14 साल का उत्तराखंड- क्या खोया क्या पाया

 uttrakhandदेवभूमि के नाम से मशहूर उत्तराखंड को बने 14 साल हो चुके हैं..इन 14 साल में इस छोटे से पहाड़ी राज्य ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं…राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में घिरे राज्य में विकास की तमाम कोशिशें भी हुई हैं…केंद्र सरकार ने विकास के लिए अपार धनराशि दी तो राज्य सरकारों ने भी विभिन्न निजी डेवलपर्स को उत्तराखंड में विकास के लिए न्योता दिया…लेकिन विकास के नाम पर यहां के संसाधनों का जमकर दोहन हुआ, नदियों और जंगलों पर अतिक्रमण हुआ तो जाहिर तौर पर खामियाजा यहां की जनता को भुगतना पड़ा…हमारी जीडीपी ने रफ्तार पकड़ी लेकिन बेरोजगारी की दर कम नहीं हुई, स्वास्थ्य सेवाएं उम्मीद के मुताबिक दुरस्त नहीं हो सकी..पिछले साल राज् मे भीषण आपदा आई जिससे से विकास का गाड़ी पटरी से उतर गई…पिछले 14 साल में राज्य ने बहुत सी ऊंचाइयो को छुआ है लेकिन अब भी कई ऐसे मसले हैं जहां हम काफी पीछे रह गए

 

14साल में क्या हासिल

18 फीसदी तक पहुंची थी विकास दर

राज्य के गठन के समय विकास दर 1.19 के करीब थी जो 2013-14 में 16.68 फीसदी के करीब रही…2009-10 में यह अपने रिकॉर्ड 18 फीसदी के स्तर को पार कर चुकी है..राज्य में औद्योगिक विकास दर 16 फीसदी और सर्विस क्षेत्र में विकास दर 15.2 फीसदी पहुंच गई जो राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है..12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत राज्य की औसत विकास दर 11 फीसदी रहने का अनुमान है

राज्य गठन के समय राजस्व मात्र 8 सौ करोड़ था जो 2012-13 में पहुंचकर33 सौ करोड़ रुपए हो गया था…2005 में वैट लागू करके उत्तराखंड की आमदनी में जबरदस्त इजाफा हुआ…फिलहाल करीब 70 फीसदी राजस्व वैट से ही जुटता है

35 हजार करोड़ का पूंजी निवेश

गठन के बाद ही राज्य में करीब 35 हजार करोड़ का पूंजी निवेश हुआ था..14 सालों में औद्योगिक क्षेत्र में विकास हुआ है.. पूंजी निवेश में लगातार इजाफा हुआ है, इससे राज्य में 2 लाख नौकरियां ईजाद हुई ,,,,हालांकि निवेश की रफ्तार अब धीमी हो गई है….निवेशकों को लुभाने के लिए सिडकुल फेज1 और फेज 2 योजनाएं शुरू की गई लेकिन बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के चलते निवेशक मुंह मोड़ने लगे

ऊर्जा प्रदेश का सपना साकार

ऊर्जा प्रदेश का सपना साकार होता नजर आ रहा है…14 साल में उत्तराखंड के करीबकरीब हर गांव में बिजली पहुंच गई है…हालांकि कुछ गांवों में अभी सप्लाई शुरू नहीं हो सकी है..आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में 15745  गांव हैं जिनमें से  99.3 फीसदी यानि 15638 गावों में बिजली पहुंची है…107 गांव अब भी बिजली से महरूम हैं…बिजली उत्पादन में भी हम बहुत आगे पहुंच गए हैं…2000 में उत्तराखंड से करीब 800मेगावाट का उत्पादन होता था जो बढ़कर करीब 3618 मेगावाट हो गया है…हालांकि हमारा लक्ष्य और क्षमता 27 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन करना था…इस हिसाब से हम अब भी काफी पीछे हैं

पर्यावरण

विकास की अंधी दौड़ में कंकरीट के जंगल खड़े होते गए …लेकिन उत्तारखंड में वनों को लेकर संजीदगी बरकरार रही…14 साल में राज्य का फॉरेस्ट कवर 70 फीसदी तक पहुंच गया है..एक उल्लेखनीय पहल करते हुए उत्तराखंड सकल पर्यावरणीय उत्पाद को विकास का मानक बनाने वाला पहला राज्य भी बना…हॉर्टिकल्चर और वनों के विकास के लिए अलग से यूनिवर्सिटी स्थापित की गई है…उत्तरकाशी-गंगोत्री इको सेंसिटिव जोन घोषित करना, राज्य में कई बड़ हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को बंद करना और इको सेंसिटिव जोन में कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को लटकाना पर्यावरण बचाने की दिशा में अहम कदम साबित हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं इससे सूबे का विकास प्रभावित जरूर होगा

शिक्षा-साक्षरता सूबे की पहचान

राज्य में उच्चशिक्षा का स्तर भले ही उम्मीद क मुताबिक नहीं है, लेकिन इस दिशा में कई प्रयास किए जा रहे हैं… 14 साल में सूबे में कई नए विश्वविद्यालय खुले,  पिछले वित्तवर्ष में देहरादून और अल्मोड़ा में दो नए मेडिकल कॉलेज खोले गए..ऋषिकेश में एम्स शुरू कर दिया गया…काशीपुर में आईआईएम की पढ़ाई शुरू हुई, एक तरफ युवाओं में कौशल विकास की कई कोशिशें की गई हैं तो दूसरी तरफ बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए साइकिल वितरण और एफडी जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं

साक्षरता में भी उत्तराखंड आगे है…2011 की जनगणना में राज्य की सक्षरता दर 79.63 फीसदी थी जो राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है…

सेहत में सुधार

शिशु मृत्यु दर कम करने में राज्य ने काफी प्रयास किया है…2000 में यह 52 था जो घटकर 2013 में 30 पहुंच गया…जबकि राष्ट्रीय औसत 40 का है…इस हिसाब से पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली रुद्रप्रयाग जैसे पहाड़ी जिलों में शिशु मृत्युदर में भारी कमी आई है..ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल एंबुलेंस सेवा 108 पहाड़ की जीवनरेखा साबित हो रही है..हालांकि पहाड़ी इलाकों में डॉक्टरों की भारी कमी के चलते लोग बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं ले पा रहे हैं…लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में नियुक्ति की खास योजना के जरिए इस समस्या पर काबू पाने की कोशिश की गई

वार्षिक प्लान

राज्य गठन के समय वार्षिक प्लान लगभग 2 हजार करोड़ था… जो अब बढ़कर 8 हजार 8 सौ करोड़ हो गया …हालांकि चिंता की बात ये है कि इस बार केंद्र सरकार ने राज्य के वार्षिक प्लान में बढ़ोतरी न करके जस का तस रखा है..यहां एक और बात का जिक्र करना होगा कि 2002 में राज्य को स्पेशल कैटेगरी का दर्जा मिला जिसके तहत राज्य की विकास योजनाओं पर 90 फीसदी पैसा केंद्र का और महज 10 फीसदी राज्य सरकार का खर्च होना था…लेकिन यह भी दुर्भाग्य रहा कि करीब 36 प्रोजेक्ट पर पैसा इस अनुपात में खर्च नहीं हुआ…जिससे राज्य सरकार क खजाने पर 700 करोड़ रुपए का बोझ पड़ा

 

चुनौती अभी बाकी है

आपदा प्रबंधन

आपदा प्रबंधन उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या रह है…पिछले कुछ सालों में पहाड़ी जनपदों में आपदा से भारी नुकसान हुआ है…बावजूद इसके राज्य के लिए ठोस आपदा प्रबंधन नीति नहीं बनी है…पिछले साल आई भयंकर आपदा से भी हमने सबक नहीं सीखा है….आपदा के बाद पुनर्निर्माण और पुनर्वास की योजना को धरातल पर लाने की बजाए, सियासी दल चारधाम यात्रा को शुरू करने और इस पर सियासत करने से बाज नहीं आ रहे हैं..आपदा से बुरी तरह तबाह हुए पर्यटन उद्योग को पटरी पर लाने के लिए ठोस नीति नहीं बनी…एसडीआरएफ और स्थानीय संस्थानों की भागीदारी जरूर बढ़ी है, लेकिन भविष्य में केदारनाथ जैसी भीषण आपदा से निपटने के लिए अभी भी तैयारियां शुरू नहीं की गई हैं…सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है

राज्य में सरकार ने आपदा के लिहाज से संवेदनशील 275 गांव चिन्हित किए हैं जिन्हें विस्थापित करने के साथ उनका पुनर्वास भी करना है… इन गांवों के विस्थापन के लिए करीब 500 करोड़ रुपए की मांग है जो अब तक अधर मे लटकी है….हैरानी इस बात की है जब योजना आयोग ने पुनर्वास और विस्थापन की कार्ययोजना मांगी तो राज्य सरकार देने में असमर्थ रही

पलायन से वीरान होते पहाड़

पर्वतीय प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि पहाड़ों से रोजी-रोटी की तलाश में वहां की आबादी बढ़ी संख्या में मैदानों और दूसरे राज्यों में जा रही है.. सीमित संसाधनों और दिशाहीन विकास के चलते सभी पहाड़ी जनपद पलायन की जद में हैं…एनएसएसओ की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक 1000 में से 350.71 प्रदेशवासी अच्छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में दूसरे राज्यों में जा चुके हैं, जबकि 7.014 फीसदी लोग दूसरे देशों की ओर पलायन कर चुके हैं

जनसंख्या के आंकड़े भी खाली होते गांवों की कहानी बयां करते हैं…2011 की जनगणना के मुताबिक पौड़ी और अल्मोड़ा जैसे पर्वतीय जिलों में नेगेटिव जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई,..अल्मोड़ा में -1.73 % और पौड़ी में -1.51जनसंख्या वृद्धि दर रही जबकि पूरे सूबे की जनसंख्या में महज 5 फीसदी की बढ़ोतरीरही…इसके उलट 2011 में राष्ट्रीय जनसंख्या में वृद्धि की दर 17 फीसदी थी

नियमित पेयजल की समस्या के साथ डॉक्टर और मास्टर पहाड़ पर काम करने से कतराते हैं जिससे वहां के लोगों को बेहतर शिक्षा और स्वस्थ्य के लिए मैदानी इलाकों का रुख करना पड़ता है

पहचान को तरसती भाषाएं

देश के कई छोटे राज्यों में अपनी भाषाएं हैं…जिनसे उनकी पहचान है…देश के कई हिस्सों में बहुत से ऐसे समुदाय हैं जिनकी जनसंख्या 3 से 5 लाख के बीच है फि भी उनकी भाषा को राष्ट्रीय पहचान मिली है…उत्तराखंड की करीब 40 लाख की आबादी कुमाउंनी भाषा और करीब 40 लाख से ज्यादा की आबादी गढ़वाली भाषा का पयोग करती है…राज्य के बाहर रहने वाला समुदाय भी अपनी भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं…बावजूद इसके गढ़वाली या कुमाउंनी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने की पहल अब तक नहीं हुई है..समृद्ध भाषाएं होने के बावजूद अब तक राज्य की पहचान बिना भाषा वाले राज्य की है

युवाओं को रोजगार के अवसर

राज्य में रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए अब तक कोई ठोस नीति नहीं बनी…राज्य में करीब 6.6 लाख पंजीकृत बेरोजगार हैं, लेकिन बेराजगारी दर राज्य में 4.9 फीसदी है, लेकिन यह संख्या लगातार बढ़ रही है

हालांकि सरकार ने वीर चंद्र सिंह पर्यटन स्वरोजगार योजना और अन्य स्वरोजगारों को बढ़ावा देने के लिए ऋण योजनाएं लागू की हैं…

राजनीतिक अस्थिरता

छोटे से पहाड़ी राज्य उत्तराखंड मे सियासी उथल पुथल एक बड़ी समस्या है…यहां पिछले 14 साल में दो ही राष्ट्रीय पार्टियों का शासन रहा है…बावजूद इसके राज्य सियासी उलटफेर से जूझता रहा है..बीजेपी और कांग्रेस के भीतर नेताओं की आपसी कलह का ही नतीजा है कि 14 साल में राज्य ने 8 मुख्यमंत्री देखे हैं…इनमे से एन डी तिवारी पूरे पांच साल शासन चलाने में कामयाब रहे थे…दरअसल एक ऐसा ट्रेंड सा चल पडा है कि सूबे का मुखिया पार्टी हाईकमान द्वारा थोपा जाता है, वह जनता का चुना गया विधायक नहीं होता…और जब जनता का चुना विधायक सीएम बनता है तो उसके खिलाफ पार्टी में कई साजिशें शुरू हो जाती हैं…बार बार निजाम बदलने के चलते सूबे की विकास योजनाएं बुरी तरह प्रभावित हुई हैं…राज्य की कल्याण के लिए कोई ठोस फैसला सियासी उलटफेर में उलझ कर रह जाता है…और सियासी पार्टियों को बहुमत देने के बावजूद खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है

पर्यटन नीति लागू नहीं

पिछले 14 साल में पर्यटन सूबे की आमदनी का प्रमुख जरिया बना रहा…2013-14 मे राज्य में 23 हजार करोड़ का पर्यटन व्यवसाय हुआ…लेकिन बावजूद इसके सूबे का दुर्भाग्य ये है कि 14 साल बाद भी राज्य में ठोस पर्यटन नीति लागू नहीं है..पर्यटन के प्रति उदासीन रवैये के चलते टूरिज्म स्टेट की जीडीपी को भी घाटा हो रहा है…आईरटीआई से मिली जानकारी कते मुताबिक पर्यटन के प्रति गंभीरता न होने से राज्य की आमदनी करीब 10 हजार करोड़ घट गई…इसमें पिछले साल आई आपदा का भी बडा हाथ है

तीर्थाटन के अलावा साहसिक पर्यटन और नए पिकनिक स्पॉट चिन्हित करने पर भी सरकार को ध्यान देना जरूरी है..हालांकि मौजूदा सरकार ने टिहरी झील में ग्रामीण पर्यटन, रॉक क्लाइंबिंग, रोपवे, एंगलिंग, माउंटनियरिंग सहित विभिन्न पर्यटन गतिविधियां संचालित करने की पहल जरूर की है

रूठ गई खेती

पहाड़ी इलाकों में अधिकतर लोग खेत पर ही निर्भर हैं,,,लेकिन लगता है कि खेती अब रूठ सी गई है…अनाज का उत्पादन खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार घटता जा रहा है…राज्य में चार एग्री एक्सपोर्ट जोन चिन्हित होने के बावजूद तराई क्षेत्रों में भी गन्ने की पैदावार घटी है…सिचांई के पर्य़आप्त साधन न होना भी इसका कारण है…बागवानी से राज्य को विशेष फायदा हो सकता है कि हिमाचल की तर्ज पर इसे विकसित करने के प्रयास नहीं किए गए हैं…पहाड़ों में बेशकीमती जड़ी बूटियों का दोहन किया जा रहा है जिससे आयुष प्रदेश के सपने को भी ग्रहण लग रहा है…आयुष ग्राम स्थापित करने की योजना नाकाम रही

 

NOTE:  All data based on The report of Planning Commission (2013-14) and Budgetary Documents, Various research papers

 

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