गांधी वध और बलिदानी गोडसे

गांधी वध धर्म और राष्ट्र रक्षार्थ एक राजनैतिक वध था…उस समय साम्प्रदायिक समस्या के संबंध में गांधी जी की नीति अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुई थी। क्योंकि इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि भारत के मूल निवासियों पर बढ़ती आक्रान्ताओं की आक्रामकता में गांधी जी की उदासीनता उनका अप्रत्यक्ष समर्थन करती थी। वैसे भी अनेक अवसरों पर गांधी जी मुसलमानों के हिंसक स्वभाव को उचित मानते थे और हिन्दुओं को शांत रहकर उनके सब कुछ अत्याचार सहने का ही परामर्श देते थे। जहां एक ओर मुसलमान  “सीधी कार्यवाही” (डायरेक्ट एक्शन) के नाम पर हिन्दुओं का नृशंस संहार करके पाकिस्तान बनवाने का दबाव बना रहे थे वहीं हिन्दू समाज महात्मा गांधी की अहिंसा के सिद्धांत और “देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा” के अंध भरोसे निश्चिंत था l इतना ही नहीं भारत विभाजन के बाद गांधी ने जिन्ना की मांग कि “पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए भारत के बीचो बीच एक मार्ग, जिसमें दायें और बायें दोनों ओर मिला कर कुल 23 किलोमीटर चौड़ा गलियारा हो और उसमें केवल मुस्लिम बस्तियां हो”  को भी गांधी स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये थे l 

वस्तुतः इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि उनके जीवन की बलि ले ली जाय। जबकि विभाजन के कारण पाकिस्तान से आये निर्वासितों पर हुए दर्दनाक अत्याचारों के कारण उनकी भावनाएं बहुत क्षुब्ध थी। निर्वासितों के रिस्ते घावों पर मलहम लगाने वाला कोई नही था। लेकिन उन लाखों पीड़ितों की चीख-पुकार चाहने पर भी समाचार पत्रों में व्यक्त न हो सकी जबकि सम्पूर्ण देश के वायुमंडल को वह क्षुब्ध करती जा रही थी।पीड़ित जनमानस के मुख से गाँधीजी के लिए बदुआए निकलना स्वाभाविक हो गया था : गांधी मरता है तो मरने दो, उसके कारण हमारा सर्वस्व लुट गया है, इस प्रकार के उदगार सार्वजनिक स्थानों पर असंख्य कंठों से बरबस निकल पड़ते थे। सामान्यतः सहन शीलता की भी कोई सीमा होती है परंतु ऐसा विचार करना कि कायर बन कर अपमानजनक जीवन जीने से अच्छा है कि धर्म के लिए बलिदान हो जायें, साधारण नहीं थाlअतः उस समय की भयावह परिस्थितियों में जो कार्य नाथूराम गोडसे ने अपने स्वस्थ मन स्थिति में किया वह सम्भवतः उस समय व भविष्य के भारतीय सँस्कृति के अनुसार सर्वथा उचित ही था।

“त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥”

अर्थात् 

“कुल की रक्षा के लिए एक सदस्य का बलिदान दें ,गाँव की रक्षा के लिए एक कुल का बलिदान दें, देश की रक्षा के लिए एक गाँव का बलिदान दें, पर आत्मा की रक्षा के लिये तो पृथ्वी तक को त्याग देना चाहिये।”

गांधी की महिमा से पूर्णतः परिचित होने के उपरांत भी गांधी जी के जीवन को पूर्ण विराम देने के पूर्व नाथूराम गोडसे की मनः स्थिति क्या रही होगी और उन्होंने ऐसा क्यों किया इसके लिए उनके उस लिखित बयान को समझना होगा जो उन्होंने न्यायालय में दिया था। नाथूराम गोडसे ने न्यायालय में अपने विवाद की सुनवाई के समय महाभारत के आख्यान को उद्धृत करते हुए कहा था कि “जैसे अर्जुन ने रण भूमि में भी अपने गुरु द्रोणाचार्य के पैर छुए और आशीर्वाद लिया फिर आगे बढें और युद्ध किया___उसी प्रकार मैंने भी गाँधीजी के अच्छे कार्यों के प्रति उनको नमन किया और मैने तो उनके पाप के लिए उनका वध भी किया !”  महाभारत में धनुर्धारी अर्जुन ने जब अपने  पितामह भीष्म का धर्म की रक्षा के लिये वध किया और गोडसे ने देश की रक्षा के लिये गांधी का वध किया तो क्या बुरा किया?

धर्मानुसार किसी का जीवन नष्ट किया जाय तो उसे वध कहा जाता है और इसके विपरीत हो तो उसे हत्या कहते है। हुतात्मा गोडसे ने अपने अंतिम कथन में यह स्पष्ट किया था कि उन्होंने गांधी जी का वध किया न की हत्या। उनका वह कथन विस्तार से “गांधी वध क्यों”….एक पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। निसन्देह योगीराज श्री कृष्ण के प्रवचन व उपदेश तो प्राय: सभी सुन कर धर्म लाभ का अनुभव करते हैं परंतु अमर बलिदानी हुतात्मा नाथूराम गोडसे ने  गीता उपदेश को आत्मसात किया और उसका चिंतन करने के बाद ही महात्मा कहे जाने वाले मोहनदास कर्मचंद गांधी का वध किया। एक प्रकार से गांधी वध हालाहल पान था। गांधी जी ने जिस पीढी को प्रेरित किया था, गोडसे भी उसी पीढी के थे। सम्पूर्ण देश में गांधी जी के श्रद्धालु असंख्य थे और उनके वध करने का अर्थ होता कि उनके श्रद्धालुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाना और उनके आक्रोश को सहन करना।

नाथूराम गोडसे न तो विस्थापित थे और न ही उनका गांधी जी के प्रति कोई व्यक्तिगत वैर था। ऐसे में गांधी वध का कठोर निर्णय लेने में उनकी स्वयं की भावनाएँ भी उनको अवश्य व्यथित कर रही होगी। 

कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपने गुरुजन व परिजन को देखकर जो स्थिति अर्जुन की हुई थी कुछ कुछ ऐसी मनःस्थिति में नाथूराम गोडसे भी व्यथित हुए होंगे। ऐसा सोचा जा सकता है। लेकिन किसी भी अनिश्चय की स्थिति में धर्म की रक्षा में भारतीय धर्म शास्त्रों का ज्ञान निश्चित ही बड़ी भूमिका निभाता है।अपने प्राण देने पड़े या संपूर्ण विश्व की निंदा झेलनी पड़े, कुछ भी हो गांधी जी का अस्तित्व मिटाना ही होगा, इस पराकाष्ठा पर पहुँचे संकल्प का कोई तो विशेष कारण रहा ही था।इसलिए यह वध रिवाल्वर हाथ में लेकर गोलियां चला देना जैसी सहज और सामान्य घटना नही थी। वधकर्ता नाथूराम गोडसे के मन का द्वंद और उनके विशेष  लिखित विस्तृत कथन को पढ़ कर यह समझा जा सकता है कि गांधी वध सहज नही बल्कि इतिहास की एक विशिष्ट घटना बन चुकी थी/है। लेकिन यह एक विडम्बना है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस ने सत्ता में आकर गांधी के सत्य व अहिंसा एवं न बोल बुरा,न देख बुरा और न सुन बुरा आदि का इतना अधिक महिमा मंडन करके देशवासियों को उन क्रांतिकारियों को भूल जाने दिया जिनके बलिदानों से हमें स्वतंत्रता मिली थी। यह दुखद है कि क्रान्तिकारियों के अमर बलिदान की गाथाओं से भारतीय समाज में देशप्रेम का जो बीजारोपण होता वह न हो सका।

राष्ट्रधर्मिता के पालन में राष्ट्रधर्म की रक्षार्थ गांधी वध जैसी घटनाएं अत्यंत दुर्लभ है।अतः हुतात्मा नाथूराम गोडसे को आतंकवादी बताने वालों के विरुद्ध दिया गया मत कि वे “देशभक्त थे, है और रहेंगे” सर्वथा उस काल और परिस्थिति के अनुकूल है। भारत के राष्ट्रवादी समाज को धर्म रक्षार्थ उनसे प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिये। राजनीति की पवित्रता को बनाये रखने के लिए राष्ट्र विरोधी शक्तियों के षडयंत्र में फंसे हुए अज्ञानी, भ्रमित, स्वार्थी और चापलूस तत्वों का राजनैतिक हस्तक्षेप राष्ट्र के लिए घातक बने उससे पूर्व उसे निष्प्रभावी करना भी चाणक्य नीति का मुख्य सूत्र है l

हमारी सनातन संस्कृति अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध सदैव संघर्ष का ही आह्वान करती रही है। भारत भूमि पर पापियों का नाश करने वाले श्री राम व श्री कृष्ण आदि ईश्वर तुल्य महापुरुषों द्वारा किये गए वध धर्मानुसार स्वागत योग्य ही माने जाते आये है औऱ रहेंगे। स्वतन्त्र भारत में हुतात्मा नाथू राम गोडसे का बलिदान भी अमर रहेगा l

विनोद कुमार सर्वोदय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,378 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress