राजनीति

जरूरी है परमाणु जवाबदेही बाधाओं से मुक्ति

संदर्भः- परमाणु ऊर्जा शांति विधेयक-2025

प्रमोद भार्गव

  आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने विपक्ष के तमाम विरोध और हंगामे के बावजूद ‘शांति विधेयक-2025‘ अर्थात ‘भारत परिवर्तन के लिए नाभिकीय ऊर्जा का सतत दोहन तथा उन्नयन विधेयक-2025‘ लोकसभा से पारित करा लिया। इस विधेयक का उद्देश्य  परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962 और परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम 2010 को निरस्त करना है। दरअसल भारत ने 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु ऊर्जा बनाने का लक्ष्य रखा है। इसे हासिल करने की दृष्टि  से ऊर्जा विशेषज्ञों का मानना है कि इस बड़े लक्ष्य को प्राप्ती के लिए निजी कंपनियों का सहयोग जरूरी है। अकेली सरकारी संस्थाओं के बूते इस मकसद को पूरा करना मुमकिन नहीं है। अतएव इस नए विधेयक के आने से परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने की उम्मीद की जा रही है। यह विधेयक परमाणु ऊर्जा के लिए एक सुरक्षित कानूनी ढांचा तैयार करेगा। फलस्वरूप निजी कंपनियां इस क्षेत्र में काम कर सकेंगी। इस क्षेत्र में अभी तक परमाणु ऊर्जा विभाग का ही कब्जा है। इस विधेयक के बाद अतिरिक्त बिजली उत्पादन, ग्रिड एकीकरण और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में तेजी से विकास होगा।     

  नागरिक दायित्व अधिनियम (सीएलएनडीए) 2010 में दो महत्वपूर्ण संशोधन सरकार कर सकती है। इन दो संशोधनों को बड़े सुधारों के रूप में देखा जा रहा है। इस संशोधन के तहत परमाणु संयंत्रों को उपकरण सप्लाई करने वाली कंपनियों की जिम्मेदारी सीमित की जा सकती है। मसलन यदि कोई दुर्घटना होती है तो उनकी जिम्मेदारी अनुबंध की मूल राशि और एक निर्धारित समय तक ही सीमित रहेगी। इस परिप्रेक्ष्य में बतौर उदाहरण विदेशी कंपनी जैसे जीई-हिताची वेस्टिंग हाउस को इस कानून के कारण निवेश में हिचक होती रही है। दूसरा संशोधन परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962 में प्रस्तावित है। यह कानून फिलहाल केवल सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों को ही परमाणु संयंत्र चलाने की अनुमति देता है। इसे संशोधित किया जाता है तो निजी कंपनियों को भी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के संचालन की अनुमति मिल जाएगी। इस परिवर्तन से विदेशी कंपनियों के लिए भविश्य  के परमाणु प्रोजेक्ट में अंषिक हिस्सेदारी का द्वार खुल जाएगा। साफ है, ये उपाय हो जाते हैं तो परमाणु उत्पादन बढ़ने की संभावनाएं तो बढ़ जाएंगी, लेकिन स्वच्छ ऊर्जा और परमाणु दुर्घटना होने पर कंपनियों को नागरिक जवाबदेही से मुक्ति मिल जाएगी। याद रहे मनमोहन सिंह सरकार के प्रधानमंत्री रहते हुए भारत-अमेरिका के बीच हुए परमाणु समझौते के बाद जो राजनीतिक तूफान उठा था, उसके चलते संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-1 सरकार गिरते-गिरते बची थी। 

     दरअसल सरकार परमाणु ऊर्जा क्षेत्र को बाधा मुक्त इसलिए करना चाहती है जिससे 2047 तक सौ गीगावाट परमाणु ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य हासिल कर लिया जाए। इसी लक्ष्य पूर्ति के लिए सरकार परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी भागीदारी बढ़ाना चाहती है। इसीलिए 2024-25 के आम बजट में लघु परमाणु संयंत्रों के लिए सरकार ने बड़े बजट का प्रावधान किया था। इस क्षेत्र में नया प्रयोग करते हुए पहली बार निजी कंपनियों को लघु परमाणु संयंत्र समूचे देश  में स्थापित करने का अवसर दिया जाएगा। कालांतर में विदेशी कंपनियों को भी परमाणु संयंत्र लगाने की अनुमति दी जा सकेगी। साथ ही मॉड्यूलर (प्रतिरूपक) रिएक्टर के आधुनिकीकरण के लिए शोध और विकास पर भी धनराशि खर्च की जाएगी। जिससे परमाणु ऊर्जा में नई प्रौद्योगिकी का विकास हो, इसे पीपीपी मॉडल पर क्रियांवित किया जाएगा। इसका उद्देश्य  देश  में स्वच्छ एवं वैकल्पिक बिजली को बढ़ावा देना है। फरवरी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका यात्रा पर गए थे, तब भारत में छोटे परमाणु संयंत्र लगाने और भारत में ही उत्पादन करने का समझौता हुआ था। एआई के दौर में ऊर्जा की खपत असाधारण रूप से बढ़ने की उम्मीद है। यह एक कंप्यूटर की भाषा  का कृत्रिम बुद्धि से जुड़ा मॉडल है। भाषा  मॉडल ऐसे मषीन लर्निंग मॉडल हैं, जो मानव भाषा  के पाठ को समझ सकते है और सृजित भी कर सकते हैं। ये मॉडल भाषा  के बड़े डेटा भंडार का विश्लेषण करने पर भी सक्षम होते हैं। सुपर और क्वांटम कंप्यूटर में इसी एआई की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए परमाणु ऊर्जा की जरूरत लघु परमाणु संयंत्रों से ही संभव हैं। स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन में इसे क्रांतिकारी पहल माना जा रहा है। 

     विकसित भारत के लिए ऊर्जा की उपलब्धता एक बड़ी जरूरत है। इसलिए सरकार सिर्फ पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर नहीं रहना चाहती है। ऑप्रेशन सिंदूर के बाद जिस तरह से हमारी सेना ने पाकिस्तान के आतंकी और गैर-सैन्य ठिकानों को ध्वस्त किया था, उन आयुधों के निर्माण और संचालन के लिए भी परमाणु ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। इस परिप्रेक्ष्य में सौर और पवन ऊर्जा पर सरकार पहले ही काफी कुछ कर चुकी है। अतएव अब फोकस परमाणु ऊर्जा पर केंद्रित है। क्योंकि इसमें संभावनाएं अधिक हैं। आम बजट पेश  

 करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने ऊर्जा सुरक्षा को सरकार की नौ प्राथमिकताओं में गिनाया था। ऊर्जा बदलाव के संबंध में एक नीतिगत दस्तावेज तैयार करने की बात भी कही गई है। इससे यह तय होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में किस तरह से पारंपरिक ऊर्जा की जगह धीरे-धीरे अपारंपरिक ऊर्जा के स्रोत का महत्व बढ़ रहा है। यह दस्तावेज ऊर्जा क्षेत्र में रोजगार, विकास और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का भी समाधान खोजेगा। अतएव इसी परिप्रेक्ष्य में निकेल, कोबाल्ट, तांबा और लिथियम जैसी धातुओं के उत्पादों के आयात पर षुल्क घटाया है। इन उत्पादों का प्रयोग परमाणु और सौर ऊर्जा के साथ दूसरे ऊर्जा उत्सर्जन उपायों में भी होता है। आयात सस्ता होने से इनका निर्माण भारत में करने में आसानी होगी। यही नहीं परमाणु ऊर्जा, नवीनीकरण ऊर्जा और अंतरिक्ष एवं रक्षा क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली 25 धातुओं पर सीमा शुल्क को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है। यानी छोटे परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने के रास्ते साफ किए जा रहे हैं।   

     भारत में एक ओर अर्से से अटकी परमाणु बिजली परियोजनाओं में विद्युत का उत्पादन शुरू हो रहा है, वहीं निजी निवेश  से परमाणु ऊर्जा बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। प्रधानमंत्री ने गुजरात के सूरत जिले के तापी काकरापार में 22,500 करोड़ रुपए की लागत से बने 700-700 मेगावाट बिजली उत्पादन के दो परमाणु ऊर्जा संयंत्र 22 फरवरी 2024 को राष्ट्र  को समर्पित कर दिए हैं। ये देश  के पहले स्वदेशी  परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं। ये संयंत्र प्रतिवर्ष  लगभग 10.4 अरब यूनिट स्वच्छ बिजली का उत्पादन करेंगे। जो गुजरात में बिजली की आपूर्ति के साथ अन्य प्रांतों को भी बिजली देंगे। ये संयंत्र शून्य कार्बन उत्सर्जन की दिशा  में आगे बढ़ने की दृष्टि  से मील का पत्थर साबित होंगे। भारत सरकार के उपक्रम परमाणु ऊर्जा निगम ने मध्यप्रदेश में चार नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने की मंजूरी दी है। जल्दी ही ये संयंत्र नीमच, देवास, सिवनी और शिवपुरी में लगेंगे। सब कुछ सही रहा तो जल्दी ही इन परियोजनाओं पर काम षुरू हो जाएगा। इन संयंत्रों के शुरू हो जाने पर 1200 मेगावाट की अतिरिक्त बिजली पैदा होगी। भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता पिछले 10 साल में करीब दोगुनी हो चुकी है। 2031 तक इसके तीन गुना होने की उम्मीद है। 

हालांकि परमाणु ऊर्जा से उत्पन्न खतरों की आशंकाएं भी एकदम बेबुनियाद नहीं हैं। इसलिए परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। रूस के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में हादसे के बाद इस तरह की चिंताएं जरूरी हैं। क्योंकि वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद प्राकृतिक आपदाओं के सामने हम बौने हैं। जापान में महज दस सेकेंड के लिए आई सुनामी नामक विराट आपदा ने फुकुशिमा की वैज्ञानिक उपलब्धियों को चकनाचूर कर दिया था। सृष्टि को संजीवनी देने वाले तत्व हवा, पानी और अग्नि जब न्यूनतम मर्यादाओं की सीमा लांघकर भीषण विराटता रचते हैं तो दसों दिशाओं में सिर्फ और सिर्फ विनाशलीला का मंजर दिखाई देता है। इसलिए जरुरी है कि परमाणु रिएक्टर प्रदायक कंपनियों को कड़ी शर्तो के तहत मुआवजे के प्रावधान निर्धारित हों या फिर बीमा कंपनियों को दुर्घटना की स्थिति में क्षतिपूर्ति से जोड़ा जाए। 

     परमाणु बिजली संयंत्रों में ग्रेफाइट मॉडरेट के रुप में प्रयोग होता है। जिसमें पानी की बहुत थोड़ी मात्रा विलय करने से हाइडोजन और ऑक्सीजन के विखण्डन के समय बहुत अधिक तापमान के साथ उर्जा निकलती है। इस उर्जा का दबाव टर्बाइन को तीव्रतम गति से घुमाने का काम करता है। नतीजतन बिजली उत्पन्न होती है। रिएक्टरों के इस उच्चतम तापमान को एक सेंटीग्रेट तक काबू में रखने के लिए रिएक्टरों पर ठंडे पानी की निरंतर प्रबल धाराएं छोड़ी जाती हैं। हालांकि प्राकृतिक अथवा अन्य आपदा की स्थिति में ये परमाणु संयंत्र अचूक कंप्यूटर प्रणाली से संचालित व नियंत्रित होने के कारण खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। लेकिन इस अवस्था में विरोधाभासी स्थिति यह होती है कि जल से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का नाभिकीय विखण्डन तो थम जाता है, किंतु रासायनिक प्रक्रियाएं और भौतिक दबाव एकाएक नहीं थमते। गोया, जलधारा का प्रवाह बंद होते ही रिएक्टरों का तापमान 5000 डिग्री सेंटीग्रेट से बढ़कर 10000 डिग्री सेंटीग्रेड तक पंहुच जाता है। यह तापमान जीव-जंतुओं को तो क्या स्टील जैसी ठोस धातु को भी पल भर में गला देता है। इस लिहाज से इन संयंत्रों के संभावित खतरों को एकाएक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

प्रमोद भार्गव