महा विनाश ‘ हिरोशिमा दिवस ‘

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डा.राजेश कपूर, पारंपरिक चिकित्सक.

स्मरण और समाधान

* आज से 66 वर्ष पहले अमेरिका ने 6 अगस्त, 1945 के दिन जापान के हिरोशिमा नगर पर ‘लिटिल मैन’ नामक युरेनियम बम गिराया था. इस बम के प्रभाव से 13 वर्ग कि.मी. में तबाही फ़ैल गयी थी. हिरोशिमा की 3.5 लाख आबादी में से एक लाख चालीस हज़ार लोग एक झटके में मरे गए थे. ये सब सैनिक नहीं थे. इनमें से अधिकाँश साधारण नागरिक, बच्चे, बूढ़े, औरतें, थीं. इसके बाद भी अनेक वर्षों तक अनगिनत लोग विकीर्ण के प्रभाव से मरते रहे. अमेरिका की क्रूरता का अंत इतने पर ही नहीं हो गया. उसे एक अन्य प्रकार के बम के प्रभावों को अभी और आज़माना था. इसलिए इस अमानवीय विनाश के तीन दिन बाद 9 अगस्त को ‘फैट मैन’ नामक प्लूटोनियम बम नागासाकी पर गिराया गया जिस में अनुमानित 74 हज़ार लोग विस्फोट व गर्मी के कारण मारे गए. इनमें भी अधिकाँश निरीह नागरिक थे. विशेष बात यह है कि ये दोनों बम सैनिक ठिकानो पर नहीं, जान बुझ कर साधारण जनता की आबादी पर गिराए गए थे.

* इन दोनों बमों की विषैली गैसों का प्रभाव 18000 वर्ग कि.मी. तक फ़ैल गया था. बमों के विस्फोट से 20 ,000 फेरन हाईट गर्मी पैदा हुई थी जिसके प्रभाव से मकान आदि सबकुछ कागज़ की तरह जलने लगे थे. जंगल, मनुष्य और सभी प्राणी कुछ ही क्षणों में जल गए. पानी के सभी स्रोत कुछ ही क्षणों में भाप बन कर उड़ गए. जो पहले झटके में मरे उन्हें अधिक कष्ट नहीं उठाना पडा पर जो दूरी पर थे, वे बहुत देर तक मर्मान्तक पीड़ा को भुगतते रहे. विकीर्ण के कारण बाद में पैदा होने वाले विकृत, अपंग, विकलांग संतानों की पीड़ा का तो अनुमान लगाना भी कठिन है. जापान की देशभक्त जनता का एक कमल है जो इस महा विनाश के बाद भी कुछ ही वर्षों में अपने पाँव पर खड़े हो गए, एक शक्तिशाली देश के रूप में अपनी पहचान बना ली.

* पुष्ट सूचनाओं के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र सेनाओं की विजय और जर्मन की हार निश्चित हो चुकी थी. ऐसे में इस महाँ अमानवी नर संहार की आवश्यकता नहीं रह गयी थी. फिर क्या कारण था जो अमेरिका ने यह क्रूर पग उठाया ? इसका केवल एक ही जवाब मिलता है कि उसे अपने दोनों प्रकार के बमों की मारक क्षमता को परखना था. केवल अपने प्रयोग को आजमाने के लिए चार दिन में करीब 2,40,000 लोगों की बालि दे दी. इसके बाद के अनेक दशकों में जो लाखों लोग विकीर्ण के प्रभाव से मरते रहे , वह गिनती इससे अलग है. यानी अमेरिका का क्रूर चेहरा केवल ईराक और अफगानिस्तान में पहली बार सामने नहीं आया जहां निरीह नागरिकों को मारने में ज़रा भी परहेज़ नहीं किया गया. जो रासायनिक हथियार कभी ईराक के पास थे ही नहीं, उनके नाम पर लाखों का जीवन और देश तबाह कर दिया गया. इससे पहले वियतनाम की भी यही कहानी है. क्या ये सब जाने के बाद इस बात में कोई संदेह रह जाता है कि अमेरिका अपने छोटे-छोटे हितों को साधने के लिए भी बड़े से बड़ा विनाश कर सकता है, करता रहा है. उसका व्यवहार न तो मानवीय है और न ही वह किसी प्रकार से विश्वास के योग्य है. ऐसे में भारत को उसकी मित्रता की कितनी बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाने पड़ रही होंगी, यह अनुमान हम लगा सकते हैं. अतः अमेरिका पर विश्वास कितना घातक सिद्ध हो सकता है, यह एक बड़ा सवाल है.

* आज के परमाणु संपन्न देशो के पास सन 1945 के दुसरे विश्व युद्ध की तुलना में कई गुणा अधिक मारक क्षमता की युद्ध सामग्री एकत्रित हो चुकी है. हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों की तुलना में , उनसे एक लाख गुणा अधिक शक्तिशाली बम बना लिए गए हैं. अमेरिका, चीन जैसा कोई तामसिक, अहंकारी, स्वार्थी और साम्राज्यवादी देश कब क्या कर बैठे, कहना कठिन है. परमाणु बमों जैसे घातक बमों का जखीरा इन परमाणु सम्पन्न्देशों के पास इतनी अधिक मात्र में है कि उनसे दुनिया को कई बार तबाह किया जा सकता है. अनुमान है कि अमेरिका ने 10640 , रूस 10000 , फ्रांस 464 , चीन 420 , इस्राईल 200 , यु.के. 200 , भारत 95 तथा पाकिस्तान ने 50 घातक परमाणु बम या इनसे भी शक्तिशाली बमों का निर्माण कर लिया है.

* आज विश्व के विचार और कार्य की दिशा केवल अर्थ यानी संपत्ति या लाभ से संचालित हो रही है. भौतिक सोच से ऊपर उठ कर सोचने-समझने की मानसिकता किसी भी देश के प्रशासन या सरकार में नहीं है. इश्वर, प्रकृति, आत्म तत्व पर विचार के लिए विश्व के वर्तमान तंत्र में कोई स्थान है ही नहीं. ऐसे में कहने को जो भी कहते रहें, नारे कुछ भी लगाये ; हमारी सोच को संचालित तो स्वार्थ ही कर रहा है, केवल – कोरा भौतिक स्वार्थ. ऐसे में अमेरिका, चीन, इंग्लैण्ड या फ्रांस की तरह प्रत्येक देश अपने स्वार्थों को साधने के लिए विश्व के मानवों व प्रकृति का कितना भी विनाश, कभी भी कर ससकता है, कर ही रहा है. आज के विश्व की सारी समस्याओं की जड़ यही अनीश्वर वादी, भौतिकता से संचालित अमानवीय सोच है. बिना अपवाद के इसमें पूंजीवादी देश पहले स्थान पर और वामपंथी दूसरे स्थान पर हैं. ऐसा वामपंथियों की किसी सज्जनता के कारण नहीं, विश्व कि वर्तमान परिस्थितियों में वामपंथियों को अवसर कम मिल पा रहा है. अन्यथा वे भी उसी अमानवीय और प्रकृति विरोधी मानसिकता से संचालित हैं जिसके चलते संसार के संसाधनों का विश्व विनाशकारी शोषण हो रहा है.

* इस जीवन दृष्टी में मेरा शरीर और मेरा व्यक्तिगत सुख ही सबकुछ है. इस जीवन के बाद कोई जीवन या पुनर्जन्म या फिर कोई कर्म फल जैसी चीज़ नहीं है. संसार को संचालित करने वाली कोई सुपर इंटेलिजेंट ताकत नहीं है. पशु प्रवृत्ती को बढ़ावा देने वाली ऐसी जीवन दृष्टी से जो विनाश हो सकता है, वही आज हो रहा है. इसकी परिणति कब एक महा-महा विनाश में हो जाए, कहना कठिन है. पर इतना निश्चित है कि इस सोच से कभी भी कल्याण संभव नहीं. एक यह बात भी स्पष्ट है कि वर्तमान विकृत दर्शनों में वामपंथ या पूंजीवाद दोनों ही इसी भौतिकता के विनाशकारी आधार पर खड़े हैं और इसी लिए न चाहते हुए भी (कई बार नीयत ठीक होने पर भी) परिणाम सदा मानव का विनाश करने वाले ही हुए है. फिर चाहे रूस हो , चीन हो या फ़्रांस हो. हर क्रान्ति ने कल्याण व सुख का सपना दिया पर किया केवल नर संहार और मानव विनाश.

* अतः इन नास्तिक व नासमझी भरे विकृत दर्शनों से ऊपर उठ भारत के उस आस्तिक दर्शन की ओर भी मुड़ कर एक बार देखना चाहिए जिसके कारण कभी विश्व भर में सुख, शांति व समृधी का साम्राज्य रहा है. हम इन दावों पर विश्वास चाहे न भी करें, तो भी उसे एक बार समझने का इमानदार प्रयास कर के तो देख लें. इतना भी पूर्वाग्रह क्या जो मूर्खता पुर परनाम दे या फिर जो आत्मघाती सिद्ध हो ? इतनी भी कंडीशनिंग ठीक नहीं. सही न लेगे तो न अपनाए, एक बार जानें तो सही.

# यहाँ यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि मुझे अभी तक लगभग 16 -17 विश्व के ऐसे विद्वानों, इतिहासकारों व खोजियों की पुस्तकें या उनके सन्दर्भ मिले हैं जिन्हों ने साफ़-साफ लिखा है कि उनके देश को असभ्य से सभ्य बनाने वाला भारत है और उससे आये लोग है. इनमें अधिकाँश प्रसंग ईसा पूर्व के है. रूस, चीन, इंग्लैण्ड, अफ्रीका आदि विश्व के लगभग प्रत्येक देश के इतिहासकारों व विद्वानों ने यही सबकुछ अपने देशों के बारे में लिखा है. इसाईयत और इस्लाम के आक्रमणों से पहले उन देशों में शिक्षा, संस्कृति, सुख व समृधि पराकाष्ठा पर थी. वे विद्वान लिखते है इसका सारा श्रेय भारत से आये ऋषि- मुनि और विचारकों को हैं. इसलिए क्या बुराई है यदि हम उस दर्शन व उस तंत्र को जानने, समझने का प्रस्यास करें जिसके कारण ऐसा होने के दावे ही नहीं प्रमाण भी उपलब्ध है.

# कहीं यही कारण तो नहीं कि यूरोपीय देश ईसा पूर्व के कालखंड पर कोई शोध करने की अनुमति यूरोपीय विश्व विद्यालय बिलकुल नहीं देते, कि कहीं तब का भारत का गौरव कालीन इतिहास सामने न आजाए. ‘ पी. एन. ओक ‘ जी ने इसकी अनुमति माँगी थी जो कि नहीं दी गयी. तो फिर दिमाग के दरवाज़े बंद करके चलते जाने की तो कोई मजबूरी है नहीं. अभीतक सामने न लाये गए इस आयाम को भी जानने- समझने का एक ईमानदार प्रयास हो जाए तो क्या हर्ज़ है ?

( आंकड़े सिटी मॉंटसेरी स्कूल, लखनऊ के संस्थापक प्रबंधक डा. जगदीश गांधी द्वारा प्रेषित सामग्री से उद्धृत )

4 COMMENTS

  1. सुनील पटेल जी जिनसे आप शर्म की उम्मीद कर रहे है, वे तो श्रम प्रूफ है. वरना देश के साथ इतनी बड़ी गद्दर्रे न करते कि सारे संसार में प्रतिबंधित की जा रही विनाशकारी परमाणु तकनीक विदेशी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए खरीदते. आज संसार का कोई एक भी देश द्रोही शासक ऐसा नहीं होगा जो इस काल बाह्य विनाशकारी तकनीक को अपने देश में लगाने की अनुमति दे. जापान में परमाणु सयंत्रों से हुए विनाश के बाद तो हर देश ने इस तकनीक से तौबा कर ली है. एक भारत देश के महा मुर्ख नेता हैं जो इस तकनीक का आयात देश को भिखारे बना देने जैसी अविश्वसनीय कीमत पर कर रहे हैं. … देशवासियों के लिए सबसे बड़ी शर्म की बात तो यह है कि इस प्राचीन और महान राष्ट्र पर विदेशियों के इशारों पर नाचने वाले , स्वाभमान रहित बौने राज्य कर रहे है. अभी तक भी जो इन देश के शत्रुओं को नहीं पहचान पाए , वे तो सचमुच गुलामी में जीने के लिए ही बने है.

  2. आदरणीय डॉ. कपूर जी बिलकुल सही कह रहे है.
    शर्म होना चाइये हमारे देश के उन लोगो को जो अमेरिका का कचरा एक बहुत बड़ी कीमत पर खरीदने को लालयित है या उनका समर्थन करते है.

  3. अमेरिका अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है। जितने जुल्मोसितम अमेरिका और ब्रिटेन ने अपने शासित या विरोधी देशों और जनता पर ढाए हैं, वे रोंगटे खड़ा करने वाले हैं. अंग्रेजों के अत्याचार के हमलोग भुक्तभोगी हैं, फिर भी राष्ट्रमंडल के सदस्य हैं। हमारा कोहेनूर इंगलैंड की रानी के ताज़ में लगा है, हम मांग भी नहीं सकते। जो काम लार्ड मैकाले नहीं कर पाया, उसे पूरा करने का बीड़ा कपिल सिब्बल ने उठाया है. जापान ही कहां चेता? जिस देश ने उसपर दो-दो एटम बम गिराए, लाखों निरीह जनता को घुट-घुट्कर मरने के लिए विवश किया, आज वह उसी का पिछलग्गू है। कहां गया जापान का स्वाभिमान? जिस देश का उसके कुकृत्यों के लिए विश्व-बिरादरी द्वारा बहिष्कार होना चाहिए, वह विश्व का दारोगा बन दादागिरी कर रहा है. यह मानवता का दुर्भाग्य है.

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