तुलसीदास रचित रामचरित मानस में नारी पात्र  

गोस्‍वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस में नारी पात्रों  को हम सामान्‍यया पढने के बाद अपने मन में उन पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिकाएं पर चिंतन कर इनसे मिलने वाली सीख पर विचार नहीं कर पाते  हैं। इन नारियों ने किन-किन परिस्थितियों में क्या-क्या चरित्र जीया और उनके जीवन में बनने वाली विभिन्‍न स्थितियां तथा  उनके क्या परिणाम निकले इसे समझना अति आवश्यक है। मानस की ये महिला पात्र हमारे व्‍यवहारिक गृहस्‍थ  जीवन में क्‍या उच्‍चत्‍तम आदर्श होना चाहिये, वह इनके जीवन से समझा जा सकता है जिसे हम अपने जीवन में आने वाली इस प्रकार की  परिस्थितियों में स्‍वयं को कैसे और किस प्रकार परिस्थितियॉ निर्मित कर जी सकेगे यह कहना संभव नहीं कि इनसी पात्रता का कुछ भी अंश जी सके। सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-सम्मान, यश-अपयश, लड़ाई-झगड़े, हार-जीत, गरीबी-अमीरी प्रत्येक के जीवन में अंग हैं। रामचरित मानस के ये महिला पात्र हमें इन सबसे सम्बल, साहस और मार्गदर्शन देते हैं। इस ग्रंथ में सभी के लिए मर्यादित जीवन जीने की सीख दी गई है। मर्यादा विहीन जीवन चाहे वह किसी का भी हो, दुख का ही कारण है। बड़े-बड़े राज परिवारों तक का विघटन इसी मर्यादाहीन आचरण से हुआ है। इसमें उन नारियों की भूमिकाओं के बारे में प्रकाश डाला गया है, जिसके कारण कहीं बनी बात बिगड़ी है और कहीं बिगड़ी बात बनी है।

मानस में भगवान शंकर की शक्ति  देवी सती का उल्लेख आया है। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक नारी के लिए उसका पति ही सब कुछ है और वही उसका भगवान है। जिसने भी इसका उल्लंघन किया, उसके परिणाम बड़े भयानक निकले। किसी भी नारी को मानसिक शांति और मानसिक सुख उसका पति ही दे सकता है। दूसरी कथा भगवान विष्णु की योगमाया विश्वमोहिनी के संबंध में है। ब्रह्मर्षि नारद जी को अपनी तपस्या का घमंड हो गया। वे भोलेनाथ शंकर के पास पहुंचे। शंकरजी ने कहा कि यह बात विष्णु भगवान से नहीं कहना-
बार बार बिनवउँ मुनि तोहि
जिमि यह कथा सुनावहु मोही।
तिमी जनि हरिहि सुनावहु कब हूं
 चलेहुं प्रसंग दुराएहु तबहूं।
हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूं कि जिस तरह यह तो तुमने मुझे सुनायी है, उस तरह भगवान श्री हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तो भी इसको छिपा लेना।
राम कीन्ह चाहहि सोई होई
करै अन्यथा अस नहिं कोई।
संभु वचन  मुनि मन नहिं भाये
तब बिरंचि के लोक सिधाये।
प्रभु  रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है। ऐसा कोई नहीं है, जो उसके विरूद्ध कर सके।  शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहां से ब्रम्हा लोक को चल दिये। अतः योगमाया विश्व मोहिनी के समक्ष देवर्षि नारद की क्या गति बनती है, इसका रोचक वर्णन कर गोस्‍वामी तुलसीदासजी ने उन दम्भियों देवताओं को आगाह कर दिया है, जिन्हें अपने संयम पर भरोसा है, तब इनमें इंसान की गिनती ही क्‍या है। शास्त्रों में राजहट, बालहट ओैर त्रिया हट को उचित नहीं माना है, क्योंकि इसमें हानि की ज्यादा संभावना रहती है। पराम्बा भवानी सती ने भगवान शंकर की बात नहीं मानी और उनके रोकने पर भी अपने पिता दक्ष के यज्ञ में पहुंच गई, परिणामतः मरना पड़ा। इसी प्रकार भगवान राम की आदि शक्ति जगत जननी सीता ने भी लक्ष्मण रेखा का रोकने पर भी उल्लंघन कर दिया, नतीजा यह निकला कि उनका राक्षस रावण ने हरण कर लिया। तुलसीदास जी सीता जी वंदना करते हुए कहते हैं-
उद्भव स्थिति संहार कारिणीं
क्लेश हारिणीम्
सर्वश्रेयस्करीं सीतां
न तो है राम वल्लभाम्।
अर्थात! उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा कल्याणों को करने वाली राम जी की प्रियतमा  सीता जी को मैं नमस्कार करता हूं। इस स्थिति के बाद भी नारी में जो नारित्व है, उससे वे मुक्त नहीं हो सकी। राजा दशरथ की पटरानी कैकेयी का हठ तो जगत् प्रसिद्ध है। राम को वनवास हुआ, दशरथजी को मरना पड़ा और स्वयं जीवन भर वैधव्य का दुख भोगती रहीं। राक्षस रावण की बहन शूर्पणखा ने अपने हठ के आगे राम की भी नहीं सुनी, परिणामतः पूरी की पूरी राक्षस  संस्कृति ही नष्ट हो गई।

वैसे पारिवारिक जीवन के विभिन्न संदर्भों में नारी का सर्वोत्तम स्थान माना गया है। अब यह उसके ऊपर निर्भर करता है कि घर को चाहे वह स्वर्ग बना दे या फिर नरक। नारी में दोनों गुण विद्यमान हैं। वह जहां अन्नपूर्णा है, वहीं वह काली भी है। इससे शास्त्रकारों ने निरंतर आगाह किया है कि नारी का सेवन सावधानी से ही करना चाहिये। वह सृजनात्मक शक्ति है, जो जरा सी चूक होने पर विध्वंसक भी हो सकती है। इन्हीं स्‍वरूपों का साक्षात्कार हमें मानस में होता है। अयोध्या में पांच नारियों की अलग-अलग भूमिकाओं का वर्णन मिलता है। राजा दशरथ ने जब परंपरा के अनुसार अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक का निश्चय किया और उसकी जब तैयारी पूरे नगर में प्रारंभ हुई, तब इसे देखकर कैकेयी की दासी मंथरा चिंता में पड़ गई। उसके मन में अनेक शंकाओं-कुशंकाओं ने जन्म ले लिया। जब यह बात कैकेयी को उन्होंने बताई तब कैकेयी बहुत खुश हुई और मंथरा को काफी बुरा-भला कहा। मंथरा इससे चिंता मे पड़ गई तथा रानी से कह उठी-
कोऊ नृत होइ हमें का हानी
चेरि छाड़ कि हो बहु रानी।
यह चौपाई यह सिद्ध करती है कि सेवक चाहे बड़ा हो अथवा छोटा उसकी सोच स्वयं के चिंतन तक ही रहती है। समाज या राष्ट्र के बारे में क्या प्रभाव पड़ेगा, उसे इससे क्या लेना-देना। उसने अब कैकेयी को ‘सौतों’ के बारे में घटित घटनाओं की याद दिलानी शुरू कर दी। स्त्रा की यह सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह सब कुछ बरदाश्त कर सकती है, किंतु ‘सौत’ उसके ऊपर राज्य करे यह वह सहन नहीं कर सकती, परिणामतः कैकेयी भयभीत हो कहती है-
नैहर जनम भरब बरू जाई
जिजत न करबि सवति सेवकाई।
अरि बस दैउ जिआवत जाही मरतु नीक तेहि जीवन चाही।
मैं भले कही नैहर जाकर वहां जीवन बिता दूंगी, परंतु जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूंगी। देव जिस शत्र के वश में रखकर जिलाता है,उसके लिए तो जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा।

इसके बाद जागृत होता है रानी कैकेयी का ‘सौतिया ढाह’ यह सौतिया ढाह इस कदर तीव्रतम होता है कि पूरी तरह बेबस हो वह फिर मिटने-मिटाने पर तुल जाती हैं। राई की जगह उसे पहाड़ दीखने लगता है। परिणामतः इस सौतिया ढाह ने पूरे राजघराने को ही ध्वस्त करके रख दिया। जिस राम को कैकेयी अपने प्राणों से बढ़कर चाहती थीं, उसी को वनवास दे दिया और जिसकी वजह से वह पटरानी बनी थी, उसी पति के प्राण ले लिए। किंतु उसने जिस सौत के लिए यह सब किया, वही राजा दशरथ की ज्येष्ठ पटरानी कौशल्या अपने बेटे राम से कहती है-
जौ केवल पितु आयसु ताता
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।
जौ पितु मातु कहेउ बन जाना
  तो कानन सत अवध समाना।
हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा हो, तो माता को पिता से बड़ी जानकर वन को मत जाओ। किंतु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने का कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है। किंतु वाल्मीकि रामायण में जो कहा गया, वह ठीक इससे उल्टा है। इसमें माता कौशल्या अपने बेटे राम से कहती है- ‘बेटा, बन्ध्या को एक मानसिक शोक होता है। उसके मन में एक संताप बना रहता है कि मुझे कोई संतान नहीं है, इसके अलावा दूसरा कोई दुख उसे नहीं होता। बेटा राम पति के प्रभुत्व काल में एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख प्राप्त होना चाहिये, वह मुझे पहले कभी देखने को नहीं मिला। बड़ी रानी होकर भी मुझे हृदय को विदीर्ण कर देने वाली छोटी सौतों के बहुत से अप्रिय वचन सुनने पड़े। स्त्रियों के लिए इससे बढ़कर महान दुख और क्या हो सकता, अतः मेरा शोक और विलाप जैसा है, उसका कभी अंत नहीं है। तात्! तुम्हारे निकट रहने पर मैं इस प्रकार सौतों से तिरस्कृत रही हूं, फिर तुम्हारे परदेस चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी?  पति की ओर से मुझे सदा अत्यन्त तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है। कभी प्यार और सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गई बीती समझी जाती। जो कोई भी मेरी सेवा मे रहता या मेरा अनुसरण करता, वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप हो जाता, मुझसे बात नहीं करता। बेटा! बस दुर्गति में पड़कर सदा क्रोधी स्वभाव के कारण कटुवचन बोलने वाली उस कैकेयी के मुख को मैं कैसे देख सकूंगा। राघव अब इस बुढ़ापे में इस तरह सौतों का तिरस्कार और उससे होने वाले महान अक्षय दुख को मैं अधिक काल तक नहीं सह सकती। मैं दुखिनी दयनीय जीवन वृत्ति से रहकर कैसे निर्वाह करूंगी। यदि मेरी मृत्यु नहीं होती है, तो तुम्हारे बिना यहां व्यर्थ कुत्सित जीवन क्यों बिताऊं, अतः मैं भी तुम्हारे साथ ही वन को चलूंगी।’

रामचरित मानस में पति-पत्नी के आदर्श और उनके मनोभावों को सीता जी के माध्यम से संसार के सामने प्रस्तुत किया है, वह हर सद्गृहस्थ के लिए अनुकरणीय है। राम के वन गमन की बात सुन सीताजी का हृदय इतना ज्यादा विव्हल हुआ कि उनके मुंह से निकल गया-
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी
तैसइ नाथ पुरुष बिनु नारी।
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते
पिय बिनु तियहि तरनि हु ते ताते।
तनु धनु धामू धरनि पुर राजू
पति बिहीन सबु सोक समाजू।
अर्थात! जैसे बिना जीवन के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही बिना पुरुष के नारी है। यानी नारी का अस्तित्व उसके पति से है। हे नाथ, जहां तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना पत्‍नी  को सभी सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य पति के बिना पत्‍नी के लिए यह सब शोक का समाज है। यानी उसका कोई नहीं है, जितने भी नाते हैं पति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। इसलिए यदि मुझे जिंदा रखना है तो आपको अपने साथ ही ले चलना होगा।

नारी के ये दो पात्र  सीता और कैकेयी, किंतु दोनो की भावनाएं एक-दूसरे से भिन्न। कैकेयी कहती हैं-‘राम वन को नहीं गये, तो मेरा मरण निश्चित’ और सीता कहती है- ‘राम वन को नहीं ले गये, तो मेरे प्राण नहीं रहेंगे।’ इन विसंगतियों में नारी का अन्तर्द्वन्द सामने आता है। भगवान राम वन में जब अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचते हैं तब वहां उनका बड़ा सम्मान होता है। सीताजी अत्रिमुनि की पत्नी अनुसूयाजी से मिलती है। दोनों एक-दूसरे का बड़ा सम्मान करते हैं। दोनों में बड़ी आत्मीयता है। अनुसूया ने सीता को दिव्य वस्त्र भेंट करती हैं, जो कभी मलिन नहीं होते और सीता जी को पति धर्म की शिक्षा देती हैं। उन्होंने पति धर्म के चार प्रकार बताये।
उत्तम के अस बस मन माही,
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाही।
मध्यम पर पति देखई  कैसे
भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।
धर्म विचारि समुझि कुल रहई
सो निकृष्ट त्रिय श्रृति उस कहई।
बिनु अवसर भय ते रह जोई,
जानेहु अधम नारि जग सोई।
पति वंचक परपति रति करई,
रौरव नरक कल्प सत परई।
नारी अन्नपूर्णा है, दुर्गा है और चंडिका भी। तीनों रूप उसी के है। यह एक ही शक्ति समय अनुसार तीन रूपों मे बदल जाती है। इस शक्ति के आगे ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी निरुपाय हो जाते हैं। नारी जब उच्छृंखल होती है, तब वह अपना विनाश तो करती ही है साथ ही पूरे समाज और संस्कृति को नेस्तनाबूद कर देती है। वन में जब राम गोदावरी नदी के किनारे पंचवटी घाट पर पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं, तब वहां एक दिन राक्षस रावण की बहन सूर्पनखा बड़ा सुंदर रूप बनाकर राम के पास पहुंचती है और उनसे विवाह करने का आग्रह करती है। वह राम से कहती है- ‘ मैं जितनी सुंदर हूं, उस योग्य मुझे आज तक कोई वर मिला ही नहीं, किंतु तुम्हें देखकर लगता है कि तुमसे यदि मेरा विवाह होता है, तो मुझे खुशी होगी, क्योंकि मेरा मन तुम्हारी तरफ झुक रहा है। इस पर राम ने कहा-‘मेरा विवाह हो गया है और मेरी पत्नी मेरे साथ है।’ अतः भगवान राम ने अनुज लक्ष्मण की ओर इशारा कर दिया। वह लक्ष्मण के पास पहुंचकर याचना करने लगी, इस पर लक्ष्मण उससे कहते हैं-
सेवक सुख चह मान भिखारी
 ब्यसनी धन सुभ गति विभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी।
यानी सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी धन और व्यभिचारी शुभ गति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहे तो ये सब प्राणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते हैं। अर्थात् असम्भव बात को संभव करना चाहते हैं। तब सूर्पनखा ने सोचा इस ‘सौत’ को ही रास्ते से हटा दो। अतः अपना भयानक रूप् प्रकट कर सीता को जब खाने दौड़ी तब राम ने लक्ष्मण को इशारा कर दिया, परिणामतः वह नाक और कान से विहीन हो गई। वह प्रतिरोध की ज्वाला में जलती हुई अपने भाई खरदूषण के पास पहुंची। अपनी बहन की इस दुर्दशा पर उन्हें भी क्रोध आ गया और सेना लेकर राम से लड़ने पहुंच गये। राम ने कुछ ऐसी माया रची कि शत्रुओं की सेना एक दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी। सुर्पनखा ने जब भाइयों की यह गति देखी तब वह राक्षस रावण के पास पहुंची। वहां उसने रावण को ऐसी फटकार लगायी कि वह सोच में पड़ गया। सूर्पनखा कहती है-
करति पान सोबसि दिनु राती
सुधि नहिं तब सिर पर आराती।
राजनीति बिनु धन बिनु धर्मा
हरिहि समर्पे बिनु सत कर्मा।
विद्या बिनु विवेक उप जाये
श्रम फल पढ़ें किये अरू पायें।
संग से जती कुमंत्रा से राजा
मान ते ज्ञान पान तें लाजा।
प्रीति प्रनय बिनु मद से गुनी
नासहिं बेगि नीति अस सुनी।
रिपु रूज पावक पाप प्रभु
अहि गनि अ न छोट किंरं।
यानी खरदूषण का विध्वंस देखकर सूर्पनखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह क्रोधी होकर रावण से कहती है- ‘तूने देश और खजाने की सुध ही भुला दी। शराब पी लेता है और दिन रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिन राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से , भगवान के समर्पण किये बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किये बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से सन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा, नम्रता के बिना प्रीति और मद से गुणवान शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। सुर्पनखा कहती है इस प्रकार की मैंने नीति सुनी है। शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिये।

सूर्पनखा की बातों से रावण सोच में पड़ गया तथा राम से बदला लेने की तरकीबें सोचने लगा। कहा है- ‘जैसी हो भवतव्यता तैसे मिले सहाय। आप न आवै ताहि पर ताहि तहाँ लै जायं।’ सो रावण साधु का वेश धारण कर आश्रम को सूना देखकर पहुंच गया पंचवटी। वहां सीता को अकेली पाकर उनका हरण कर उन्हें लंका ले आया।
काही न पावक में जले
कहि न समुद्र समाय।
काहि न करै अबला प्रबल
केहि जग कालु न खाहि।
यानी अग्नि में क्या नहीं जल जाता, समुद्र में क्या नहीं समा जाता, अबला क्या नहीं कर सकती और ऐसा कौन है जिसे काल खा नहीं जाता। अतः नारी शक्ति से जो भी टकराया वह सर्वनाश को ही प्राप्त हो गया। यही गलती कालजयी राक्षस रावण ने की। उसे उसकी पत्नी और मय दानव की पुत्री मंदोदरी समझाती है, किंतु वह राजमद में ऐसा डूबा था कि वह सही को भी गलत समझता। उसे मंदोदरी समझाती है-
नाथ बयरु कीजे ताही सों
बुधि बल सकिय जीति जाही सौ।
रामचरित मानस में सभी के लिए मर्यादित जीवन जीने के लिए शिक्षा प्राप्त होती है, अतः निर्धारित मर्यादा का जिन्होंने अतिक्रमण किया, उसका दुष्परिणाम भी उसी को भोगना पड़ा। जीवन उसी का सार्थक बना, जिन्होंने प्रस्थापित मर्यादाओं का सच्चाई से पालन किया। भगवान राम को इसलिए मर्यादा पुरूषोत्तम कहा गया। श्रीरामचरित्र मानस में गोस्‍वामी तुलसीदास जी द्वारा सभी रसों का रस्‍वास्‍वादन कराते हुए प्रभु श्रीराम के सम्‍पूूूर्ण जीवन चरित्र को पूूूर्ण आदर्श एवं पारिवारिक जीवन में त्‍याग, बैराग्‍य, सदाचार की शिक्षा की कुंजी के रूप में प्रस्‍तुत किया हेै जिनमें नारियों के जीवन को भी गवेषणात्‍मक स्‍वरूपों में एक छोटा सा प्रयास करने का यह एक प्रयासभर है ।

आत्‍माराम यादव पीव

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