कविता

निष्फल मुस्कान

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“सोच की अनुपस्थिति

जब ओठों पर टिक जाती है,

तो हँसी—

हृदय की नहीं,

खालीपन की भाषा बन जाती है।

विचारहीन मुस्कान

आईने में चमकती है,

पर आत्मा के भीतर

अंधेरे का विस्तार करती है।

जो प्रश्न नहीं पूछता,

जो पीड़ा पर ठहरकर

मनन नहीं करता—

वह जीते हुए भी

जीवन से अनुपस्थित रहता है।

ऐसी हँसी

न श्रम का फल है,

न संघर्ष की संतान;

वह तो आदत बन चुकी

एक निष्फल मुखौटा है।

मनुष्य

जब सोचना छोड़ देता है,

तब वह स्वयं को

पुनर्जन्म नहीं,

पाझ़जन्म सौंप देता है—

जहाँ चेतना मरती है

और देह चलती रहती है।

आओ,

हँसी से पहले

विचार को जन्म दें;

क्योंकि सोच से उपजी पीड़ा भी

उस मुस्कान से श्रेष्ठ है

जो मनुष्य को

निष्फल बना दे।”