अभिव्यक्ति की आजादी परिभाषित हो..

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

पहले सोशल नेटवर्किंग साईट फेसबुक पर दिवंगत शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा पर सवालिया निशान लगाने वाली महाराष्ट्र की दो लड़कियों शाहीन दाधा और रेनू श्रीवास्तव पर केस दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया फिर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे के खिलाफ कथित आपत्तिजनक फेसबुक कमेंट ने एक युवक को पुलिस हिरासत में पहुंचा दिया। हालांकि व्यापक आलोचना व सरकारी डंडे के जोर पर युवक तो रिहा हुआ ही; दोनों लड़कियों से केस भी वापस लिए जाने की सूचना है किन्तु हालिया घटनाक्रमों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते आजादी की सीमा को परिभाषित करने की जरुरत पर बल दिया है। महाराष्ट्र की इन दो लड़कियों की गिरफ्तारी का मामला तो जनहित याचिका के जरिए सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचा है जहां आईटी एक्ट की धारा ६६-ए के दुरुपयोग को रोकने और उसे अधिक विस्तृत बनाने की मांग की जा रही है। दिल्ली की एक छात्रा श्रेया सिंघल ने सर्वोच्च न्यायालय से आईटी एक्ट की इस धारा को निरस्त करने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि धारा में प्रयुक्त भाषा अस्पष्ट है और विस्तृत दायरे की बात करती है जिसकी वजह से इसका दुरुपयोग हो रहा है। याचिका के अनुसार इस धारा से नागरिकों को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। यह धारा संविधान के अनुच्छेद १४,१९ और २१ का उल्लंघन करती है। याचिका में मांग की गई है कि सर्वोच्च न्यायालय दिशानिर्देश जारी करे जिसमें पुलिस को सीआरपीसी की धारा ४१ व १५६(१) में मिले गिरफ्तारी के अधिकार को अनुच्छेद १९ (१) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के अनुकूल बनाया जाए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल जी वाहनवती को बुलाते हुए अन्य लोगों को भी पक्षकार बनाने की बात कही है। हालांकि अब तक इस पूरे मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सहित पश्चिम बंगाल, पांडिचेरी व महाराष्ट्र सरकार से ६ हफ़्तों में जवाब मांगा है और आदेश दिया है कि धारा ६६-ए के तहत गिरफ्तारी आईपीएस अधिकारी की मंजूरी के बिना न हो किन्तु कानूनी पक्ष से इतर देखें तो यह बहस भी उठ चली है कि सोशल साईट्स पर आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमाना क्या हो? क्या फेसबुक, ट्विटर इत्यादि हमारी मानसिक कुंठा को निकालने का साधन मात्र बन गए हैं या नेताओं की सार्वजनिक छीछालेदर से उन्होंने कानून का अपने हित में दोहन करना शुरू कर दिया है?

 

अप्रैल २०१२ को फेसबुक पर ममता बनर्जी का कार्टून पोस्ट करने को लेकर प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को पश्चिम बंगाल में जादवपुर यूनिवर्सिटी से गिरफ्तार किया गया वहीं मई २०१२ में मजदूर नेता के खिलाफ फेसबुक पर लिखने वाले एयर इंडिया के दो कर्मचारी केवीजे राव, मयंक शर्मा गिरफ्तार हुए और अंततः उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। सितंबर २०१२ को मुंबई में संसद और नेताओं पर कार्टून बनाने वाले असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने ही बदल दिए। देश का युवा वर्ग उनके समर्थन में उठ खड़ा हुआ। हालांकि असीम ने भी खुद की गिरफ्तारी को जमकर भुनाया और टेलीविजन पर छा गए। अक्टूबर २०१२ को केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्तिक चिदंबरम के खिलाफ टिप्पणी करने पर उद्योगपति रवि श्रीनिवासन गिरफ्तार हुए जिसका भी व्यापक विरोध हुआ। ऐसा नहीं है कि इन सभी गिरफ्तारियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ हो या इन सभी ने कुछ गलत किया हो किन्तु कहीं न कहीं ये सभी भावना के अतिरेक में बह गए और अभिव्यक्ति का बेजा इस्तेमाल इन्होंने स्वहित में कर लिया। लोकतंत्र में आप किसी की बात से या व्यवस्था से सहमत-असहमत हो सकते हैं मगर उसके लिए आपको सीमाएं लांघने की इजाजत तो कतई नहीं दी जा सकती। असीम त्रिवेदी के मामले में यही हुआ था। खैर बड़ा सवाल यह है कि क्या धारा ६६-ए को समाप्त करने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यापक दुरुपयोग नहीं होगा? क्या बोलने की आजादी यह हक़ देती है कि कोई भी किसी भी मामले में संज्ञान लेते हुए अपने विवादास्पद विचार दे वह भी सार्वजनिक रूप से? यह सच है कि कुछ मुद्दे इतने विवादित होते हैं कि पुलिस को इनमें हस्तक्षेप करना ही पड़ता है। फिर यदि सभी मामलों में हुई गिरफ्तारियों को देखें तो कमोबेश सभी ने किसी न किसी नेता के विरुद्ध मोर्चा खोला है। यदि पुलिस इसमें कार्रवाई नहीं करती तो दोनों पक्षों में से किसी एक का अहित निश्चित था। दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी एक ऐसी महीन रेखा है जिसका उल्लंघन न तो परिभाषित है न ही उस पर रोक लगाई जा सकती है। हां; जिस तरह से इसका बेजा इस्तेमाल क्षणिक प्रसिद्धि हेतु किया जा रहा है उससे संसदीय लोकतंत्र की गरिमा का ह्रास तो हुआ ही है। असहमति के स्वर जब जुबानी हमले की सीमा को लांघ चरित्र हनन तक पहुच जाएं तब किसी का किसी को तो उसके नकारात्मक परिणाम भोगने ही होंगे। दशकों से चली आ रही इस लड़ाई का यूं आसान पटाक्षेप तो नहीं होगा। अब देखिए; जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया है तो क्या निर्णय आता है? हां; मेरा स्वयं का मानना है कि अभिव्यक्ति की आजादी को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है ताकि इन व्यर्थ के विवादों को देश हित का मुद्दा न बनाया जाए।

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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  1. सबसे बड़ा सवाल ये है के जब ठाकरे जैसे नेता कानून के खिलाफ बोले तब पुलिस को सांप क्यों सूंघ जाता है?

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