विश्ववार्ता

सांसत में पाकिस्तान के अल्पसंख्यक


आर. एल. फ्रांसिस

हमेशा कश्मीर -कश्मीर चिल्लानेवाले और भारत में मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन पर घड़ियाली आँसू बहानेवाले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा अत्याचार हो रहा है इसका उदाहरण हाल ही में पांच बच्चों की मां 45 वर्षीय ईसाई महिला आसिया बीबी को एक निचली अदालत द्वारा दी गई मौत की सजा है। पाकिस्तान में लागू ईशनिंदा कानून के तहत यह सजा सुनाई गई है। इसके पहले भी कई गैर मुस्लिमों को इस कानून के तहत सजाए दी गई है। सबसे चर्चित मामला वर्ष 1994 में एक 11 वर्षीय ईसाई युवक सलामत मसीह का है। जिसने सारी दुनिया का ध्यान पाकिस्तान के इस काले कानून की तरफ खींचा था।

पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक के शासनकाल में ईशनिंदा कानून बनाया गया था जिसमें यह प्रावधान था कि अगर कोई व्यक्ति इस्लाम या मोहम्मद साहब की निंदा करता है तो उसे आजीवन कारावास की सजा दी जाए। सन् 1992 में नवाज षरीफ ने इस आजीवन कारावास के प्रावधान को फाँसी की सजा में बदल दिया था। यह कानून मुसलमानों पर नहीं बल्कि गैर मुस्लिमों पर ही लागू होता है। इसका अर्थ यह है कि अगर कोई मुसलमान गीता, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहब की निंदा करता है या हिंदू देवी-देवता, ईसा मसीह अथवा गुरुनानक आदि की आलोचना करता है तो उसे कोई सजा नही दी जा सकती। हाँ कोई मुसलमान अगर अपने धर्म और मुहम्मद साहब की निंदा करता है तो वह ईशनिंदा कानून की गिरप्त में आ जाता है। जाहिर है कि ईशनिंदा कानून धार्मिक भेदभाव पर अधारित ही है और पिछले दो दशकों से इसका भीषण दुरुपयोग पाकिस्तान में हो रहा है।

पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथी लगातार उग्र होते जा रहे है वहां के राजनीतिक दलों, प्रशासन एवं सेना तक में इनकी गहरी घुसपैठ हैं। उन्होंने ईशनिंदा कानून में किसी भी तरह के बदलाव किये जाने के विरुद्ध सरकार को चेतावनी दी है। पाकिस्तान में ईसाई सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। इनकी इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए कट्टरपंथी इस्लामिक समूह उन्हें अपना निषाना बनाए हुए है। वर्ष 2009 में कराची शहर में ईसाइयों की एक बस्ती पर तालिबान ने धावा बोलकर कई निर्दोष ईसाइयों को मौत के घाट उतार दिया था और उन्हें धमकी दी कि वह इस्लाम ग्रहण करें। तालिबान कराची एंव पूरे सिंध में शरीया लागू करना चाहता हैं।

इस्लाम के नाम पर अस्तित्व में आया पाकिस्तान आज अपने ही फैलाये हुए धार्मिक कट्टरपन के भंवर में फंस गया है। यहां के अल्पसंख्यक डर और खौफ के साये में जी रहे है। कट्टरपंथी समूहों के बाद अब यहां इस्लाम का तथाकथित रक्षक ‘तालिबान’ खड़ा हो गया है जो बंदूक की ताकत से पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर हर हलात में ‘इस्लाम’ थोपने पर तुला हुआ है और उसके निशाने पर ईसाई समुदाय है। भारत के मामले में जिस तरह वैटिकन एवं अन्य यूरोपीय देश ईसाई मामलों को लेकर दखलअंदाजी करते है वह स्थिति पाकिस्तान के मामले में नही है। हालाकि भारत में हिन्दू एवं अन्य धर्मावलम्बी ईसाइयत के प्रति हमेशा सहज ही रहे है। यहां कोई किसी को ईसाइयत छोड़ने के लिए नही कहता। हमारे यहां छुट-पुट टकराव की नौबत तब आती है जब कुछ लोग दूसरे के धर्मो के अदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करने लगते हैं। यहां के कुछ ईसाई नेताओं ने विश्व पटल पर भारत को एवं हिन्दू समुदाय को बदनाम करने का ठेका उठा रखा है। ऐसे नेताओं को पाकिस्तान के हलातों से सीख लेते हुए देष में तनाव बढ़ाने वाली गतिविधियों को बंद करना चाहिए।

समय की मांग है कि वेटिकन एवं अन्य यूरोपीय देश पाकिस्तान में मानवाधिकारों का हनन करने वाले काले कानूनों के विरुद्ध अपनी आवाज उठाए। पाकिस्तान के गरीब ईसाइयों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कदम उठाये जाए। दरअसल पाकिस्तान के बहुसंख्यक ईसाई दलित जातियों से है और उन्होंने अविभजित भारत में अंग्रेजी राज के समय ईसायत की दीक्षा ली है। 1855 में साकॅटलैंड के चर्च ने पंजाब और उतर पश्चिमी इलाके पर अपना प्रभाव बढ़ाया 1880 तक इस इलाके की अछूत जाति ‘चूड़ा’ का जबरदस्त धर्मांतरण हुआ। लाल बेगी कहे जाने वाले इस समूह को ईसाइयत की तरफ खिंचने के लिए अंग्रेजों ने अपनी सेना में एक रेजीमैंट ही खड़ी कर दी थी। क्योंकि चूड़ा भी महारों की तरह लड़ने वाली जाती मानी जाती हैं। इन्हीं ईसाइयों के बलबूते ईसाई मिशनरियों ने इस क्षेत्र (आज का पाकिस्तान) में अपना कार्य शुरु किया। मिशनरियों ने नए ईसाइयों को लहोर, कराची, फैसलाबाद, हैदराबाद, मुल्तान, कोटा, पेशावर, रावलपिंडी, लायपुर, मांटगुमरी, सयालकोट और इस्लामाबाद जैसे क्षेत्रों में बसाया। यह लोग विभाजन के बाद पाकिस्तान में ही रह गये और आज यह वहा अमानवीय जीवन जी रहे है।

ईसाई ही नही हिन्दू समुदाय भी इस्लामिक कट्टरपंथी समूहों का निशाना बना हुआ है। पाकिस्तान में 1947 में जिनते हिन्दू थे उसमें अभी आधे रह गए हैं। कट्टरपंथी समूहों ने गैर मुसलमानों के अलावा उन मुसलमानों को भी नही अपनाया जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे उन्हें आज मोहाजिर कहा जाता है। जिस राश्ट्र का निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना मोहाजिर था आज उसी राश्ट्र में मोहाजिरों के खिलाफ उग्र आदोंलन है। और मोहाजिरों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए ‘मोहाजिर कौमी मूवमेंट’ जैसा राजनैतिक संगठन खड़ा करना पड़ा है। जिन्ना ने भले ही द्विराष्ट्र सिंद्धांत दिया हो लेकिन वे धर्म के अधार पर भेदभाव नही चाहते थे। लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने धार्मिक भेदभाव शुरु कर दिया।

सबसे पहले अहमदिया मुसलमानों को इस्लाम से बाहर किया गया फिर हिन्दू मंदिरों एवं गुरुद्वारों को तोड़ा गया। अहमदिया मुसलमानों को अपने नाम के आगे मुसलमान लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। जनरल जिया-उल-हक ने इस्लामीकरण का जोरदार आदोंलन चलाया और ईशनिंदा कानून अस्तित्व में आया। सारे पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की कैसी दुर्दशा है यह आसिया बीबी की स्थिति को देखकर पता चलता है। ऐसे पाकिस्तान को भारत में मानवाधिकारों का मसला उठाने की नैतिक छूट कैसे दी जा सकती है? अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामलों ने सारी दुनियां की आँखें खोल दी है। मगर पाकिस्तान की आँखें अभी नही खुली है। अब देखना होगा कि पाकिस्तान सरकार आसिया बीबी के मामले में क्या कदम उठाती है।