गज़ल: तुम से मिलकर–सतेन्द्रगुप्ता

तुम से मिलकर, तुम को छूना अच्छा लगता है

दिल पर यह एहसान करना, अच्छा लगता है।

लबों की लाली से या नैनों की मस्ती से कभी

चंद बूंदे मुहब्बत की चखना ,अच्छा लगता है।

लाख छिप कर के रहे, लुभावने चेहरे , पर्दों में

कातिल को कातिल ही कहना अच्छा लगता है।

देखे हैं शमशीर दस्त ,जांबाज़ बहुत से हमने

ख़ुद को ख़ुद में ढाले रखना, अच्छा लगता है।

तड़पाता है दर्द-ए-जिगर ,जब जीने नहीं देता

पुराना ज़ख्म कुरेद के सिलना अच्छा लगता है।

ठहरी हैं हज़ार ख्वाहिशें ,इस नन्हे से दिल में

मगर फिर भी सपने देखना, अच्छा लगता है।

 

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