भयावह लगने लगी है आने वाले कल की तस्वीर

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-लिमटी खरे

दुनिया की आबदी जिस द्रुत गति से बढ रही है, उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आने वाले समय की कल्पना मात्र से रोंगटे खडे हो रहे हैं। दुनिया के पास महज बीस साल का तेल और सौ साल तक उपयोग करने के लिए कोयले का भंडार बचा है, समय रहते अगर इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो हमारी आने वाली पीढियां आधुनिकता का लबादा तो ओढ सकेंगी पर वे जीवन का निर्वाह आदिकाल के संसाधनों में ही करने को मजबूर होंगी। पेट्रोलियम के भंडार के समाप्त होते ही वाहनों के पहिए थम जाएंगे। सुपर सोनिक विमान का अत्याधुनिक वर्जन तो इजाद कर लिया जाएगा पर उसे किससे उडाया जाए यह विकराल समस्या होगी। हवा में तैरने वाली कार या बाईक तो बन जाएंगी पर उन्हें चलाया किससे जाए यह सबसे बडी समस्या होगी। आलम यही होगा जिस तरह अस्सी के दशक की शुरूआत तक शहरों में लगने वाले मेले ठेले, प्रदर्शनी आदि में लोग खडी मोटर सायकल पर बैठकर फोटो खिचाया करते थे। कहने का तातपर्य तब लोगों की खरीदने की ताकत कम थी, पर आने समय में ताकत होगी पर किस चीज से उसे चलाया जाए यह सबसे बडी समस्या होगी।

तेल के मामले मेें ही अगर देखा जाए तो मध्य एशिया में विश्व भर का तकरीबन साठ फीसदी तेल भंडार है। एनजी वॉच गु्रप 2007 के प्रतिवेदन पर नजर डाली जाए तो यहां जो तेल शेष है वह आज की आबादी और साधनों के मुताबिक तीस वर्षों के लिए ही है, यह आबादी जैसे ही बढेगी तेल की खपत बढते ही भंडार तेजी से समाप्त होता जाएगा। भारत गणराज्य के परिदृश्य में अगर देखा जाए तो 2005 के मुकाबले आने वाले दस वर्षों बाद अर्थात 2020 में इसकी जरूरत तीन गुना बढ चुकेगी। वर्ष 2009 के आंकडों पर अगर गौर फरमाया जाए तो भारत में तेल की खपत 2 करोड, 72 लाख 22 हजार बेरल प्रतिदिन है। वर्ल्ड एनर्जी के 2007 के प्रतिवेदन में साफ कहा गया है कि इस हिसाब से अगर खपत का अनुमान लगाया जाए तो तेल महज बीस सालों के लिए ही शेष बचा है।

कोयले का भंडार भी कमोबेश यही इशारा कर रहा है। भारत की खुले आसमान तले (ओपन कास्ट) और जमीन के अंदर वाली (अंडर ग्राउंड) खदानों में आने वाले सौ सालों के लिए पर्याप्त कोयले का भंडार है। भारत का रिजर्व कोयला भण्डारण लगभग 197 बिलियन टन है। कोयले के भण्डारण में भारत का स्थान विश्व में चौथा है। वैश्विक परिदृश्य में अगर देखा जाए तो वर्ल्ड एनर्जी काउंसिल की 2007 की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयले के दो तिहाई रिजर्व स्टाक का भण्डारण अमेरिका, चीन, रूस, और आस्ट्रेलिया में ही है। कोल ईंधन का प्रमुख इस्तेमाल बिजली का उत्पादन ही माना जाता है। चालीस फीसदी कोयला इसमें खर्च किया जाता है।

यूरेनियम के मसले पर अगर गौर फरमाया जाए तो विश्व भर में होने वाली यूरेनियम की खपत का आधा हिस्सा मुख्यत: कनाडा, कजाकिस्तान और आस्ट्रेलिया से ही आता है। आंकडों पर बारीक नजर डाली जाए तो पता चलता है कि 2007 में महज ढाई प्रतिशत बिजली नाभकीय उर्जा से प्राप्त हुई थी। वर्तमान में भारत गणराज्य में 17 नाभिकीय रिएक्टर चार हजार एक सौ बीस मेगावाट बिजली का उत्पादन करते हैं। कहते हैं कि रामसेतु के नीचे भी यूरेनियम का अथाह भण्डार छिपा हुआ है।

अब सवाल यह उठता है कि प्रकृति द्वारा अपने आंचल में छिपाई इस बेशकीमती संपदा के समाप्त होने के उपरांत क्या किया जाएगा? इसका जवाब यह है कि प्राकृतिक तौर तरीकों को ही हमें अंगीकार कर इसमें ही भविष्य तलाशना होगा, बजाए समाप्त होने वाले भण्डारों के! वैज्ञानिक इस दिशा मे ंप्रयासरत अवश्य हैं पर विश्व की आवाम इस दिशा में न तो संवेदनशील ही है और न ही उसे जागरूक किया जा रहा है।

हवा, पानी और सूर्य तीनों चीजें न कभी समाप्त होंगी और न ही विलुप्त, चाहे कितने भी प्रयास कर लिए जाएं। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि हम इनके दोहन और सही उपयोग के बारे में सोचें और लोगों को जगरूक बनाएं। शीत ऋतु में आज भी भारत गणराज्य में निन्यानवे फीसदी इलाकों में नहाने के पानी को गरम करने के लिए बिजली, कोयला या लकडी का उपयोग किया जाता है। वेकल्पिक स्त्रोतों के बारे में लोगों का ध्यान नहीं है।

उर्जा का सबसे बडा स्त्रोत हमारा सूर्य है। इस दिशा में सोचना बहुत ही आवश्यक है। सौर उर्जा का सही दिशा में उपयोग कर हम तेल और कोयले के भण्डार को सालों साल सुरक्षित रख सकते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर भारत गणराज्य जो कि उष्णकटिबंदीय है यहां पांच हजार ट्रिलियन किलोवाट घंटा सूर्य के प्रकाश के एक प्रतिशत हिस्से को भी परिवर्तित कर सकें तो भारत की जनता को पूरे साल उर्जा की कमी महसूस ही नहीं होगी। तब अघोषित बिजली कटौती से लोगों को पूरी तरह निजात मिल सकती है। सौर उर्जा के मामले में अगर वैश्विक परिदृश्य देखा जाए तो विश्व में धरती की सात वर्ग मीटर सतह को सूर्य की 29 किलोवाट उर्जा हर समय मिलती ही रहती है। सूर्य प्रतिमिनिट 2 किलोवाट घंटा उर्जा प्रतिवर्गमीटर धरती को देताा है।

इसके बाद बारी आती है हवा की। हवा को बहने से कोई रोक नहीं सकता है, हवा का उपयोग सही दिशा में करने की महती आवश्यक्ता है आज के समय में। ग्लोबल विण्ड एनर्जी काउंसिल के अनुसार अगर हवा संबंधी नीतियों को सही तरीके से अपना लिया जाए तो इससे 2030 तक 29 फीसदी बिजली की आपूर्ति सिर्फ वायू के सही उपयोग से सुनिश्चित की जा सकती है। भारत में स्थापित पवन उर्जा सेक्टर की क्षमता 10 हजार 242 दशमलव 3 मेगावाट है। भारत में लगे इन संयंत्रों की क्षमता छ: फीसदी है पर उत्पादन महज एक दशमलव छ: फीसदी ही है। विश्व में भारत का स्थान इस मामले में पांचवां है।

कल कल बहते जल स्त्रोतों और बारिश के पानी को अगर सही दिशा में उपयोग कर लिया जाए तो इस समस्या से काफी हद तक निजात पाई जा सकती है। भारत में हाईड्रो आधारित प्लांटस के लिए काफी उपजाउ माहौल है। भारत सरकार ने इस हेतु अलग से मंत्रालय भी बनाया है, पर नतीजा ढाक के तीन पात ही है। एशिया में पहली मर्तबा दार्जलिंग और शिमला में हाईड्रो पावर प्लांट की स्थापना की गई थी। वर्ष 2008 तक भारत गणराज्य में इंस्टाल क्षमता 36 हजार 877 दशमलव सात छ: थी। वहीं दूसरी ओर अगर सारे देशों में बहने वाले पानी का दोहन किया जाए तो हाईड्रोपावर प्लांट हर साल सोलह हजार पांच सौ टेरावॉट उर्जा का उत्पादन करने में सक्षम होंगे। विश्व में चीन ने इसका सबसे अधिक और अच्छा दोहन का उदहारण प्रस्तुत किया जा रहा है, जहां हर साल पानी से दो हजार 474 टेरावाट उर्जा उत्पादन किया जा रहा है।

इन आंकडों पर अगर बारीकी से गौर फरमाया जाए तो निश्चित तौर पर स्थिति आने वाले समय में बहुत भयावह हो सकती है। अभी समय है, इस संकट को जल्द ही अलविदा कहने के लिए यह माकूल समय है। विश्व भर के देश सर जोडकर इस समस्या के बारे में सोचें। विश्व में सोचा जाए अथवा नहीं पर भारत गणराज्य को तो इस मामले में आज से ही आत्मनिर्भर होने के प्रयास आरंभ करना ही होगा, वरना आने वाली पीढियां जो संकट भोगेंगी और इतिहास सुनहरा इतिहास भी उनके सामने होगा, किन्तु उनके हाथों में अंधकारमय भविष्य ही होगा, उन परिस्थियों में वे हमें याद तो करेंगी पर बहुत अच्छे तरीके और सम्मान के साथ तो कतई नहीं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हमें स्वार्थी समझा जाएगा, हमने अपने जीवनकाल में तो सुख भोग लिए किन्तु आने वाली पीढियों के लिए दुश्वारियां ही पैदा करते गए. . .।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

1 COMMENT

  1. वाकई स्तिथि बहुत गंभीर है. उर्जा के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेहद ज्यादा उपयोग हो रहा है.
    वैकल्पिक उर्जा को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जा रहा है. प्रकृति ने जल और वायु के रूप में हमें उर्जा का अक्षय भंडार दिया है. जरुरत है उसे समुचित उपयोग करने की.
    सरकार ने वेकल्पित उर्जा का डिपार्टमेंट और वेबसाईट बना कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली है. आम व्यक्ति को इससे कुछ भी मिलता नहीं है, सरकार तो अमेरिका का कचरा खरीदने में ज्यादा उत्साहित है.

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