भारत के व्यापार को चौपट करने का यूरोपीय षड्यंत्र

-प्रवीण दुबे-
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1998 में जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने परमाणु परीक्षण करके पूरी दुनिया को भारत की ताकत का अहसास कराया था। वे विश्व की महाशक्ति अमेरिका द्वारा भारत पर लगाए गए तमाम आर्थिक प्रतिबंधों से न तो घबराए थे और न झुके थे। पूरी दुनिया ने देखा था कि अमेरिका के इस कदम के खिलाफ भारत का सोया-स्वाभिमान किस प्रकार जाग उठा था और अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों का कोई असर भारत पर नहीं हुआ था, अंतत: अमेरिका को हार कर यह प्रतिबंध हटाना पड़े थे। यूरोपीय संघ हो या अन्य पाश्चात्य देश ऐसा समझते हैं कि पूरी दुनिया उनके बिना चलना सम्भव नहीं है। वास्तव में यह एक दिवास्वप्न जैसा है। दुनिया के अन्य देशों को जितनी आवश्यकता यूरोप की है उससे कहीं ज्यादा यूरोप को दुनिया के बाजार की भी है। जरूरत केवल इस बात की है कि स्वयं को तुच्छ न समझा जाए, सोए स्वाभिमान को जगाया जाए और नुकसान के भय से घुटने न टेके जाएं। जैसा कि परमाणु परीक्षण के समय भारत ने किया था।

यहां यह सारा दृष्टांत इस कारण ध्यान में आया क्योंकि पिछले 30 अप्रैल को यूरोपीय संघ ने भारत के आम और सब्जी उत्पादकों के खिलाफ जो हिटलरशाही भरा आदेश जारी किया उसे न केवल भारत के हितों पर कुठाराघात कहा जा सकता है, बल्कि यह विश्व व्यापार संगठन के नियमों की भी खुलेआम अवहेलना कही जा सकती है। यूरोपीय संघ ने भारत के बहुचर्चित अल्फांसो आमों सहित चार सब्जियों के यूरोप के बाजारों में 1 मई से आयात पर प्रतिबंध लगाने का फरमान जारी किया। यूरोपीय संघ ने इसके लिए जो तर्क दिया है उसमें कहा गया है कि भारत से आयातीत आम और सब्जियां मक्खियों से संक्रमित पाई गई हैं। यहां बताना उपयुक्त होगा कि आजादी के पहले से ही यूरोपीय देश सहित विश्व के तमाम बड़े देश भारत के रसीले आमों के मुरीद रहे हैं। ब्रिटेन तो भारत से करीब 160 लाख आमों का आयात प्रतिवर्ष करता है। वहां इस फल का बाजार 60 लाख पाउंड सालाना है।

इतना ही नहीं, भारत को दुनिया में आम निर्यात के क्षेत्र में सबसे बड़ा निर्यातक देश होने का दर्जा प्राप्त है। भारत द्वारा 65,000 से 70,000 टन आमों का निर्यात किया जाता है। भारत का कुल आम उत्पादन 15-16 लाख टन है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि दुनिया के सबसे बड़े आम निर्यातक देश के खिलाफ यूरोपीय संघ द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के पीछे का सच आखिर क्या है? कहीं यह भारत के आम निर्यात को बर्बाद करने को लेकर यूरोपीय संघ का षड्यंत्र तो नहीं। यह सवाल इस वजह से और अधिक बलवती हो जाता है क्योंकि जिन आमों और सब्जियों के आयात पर यूरोपीय संघ ने यह कहते हुए प्रतिबंध लगाया है कि वे संक्रमण फैलाने वाली मक्खियों से संदूषित हैं, उनकी जांच की भारत मे एक मान्य विधिवत प्रक्रिया पहले से ही मौजूद है।

भारत सरकार ने अपीडा के अन्तर्गत खाद्य वस्तुओं के परीक्षण के लिए विश्वस्तरीय प्रयोगशाला पहले से ही स्थापित कर रखी है। इनका प्रमाण-पत्र किसी और ने नहीं बल्कि अमेरिका, यूरोपीय संघ और उन तमाम देशों द्वारा ही मान्य किया गया है जिनके द्वारा भारत के आम और सब्जियों को संक्रमित होने का राग अलापकर उन पर प्रतिबंध लगाने का षड्यंत्र रचा गया है। इतना ही नहीं, यूरोपीय संघ ने इस तरह के प्रतिबंध आरोपित करने से पूर्व विश्व व्यापार संगठन के नियमों की भी खुलेआम अवहेलना की है। उसने मनमाने तरीके और भारत को बिना किसी बातचीत और संदेश के प्रतिबंध की कार्रवाई कर डाली। शर्मनाक बात तो यह है कि पाकिस्तान, अमेरिका, चीन आदि देशों द्वारा किए जा रहे तमाम भारत विरोधी कृत्यों के खिलाफ दब्बूपन दिखाने वाली भारत सरकार ने इस मामले में भी बेहद ढीला रूख अपना रखा है। इसका प्रमाण उस वक्त सामने आया जब इस मुद्दे पर भारत के वाणिज्य सचिव राजीव खेर ने बेहद दब्बूपने वाला बयान दिया। पत्रकारों ने जब उनसे यह सवाल किया कि क्या भारत यूरोपीय संघ के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन के मंच पर शिकायत दर्ज कराएगा? तो श्री खेर ने कहा कि भारत चाहेगा कि इसका समाधान बातचीत से निकाला, उनका कहना था कि मुझे नहीं लगता कि इस मामले में यह सही तरीका होगा। भारत और यूरोपीय संघ के बीच व्यापारिक संबंध बहुत मजबूत हैं। अब भला भारत सरकार से कौन पूछे कि दुनिया में सर्वाधिक आम भेजने वाले भारत पर इस तरह अचानक और बिना किसी पूर्व सूचना के लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन के मंच पर आवाज उठाना यदि सही तरीका नहीं है तो फिर सही तरीका क्या है? क्या भारत जैसा विशाल और स्वाबलंबी देश इस तरह की यूरोपीय दादागिरी को मुंहबंद करके सहन करे और बातचीत से इसका हल निकालने की बात करे यह सही तरीका है? यह ठीक उसी दब्बूपन और कमजोर नेतृत्व का परिचायक है जैसा कि पाकिस्तान और चीन द्वारा भारत की आंतरिक सुरक्षा में की जा रही सेंधमारी के बावजूद भारत सरकार प्रदर्शित करती रही है और शान्तिवार्ता तथा बातचीत के द्वारा समस्या का समाधान खोजने की नाकाम कोशिशें करती रही है।

सबसे अहम् सवाल तो यह है कि हाल ही में निर्यात किए गए 160 लाख आमों जिन पर की प्रतिबंध आरोपित किया गया है उसका क्या होगा? यदि यह आम यूरोप की मंडी में नहीं लिए गए तो इसका नुकसान आम उत्पादकों, निर्यातकों को उठाना होगा। जैसा कि बताया गया है कि आम का सालाना बाजार 60-70 लाख पाउंड के आसपास है, यदि यह प्रतिबंध शीघ्र नहीं हटाए जाते हैं तो भारत के आम उत्पादकों को एक बड़ा नुकसान झेलना होगा। आखिर भारत सरकार इस स्थिति में भी विश्व व्यापार संगठन में आवाज उठाने को लेकर ढीलापन क्यों दिखा रही है?

पता नहीं भारत सरकार यह क्यों भूल जाती है कि विश्व व्यापार संगठन के नियामनुसार पूरी दुनिया को वैश्वीकरण के ढांचे में ढाला गया है। ऐसी स्थिति में कोई भी देश, मंच अथवा संगठन व्यापार के क्षेत्र में किसी दूसरे देश के हितों की अनदेखी नहीं कर सकता, यदि ऐसा किया जा रहा है तो यह विश्व व्यापार की मान्य शर्तों के खिलाफ है। भारत को इसके खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार करना चाहिए। भारत को डब्ल्यूटीओ को दो टूक शब्दों में यह चेतावनी देना चाहिए कि इस मामले में वह तुरंत हस्तक्षेप करे और यूरोपीय संघ द्वारा सारे फायदे कानून को ताक पर रखकर आम और सब्जियों के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंधों को तुरंत हटाने की मांग करे। यदि इतने पर भी कोई सुनवाई नहीं होती है तो भारत भी यूरोपीय संघ के देशों द्वारा भारत के बाजार के लिए जा रहे उपयोग पर प्रतिबंध की घोषणा करे तथा देशवासी भी सड़कों पर उतरकर यूरोपीय संघ का बहिष्कार करे।

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