नफरत, असमानता एवं नस्लीय भेदभाव से लड़ें

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ललित गर्ग
नस्लवाद मानवता के माथे पर एक बदनुमा दाग है, यह सिर्फ़ उन लोगों के जीवन को ही नुकसान नहीं पहुंचाता जो इसे झेलते हैं, बल्कि पूरे समाज को भी नुकसान पहुंचाता है। हम सभी भेदभाव, विभाजन, अविश्वास, असहिष्णुता, घृणा और नफ़रत से भरे समाज में जीतते नहीं, बल्कि हारते हैं। नस्लवाद के खिलाफ़ लड़ाई हर किसी की लड़ाई है। नस्लवाद से परे एक दुनिया बनाने में हम सभी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी उद्देश्य से जनजागृति का माहौल बनाने के लिये प्रतिवर्ष 21 मार्च को विश्व स्तर पर नस्लवाद के खिलाफ़ उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाते हैं और दक्षिण अफ्रीका में 1960 के शार्पविले नरसंहार के पीड़ितों को याद करते हैं। हम उन लोगों की आवाज़ एवं दर्द सुनते हैं जो नस्लवाद के खिलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में शामिल थे। यह दिवस नस्लीय भेदभाव को खत्म करने और समानता को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है और नस्लवादी विचारों और प्रथाओं के खिलाफ चल रही लड़ाई को रेखांकित करता है, ताकि नस्लीय अलगाव से मुक्त वैश्विक समझ और एकता को बढ़ावा देते हुए नस्लमुक्त आदर्श एवं समानतामूलक दुनिया का निर्माण किया जा सके।  
किसी व्यक्ति के साथ उसकी त्वचा के रंग, नस्ल, जातीय मूल या जन्म के देश के आधार पर भेदभाव करना नस्लीय भेदभाव कहलाता है। नस्लीय भेदभाव के ज़रिए लोगों को समान अवसरों से वंचित किया जाता है या उनका अपमान किया जाता है। नस्लवाद, विदेशी लोगों के प्रति घृणा और उससे संबंधित भेदभाव और असहिष्णुता सभी समाजों में, हर जगह मौजूद हैं। 21 दिसंबर, 1965 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने संकल्प 2106 (एक्सएक्स) के माध्यम से सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को अपनाया, जो नस्लवाद को मिटाने के वैश्विक प्रयास में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस वर्ष सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की 60वीं वर्षगांठ है। संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों में से पहली के रूप में, नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ने भविष्य के मानवाधिकारों की उन्नति के लिए मंच तैयार किया। 60वीं वर्षगांठ नस्लीय भेदभाव के खिलाफ की गई प्रगति पर चिंतन करने और मौजूदा चुनौतियों पर प्रकाश डालने का आह्वान करती है। यह समानता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता की पुष्टि करने और नस्लवाद को खत्म करने के प्रयासों को जारी रखने का समय है, ताकि सभी व्यक्तियों, समाजों के लिए समान व्यवहार एवं समानतामूलक विश्व की संरचना सुनिश्चित हो सके।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत में नस्लीय भेदभावमुक्त समाज को निर्मित करने के लिये प्रतिबद्ध है। मोदी सरकार चाहती है कि नस्लवाद किसी भी स्थिति में और अवश्य ही समाप्त होना चाहिए। और हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर नस्ल, जाति, रंग, लिंग, पंथ में रुचि रखने वाले लोग एक-दूसरे से सुरक्षित और आपस में संबंधित है, जिससे कि हमारा आने वाला कल सौहार्दपूर्ण तथा समावेशी विकास को बढ़ावा देने वाला हो। बावजूद इसके पूर्वाेत्तर राज्यों एवं अन्य समाजों में नस्लीय भेदभाव पसरा है। नस्ल प्रभावित लोगों के खिलाफ बढ़ रही आपराधिक घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। ये घटनाएं न सिर्फ राजधानी में इन राज्यों के लोगों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता की स्थिति को दर्शाती हैं, बल्कि यहां कानून-व्यवस्था के हालात पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करती हैं। विगत एक वर्ष में दिल्ली में पूर्वाेत्तर राज्यों के लोगों के खिलाफ विभिन्न थानों में बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए गए हैं। इनमें जहां हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले बड़ी संख्या में हैं, वहीं महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म, दुष्कर्म के प्रयास, छेड़छाड़, फोन पर फब्तियां कसने व घूरने जैसी घटनाओं को लेकर दर्ज किए गए, मामलों की संख्या भी कम नहीं है। यही नहीं, दिल्ली पुलिस की साइबर सेल के पास सोशल नेटवर्किग साइट्स पर नस्लीय टिप्पणियां किए जाने संबंधी मामले भी आ रहे हैं। इस तरह तेजी से बढ़ती आपराधिक घटनाएं राजधानी में पूर्वाेत्तर राज्यों के लोगों में असुरक्षा का भाव पैदा कर रही हैं जो गंभीर चिंता का विषय है। ये स्थितियां भारत के नस्लीय भेदभाव के विरोध और अश्वेतों को समान अधिकार और प्रतिष्ठा दिए जाने की वकालत को भी धुंधलाती है। क्या कारण है कि देश के भीतर के सामाजिक विभाजन एवं नस्लीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद उसे मिटा नहीं रहे हैं। भले ही ऐसी वारदातें पुलिस की नजर में छोटी हों लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता एवं गौरवपूर्ण संस्कृति के लिये चिन्ताजनक है। तेजी से बढ़ता नस्लीय हिंसक दौर किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल एवं भारत की आत्मा को जख्मी बनाया है। अब इन हिंसक होती स्थितियों को रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है।
देश में कई विसंगतिपूर्ण एवं भेदभावपूर्ण धाराएं बलशाली हो रही हैं, जिन्होंने जोड़ने की जगह तोड़ने को महिमामंडित किया हैं, प्रेम, आपसी भाईचारे और सौहार्द की जगह नफरत, द्वेष एवं विघटन को हवा दी। शायद यही वजह है कि भारत में अब भी लोग हर तरह के वर्ग और समुदाय के साथ घुल-मिलकर रहना सीख नहीं पाए हैं। उनके अचेतन में बिठा दिए गए पूर्वाग्रह समय-समय पर खतरनाक ढंग से सामने आते रहते हैं। एक आधुनिक और सभ्य समाज का लक्षण यह है कि वह अलग-अलग धाराओं से आने वाले लोगों और विचारों को खुले मन से स्वीकारें। आज राजनेता अपने स्वार्थों की चादर ताने खड़े हैं अपने आपको तेज धूप से बचाने के लिये या सत्ता के करीब पहुंचने के लिये। सबके सामने एक ही अहम सवाल आ खड़ा है कि ‘जो हम नहीं कर सकते वो तुम कैसे करोगे?’ लगता है इसी स्वार्थी सोच ने, आग्रही पकड़ ने, राजनीतिक स्वार्थ की मनोवृत्ति ने देश को इंसानों को नस्ल, भाषा, रंग, धर्म के भेदभावों की आग में झोंक रखा है।
इक्कींसवी सदी का आदमी हवा में उड़ने लगा है, चांद पर चहलकदमी करने लगा है, ग्रह-नक्षत्रों की दुनिया में झांकने लगा है, यंत्र मानव का निर्माण करने लगा है, अपनी अधिकांश समस्याओं का समाधान कम्प्यूटर-कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) से पाने लगा है, लेकिन इंसान इंसान के बीच के भेदभाव को मिटाने की दिशा में अभी भी यथोचित सफलता नहीं मिली है। यही कारण है कि नस्लीय, लैंगिक, जातीय, भाषायी भेदभाव खड़े हैं। नस्लीय भेदभाव एक गहरा मुद्दा बना हुआ है जो अल्पसंख्यक समूहों को प्रभावित करता है। रूढ़िवादिता, पूर्वाग्रह और प्रणालीगत नस्लवाद असमान अवसरों, संसाधनों तक सीमित पहुंच और शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवा में व्यापक असमानताओं का बड़ा कारण हैं। नस्लीय भेदभाव के दुष्परिणाम व्यक्तिगत अनुभवों से कहीं आगे तक फैले हुए हैं, जो पूरे समुदाय को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। नस्लीय भेदभाव सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ावा देते हैं, जिससे पीढ़ियों तक नुकसान का चक्र चलता रहता है। जैसे-जैसे नस्लवाद के खिलाफ़ उन्मूलन के दिवस के आंदोलन ने गति पकड़ी, नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में मील के पत्थर हासिल होते गए, जिससे अधिक समावेशी भविष्य की उम्मीद जगी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के अमृतकाल-2047 तक नये भारत-विकसित भारत-सशक्त भारत निर्मित करने की योजनाओं के साथ भारत में भेदभाव, ऊंच-नीच, छूआछूत की अमानवीता को न केवल धोया हैं, बल्कि एक अधिक समानता एवं समतापूर्ण आदर्श-समाज व्यवस्था की नींव को मजबूती दी हैं।  इंसान इंसान को बांटने वाली हर दीवार को और हर भेदभाव को ढहाया जा रहा है। इंसान ने भेदभाव की नीति अपनाते हुए संसार को बाँट दिया। मानव और मानव के बीच में जो नस्ल, जाति, भाषा, रंगभेद की दीवारें खड़ी हैं, उनको ढहाना होगा, और इसके लिए नस्लवाद के खिलाफ़ उन्मूलन के दिवस जैसे विश्व अभियान को अधिक सशक्त, कार्यकारी एवं सक्रिय करने की आवश्यकता है।

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