023 में केन्द्रीय मंत्री मेघवाल ने वर्चुअल बैंच की स्थापना की घोषणा की थी लेकिन अब सिर्फ बीकानेर को लेकर दिए बयान से भेदभाव की आशंका के मद्देनजर कोटा-उदयपुर के अधिवक्ता समुदाय में उबाल आ गया। जयपुर-जोधपुर हाईकोर्ट एसोसिएशन्स अपने वकीलों का व्यवसाय प्रभावित होने के चलते ऐसी बैंचों की स्थापना का विरोध कर रहे हैं। 

आइये, इनसे इतर कुछ गंभीर तथ्यों पर भी नजर डालते हैं। देश में ज्यूडिशियल पैंडेंसी ज्वलंत मुद्दा है। सत्तारूढ़ शीर्ष नेतृत्व समेत तमाम पक्ष-विपक्षी दल इस पर चिंता जताते रहते हैं। नेशनल ज्यूडिशयल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) पर उपलब्ध अद्यतन आंकड़ों के मुताबिक सर्वोच्च न्यायलय में 88 हजार, उच्च न्यायालयों में 62 लाख और निचली अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लम्बित हैं। इनमें तकरीबन 50 लाख मामले 10 वर्ष से अधिक वाले हैं। यही नहीं, 31.22 लाख प्रकरण वरिष्ठ नागरिकों की ओर दायर हैं जो लम्बित हैं। सर्वोच्च अदालत में पिछले माह यानी अगस्त में 7 हजार 80 नए मामले आए वहीं 5 हजार 667 का निपटान हुआ। 

 राजस्थान में 24.64 लाख मुकदमें लम्बित हैं। इनमें से दोनों पीठों को मिलाकर हाईकोर्ट में 6.69 लाख मामले लम्बित हैं। पिछले माह यानी अगस्त में हाईकोर्ट में 19 हजार 456 नए मामले जुड़े और 12 हजार 665 मामले निर्णीत हुए, यानी, यहां भी नए मामले जुडऩे के मुकाबले न्याय निर्णयन दो तिहाई का ही हो पाया है। नए मामलों की तुलना में लगभग 65 प्रतिशत मामले ही औसतन प्रतिमाह निपट रहे हैं, यानी लम्बित न्यायिक प्रकरणों का बोझ प्रतिमाह बड़े प्रतिशत में और बढ़ रहा है। जाहिर तौर पर ये हालात बेहद चिंताजनक हैं और अदालतों एवं बैंचों की संख्या बढ़ाने के विकल्प की उपेक्षा करना न्यायिक ढांचे के प्रति गिरती आस्था की गति तीव्र ही करेगा।

अब रही बात कोटा, उदयपुर और बीकानेर में हाईकोर्ट बैंच स्थापना की तो इन शहरों की मांग को खारिज करना बेईमानी और ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज करना ही है। देश आजाद होने से पहले स्टेट काल में जयपुर, जोधपुर, कोटा, उदयपुर, बीकानेर में  उच्च न्यायालय थे जिन्हें राजस्थान उच्च न्यायालय अध्यादेश 1949 के जरिये समाप्त किया गया और 29 अगस्त 1949 को जोधपुर में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई।  प्रारंभ में व्यवहारत: कोटा, उदयपुर, बीकानेर, जयपुर के उच्च न्यायालय कार्य करते रहे लेकिन संविधान लागू होने के बाद 22 मई 1950 को कोटा, बीकानेर और उदयपुर की पीठों को समाप्त कर दिया गया हालांकि जयपुर पीठ ने कार्य जारी रखा। फिर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम की धारा 49 के अन्तर्गत जोधपुर में मुख्य पीठ के साथ राजस्थान उच्च न्यायालय के रूप में नया उच्च न्यायालय अस्तित्व में आया।  फिर सत्यनारायण राव, वी. विश्वनाथन और वीके गुप्ता समिति की रिपोर्ट पर 1958 में व्यवहारत: कार्यरत जयपुर पीठ को भी समाप्त कर दिया गया। कालान्तर में 1976 में जयपुर में पुन: वर्तमान पीठ की स्थापना हुई।

इस तरह, कोटा, उदयपुर और बीकानेर स्टेट काल से उच्च न्यायालय वाले मुख्यालय थे। राजस्थान एकीकरण में तत्कालीन राजनीतिक चुनौती से निपटने में, जोधपुर जैसे बड़े राज्य की संतुष्टि के लिए इनका बलिदान लिया गया। ऐसा बलिदान तब राष्ट्र-राजनीति के लिए बेशक अपरिहार्य और वांछनीय रहा होगा लेकिन अब गंगा में काफी पानी बह चुका। हालात 360 डिग्री बदल चुके हैं।  कोटा का मजबूत राजनीतिक स्वर आज राष्ट्र की सर्वोच्च पंचायत की अध्यक्षता कर रहा है तो बीकानेर सांसद देश के कानून मंत्री है। उदयपुर का बड़ा राजनीतिक चेहरा राज्यपाल (पंजाब) जैसे संवैधानिक पद पर आसीन है।

जहां तक न्यायिक ढांचे के पुनर्गठन या नए हाईकोर्ट अथवा बैंच स्थापना के कानूनी पहलुओं की बात है तो राज्य सरकार, राज्यपाल और मुख्य न्यायाधीश की सहमति से केन्द्र को प्रस्ताव भेजती है। केन्द्र सरकार के उस पर विचार करने और सकारात्मक निर्णय की दशा में राष्ट्रपति की अधिसूचना से ये अस्तित्व में आते हैं। पिछले ही माह देश के तीसरे बड़े राज्य महाराष्ट्र के कोल्हापुर में बाम्बे हाईकोर्ट की नई बैंच शुरू हुई जबकि वहां मुम्बई, पणजी, औरंगाबाद, और नागपुर में पहले से ही हाईकोर्ट की पीठें संचालित हैं। दूसरे बड़े राज्य मध्यप्रदेश में जबलपुर हाईकोर्ट की इंदौर और ग्वालियार में पीठें कार्यरत हैं। छठे बड़े राज्य कर्नाटक में बैंगलूर के अलावा धारवाड़ और गुलबर्ग में हाईकोर्ट बैंच चल रही हैं।

जाहिर है, देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में नई बैंचों की स्थापना में न संख्या की बाधा है और ना कानूनी प्रावधानों की और ना ही राजनीतिक हालात की। सबसे महत्वपूर्ण कारक भौगोलिक हालात और जनसांख्यिकीय दृष्टिकोण भी राजस्थान में इन नई बैंचों की स्थापना के लिए सुविधा का संतुलन पैदा करता है। कहना न होगा, कोटा, उदयपुर और बीकानेर तीनों स्थानों पर नई हाईकोर्ट बैंच (वचुअल नहीं भौतिक) की जल्द से जल्द स्थापना ही समय की मांग है। यह प्रदेश के न्यायिक ढांचे में बेहतर संतुलनकारी और आमजन के सर्वोच्च हित में है। सनद रहे, न्याय व्यवस्था में डिगती आस्था सुदृढ़ से सुदृढ़ राज्य के  लिए भी पतन की नींव रख देती है और, त्वरित न्याय ही असल लोककल्याण का प्रखर-प्रशस्त मार्ग है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समान राजनीतिक दल वाली केन्द्र व राज्य की डबल इंजन सरकारें भी ऐसा ही सोच रही होंगी। 

धीतेन्द्र कुमार शर्मा

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