पांच भूलें और मार्क्सवाद का भविष्य

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की हवा बनाने में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी ) यानी माकपा की अपनी पांच भूलों की बड़ी भूमिका है। इन पांचों भूलों को तुरंत दुरूस्त किए जाने की जरूरत है। पहली भूल , पार्टी और प्रशासन के बीच में भेद की समाप्ति। इसके तहत प्रशासन की गतिविधियों को ठप्प करके पार्टी आदेशों को प्रशासन के आदेश बना दिया गया । जरूरी है प्रशासन और पार्टी को अलग किया जाए। दूसरी भूल ,माकपा कार्यकर्ताओं ने आम जनता के दैनंन्दिन-पारिवारिक -सामाजिक जीवन में व्यापक स्तर पर हस्तक्षेप किया है,और स्थानीयस्तर पर विभिन्न संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की है। यह हस्तक्षेप और नियंत्रण तुरंत बंद होना चाहिए,साथ ही दोषियों को पार्टी पदों से मुक्त किया जाए। तीसरी भूल , अनेक कमेटियों ने कामकाज के
 वैज्ञानिक तौर-तरीकों को तिलांजलि देकर तदर्थवाद अपना लिया है। अवैध ढ़ंग से जनता से धन वसूली का तंत्र स्थापित किया है। इस तंत्र को तोड़ने की जरूरत है और कम्युनिस्ट पार्टी के तौर तरीकों के आधार पर काम करने की परंपरा कायम की जाए। चौथी भूल ,बड़े पैमाने पर अयोग्य,अक्षम और कैरियरिस्ट किस्म के नेताओं के हाथों में विभिन्न स्तरों पर पार्टी का काम सौंप दिया गया है। मसलन् जिन
 व्यक्तियों के पास भाषा की तमीज नहीं है,मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं है,पेशेवर लेखन कला में शून्य हैं ,बौद्धिकों में साख नहीं है,ऐसे लोग पार्टी के अखबार,पत्रिकाएं और टीवी चैनल चला रहे हैं। अलेखक-अबुद्धिजीवी किस्म के लोग लेखकसंघ-बुद्धिजीवीमंचों के नेता बने हुए हैं। जो व्यक्ति कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में सामान्य विचारधारात्मक ज्ञान नहीं रखता वह नेता है। जिस विधायक की
 साख में बट्टा लगा है वह पद पर बना हुआ है। ऐसे लोगों की तुरंत छुट्टी की जाए। पांचवी भूल, राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक सबके अंदर 'हम' और 'तुम' के आधार पर सोचने की प्रवृत्ति ने राज्य प्रशासन के प्रति सामान्य जनता की आस्थाएं घटा दी हैं। आम जनता से वाम मोर्चा वायदा करे कि मानवाधिकारों की रक्षा के मामले
 में वह अग्रणी भूमिका निभाएगा और पिछली भूलों के लिए खेद व्यक्त करे।  ये पांच भूलें पार्टी अपने तथाकथित शुद्धिकरण अभियान के तहत भी दुरूस्त नहीं कर पायी है। ऐसे में माकपा के पास एक ही विकल्प है जिसकी ओर लोकसभा पराजय के तत्काल बाद माकपा नेता विमान बसु ने ध्यान खींचा था कि पार्टी कार्यकर्ता अपनी गलतियों,भूलों और दुर्व्यवहार के लिए घर -घर जाकर माफी मांगें।
वाम मोर्चे का शक्तिशाली रहना गरीबों के हित में है। भारत में गरीबों के हितों की रक्षा का सवाल बड़ा सवाल है। इसके मातहत पार्टी नेताओं के अहंकार,अज्ञान,दादागिरी आदि को तिलांजलि दिए जाने की सख्त जरूरत है। माकपा को मैं करीब से जानता हूँ और इस दल में आज भी अपने को दुरूस्त करने और ,जनता का दिल जीतने की क्षमता है। ममता बनर्जी के लिए माकपा की उपरोक्त पांच भूलों ने जनाधार प्रदान
 किया है। दूसरी ओर यह भी सच है कि गरीबों के पक्ष में काम करने का वाम मोर्चा सरकार का शानदार रिकॉर्ड है। मसलन् शहरी गरीबी को दूर करने के मामले में वाम सरकारों की उपलब्धि की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ। निम्नलिखित आंकड़े देश के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों ने पेश किए हैं। इनमें से किसी का भी वामदलों के साथ कोई रिश्ता नहीं है। भारत सरकार के 'मिनिस्ट्री ऑफ हाउसिंग
 एंड अर्बन पॉवर्टी एलीवेशन' मंत्रालय के द्वारा जारी 'अर्बन पॉवर्टी रिपोर्ट 2009' में दिए गए आंकड़े बताते हैं कि 1973-2005 के बीच में भारत में जिन राज्यों में शहरी गरीबी कम हुई है वे हैं -पंजाब,गुजरात,पश्चिम बंगाल,हरियाणा और दिल्ली। मसलन् पश्चिम बंगाल में 1983-84 में शहरी गरीबों की आबादी 32.32 प्रतिशत थी,1987-88 में 35.08 प्रतिशत,1993-94 में 22.41 प्रतिशत और 2004-05 में घटकर 14.80 प्रतिशत रह गयी है। यानी 18 फीसदी
 शहरी गरीबी कम हुई है।  वाम ने आखिर यह जादू कैसे किया ?
वाम की गरीबोन्मुख नीतियों के कारण बड़ी संख्या में शहरी गरीबों की आर्थिक दशा में सुधार आया है। इसके विपरीत इसी अवधि में जिन राज्यों में सबसे ज्यादा शहरी गरीब दर्ज किए गए वे हैं- उडीसा,मध्यप्रदेश,राजस्थान,कर्नाटक और महाराष्ट्र। उल्लेखनीय है वाम वर्चस्व वाले केरल में इसी अवधि में सबसे ज्यादा शहरी गरीबी कम हुई है। सारे देश में और विभिन्न राज्यों में प्रति व्यक्ति
 राज्य घरेलू उत्पाद(एसडीपी) के आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में 1983-4 -2004-5 के दौरान शहरी गरीबी में बड़े पैमाने पर कमी आयी है। सारे देश के राज्यों में पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद के मामले में भूमिका प्रशंसनीय रही है और वह देश में शहरी गरीबी उन्मूलन के मामले में 11वें स्थान से उठकर तीसरे नम्बर पर पहुँच गया है। इसी तरह जिन राज्यों में सबसे ज्यादा शहरी साक्षरता
 दर्ज की गई है उनमें केरल सबसे ऊपर है,केरल में 91 प्रतिशत साक्षरता दर्ज की गई है। वहीं सारे देश में जिन राज्यों में शहरी साक्षरता दर श्रेष्ठतम है, वे हैं- केरल,महाराष्ट्र, गुजरात, असम, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल। शहरी साक्षरता दर का आय और प्रति व्यक्ति मासिक व्यय के साथ गहरा संबंध है। शहर में पैसा नहीं कमाने वाले पढ़ भी नहीं सकते। शहरी गरीबों में साक्षरता के बढ़ने का अर्थ है
 कि उनकी आमदनी भी बढ़ी है। जिन पांच राज्यों में शहरी गरीबों की साक्षरता दर बढ़ी है,शहर में खर्च करके रहने की क्षमता बड़ी है उनमें दो राज्य हैं केरल और पश्चिम बंगाल। ये आंकड़े सेशंस विभाग के द्वारा जारी किए गए हैं। वाम मोर्चे के शासन में पांच भूलों के बाबजूद शहरी गरीबी को बड़ी मात्रा में खत्म करने में सफलता मिली है। मसलन् शहर में पीने के साफ पानी की सप्लाई 1981 में 79.8 फीसदी
 जनता तक थी जो 2001 में बढ़कर 92.3 फीसदी जनता तक हो गयी है। इसके अलावा 56.7 फीसदी जनता के घरों में नल से पानी सप्लाई होता है। राज्य की 84.8 फीसद शहरी आबादी के पास नागरिक सेवाएं पहुँची हैं।

 

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