जवानी के दिन हमने यूँ ही गँवाए,
न मौजें उड़ाईं, न पैसे कमाए।
न आँखों में डूबे, हँसे, खिलखिलाए,
न वादी में घूमे, न बारिश नहाए।
अगर चेहरे पढ़ते तो होते शहंशाह,
किताबों को पढ़-पढ़ के नौकर कहाए।
कहीं रख के भूले वो खुशबू भरे ख़त,
वो साँसों की गर्मी, वो चिलमन के साए।
चले घर से जब-तब तो दफ़्तर ही पहुँचे,
जो दफ़्तर से निकले तो घर लौट आए।
कभी फिक्र मां की तबीयत नरम है,
कभी बच्चे रूठें — खिलौने न लाए।
बड़ा बोझ कंधों पे उसके रहा है,
जब अदनी सी तनख़्वाह चूल्हा जलाए।
हुआ सस्ते दामों जवानी का सौदा,
कि रोटी के बदले बुढ़ापे में आए।
डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’