कांच के टूटने की आवाज़
बहुत बार सुनी थी,
पर “वह” एक बार
मेरे अन्दर जब चटाक से कुछ टूटा
वह तुमको खो देने की आवाज़,
वह कुछ और ही थी !
केवल एक चटक से इतने टुकड़े ?
इतने महीन ?
यूँ अटके रहे तब से कल्पना में मेरी,
चुभते रहे हैं तुम्हारी हर याद में मुझे।
अब हर सोच तुम्हारी वह कांच लिए,
कुछ भी करूँ, कहीं भी जाऊँ
चुभती रहती है मुझको
हर भीड़ में, हर सुनसान में
और मैं हर सूरत हर जगह
जैसे अकेला नुक्ता बना
एक कोने में पड़ा रहता हूँ
तुम्हारे बिना।
उस कोने में पड़ा सोचता हूँ,
कुछ कहता हूँ तुमको,
कुछ पूछता हूँ तुमसे,
और यह सोच
एक बहुत घना काला बादल बनी
गर्जन से कंपकपा जाती है मुझे,
बरस-बरस पड़ती है याद तुम्हारी
इन नम आँखों के कोरों से,
हर बार मुझे सराबोर कर जाती है।
इसी प्रक्रिया में बंधी,
मेरे अंतरस्थ अंधेरों में तुम
उजाला बनी
अनादि हो जाती हो,
अनन्त भी हो जाती हो ….
इतनी पास आ जाती हो मेरे
कि जैसे कभी दूर गई नहीं थी,
फिर क्यूँ वह कांच के महीन टुकड़े
रह-रह कर भीतर मेरे
चुभते रहते हैं मुझको,
और वह मादक चुभन ही क्यूँ
तुम्हारी तरह
अब इतनी अपनी-सी लगती है ?
———
— विजय निकोर
सुन्दर कविता के लियें बधाई
धन्यवाद,बीनू जी