अनादि, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर हमारा सनातन मित्र व सखा है

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मनमोहन कुमार आर्य

                हमें मनुष्य का जन्म मिला और हम जन्म से लेकर अब तक अपने पूर्वजन्मों सहित इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के फल भोग रहे हैं। हम जीवात्मा हैं, शरीर नहीं है। जीवात्मा चेतन पदार्थ है। चेतन का अर्थ है कि यह जड़ होकर संवेदनशील है और ज्ञान प्राप्ति एवं कर्म करने की सामर्थ्य से युक्त है। यह सुख दुःख का अनुभव करता है। जीवात्मा अल्प परिमाण अर्थात् सूक्ष्म, एकदेशी ससीम सत्ता है। यह अनादि व अमर है। जीवात्मा का  कभी नाश अर्थात् अभाव नहीं होता, अतः इसे अविनाशी कहा जाता है। जीवात्मा अपने शरीर की इन्द्रियों यथा नेत्र तथा मन आदि की सहायता से स्थूल जड़ पदार्थों को देखता है परन्तु स्वयं अपने को अर्थात् अपनी आत्मा व सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं देख पाता। कारण यही है कि जीवात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है और परमात्मा आत्मा से भी सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मतम है। हम वायु, जल की भाप, वायु में विद्यमान गैसों, धूल के सूक्ष्म कणों तथा दूर के पदार्थों को भी नहीं देख पाते। अतः यदि हम अपनी व दूसरों की आत्माओं तथा परमात्मा को नहीं देख पाते तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये।

                किसी भी पदार्थ उसके अस्तित्व को उसके लक्षणों से जाना जाता है। नदी में यदि जल का स्तर बढ़ जाता है तो अनुमान होता है कि नदी के ऊपरी भाग में कहीं भारी वर्षा हुई है। आकाश में धुआं देखते हैं तो हमें अग्नि का ज्ञान होता है। किसी मनुष्य उसके बच्चे को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि इसके मातापिता अवश्य होंगे। यह हो सकता है कि वह पहले रहे हों परन्तु अब दिवंगत हो गये हों। अतः आत्मा परमात्मा को भी इनकी क्रियाओं, रचनाओं कार्यों के द्वारा जाना जाता है। आत्मा की उपस्थिति का अनुमान शरीर की जीवित अवस्था में इसमें होने वाली क्रियाओं से भी होता है। यदि शरीर में आत्मा न हो तो यह मृत कहलाता है और मृतक शरीर में किसी प्रकार की क्रियायें जो जीवित शरीर में होती हैं, नहीं होती। ईश्वर को भी हम उसकी अपौरुषेय रचनाओं व कृतियों के द्वारा जानते हैं। संसार का अस्तित्व है। वैज्ञानिक भी संसार के अस्तित्व को मानते हैं। वैज्ञानिकों की विडम्बना यह है कि वह संसार को बनाने वाली चेतन, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ सत्ता परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि ईश्वर का अस्तित्व प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता जैसा कि भौतिक पदार्थों का सिद्ध किया जाता है। इसी बात को दशर्नों में ईश्वर को अतीन्द्रिय अर्थात् ईश्वर इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता कहकर बताया गया है। ईश्वर हमारी ज्ञान इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता तथापि उसे वेद, दर्शन व उपनिषद पढ़कर तथा चिन्तन-मनन-ध्यान आदि के द्वारा जाना जा सकता है। हम ध्यान व समाधि सिद्ध योगियों, ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करने वाले विद्वानों तथा स्वाध्यायशील लोगों की संगति से भी ईश्वर व आत्मा का सद्ज्ञान प्राप्त कर सकते है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, आर्यसमाज के दूसरे नियम आदि के स्वाध्याय, अध्ययन व चिन्तन-मनन से भी ईश्वर का ज्ञान होता है। इस प्रकार से जीवात्मा एवं ईश्वर का अस्तित्व सत्य सिद्ध होता है। विज्ञान भौतिक पदार्थों का अध्ययन करता है। जीवात्मा और परमात्मा भौतिक नहीं नहीं हैं अपितु चेतन वा अभौतिक पदार्थ हैं, अतः इनका निभ्र्रान्त ज्ञान केवल वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित योग, ध्यान, स्तुति, प्रार्थना, उपासना व समाधि आदि के द्वारा ही किया जा सकता है। बहुत से वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते परन्तु ऐसे भी शीर्ष वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने ब्रह्माण्ड में सृष्टिकर्ता एवं सृष्टि के पालक ईश्वर के होने की सम्भावना व्यक्त की है।

                ईश्वर है और वह सच्चिदानन्दस्वरूप है। इसका सत्यस्वरूप ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास सहित आर्यसमाज के दूसरे नियम में प्रस्तुत किया है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में वह बताते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ऋषि दयानन्द ने इन शब्दों में ईश्वर के सम्बन्ध में जो कहा है वह यथार्थ सत्य है। हमें इसके एक एक शब्द पर विचार करना चाहिये। आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व ईश्वर को जानने के लिये ईश्वर भक्तों को वर्षों तक स्वाध्याय, साधना एवं विद्वानों की संगति करनी पड़ती थी। तब जो ज्ञान प्राप्त होता था, हम समझते हैं कि ऋषि दयानन्द ने कृपा करके वही समस्त ज्ञान हमें एक दो वाक्यों में दे दिया है। यह नियम आध्यात्मिक जगत का अमृत है। ऋषि दयानन्द का मानवता पर यह बहुत बड़ा उपकार व ऋण है। सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों को इससे लाभान्वित होना चाहिये और अपने मतों में ईश्वर विषयक इस मान्यता व दृष्टिकोण के आधार पर संशोधन करना चाहिये।

                ईश्वर अनादि सत्ता है। जीवात्मा भी अनादि सत्ता है। अनादि का अर्थ हो सदा से हैं और जिनकी कभी उत्पत्ति वा रचना नहीं हुई है। दोनों सत्तायें अजर अमर सत्ता अस्तित्व वाली हैं। आत्मा सूक्ष्म है तथा परमात्मा आत्मा से भी सूक्ष्म है। ईश्वर सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी है। वह आत्मा के भीतर भी व्यापक है और हमारी आत्मा अर्थात् हमें हमसे भी अधिक जानता है। ईश्वर को हमारे अतीत का पूर्ण ज्ञान है। हमें अपने पूर्वजन्मों तथा इस जन्म की भी बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं है। हमारी भूलने की प्रवृत्ति है। ईश्वर और जीवात्मा का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध अनादि काल से है और अनन्त काल तक अबाध रूप से सदैव बना रहेगा। ईश्वर व आत्मा का व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक का संबंध कभी समाप्त नहीं होगा। हम सब मनुष्यों की जीवात्माओं का उपास्य वा उपासनीय एकमात्र ईश्वर ही है। हमारा यह सम्बन्ध भी नित्य सम्बन्ध है। हम ईश्वर की उपासना करें या न करें परन्तु हमारा सम्बन्ध हर काल व क्षण उससे बना व जुड़ा रहता है। दोनों में देश व काल की दूरी नहीं है अपितु दोनों साथ-साथ रह रहे हैं। दोनों एक दूसरे के इतने निकट हैं कि हमारे इतना निकट अन्य कोई पदार्थ नहीं है।

                हमें जन्ममरण तथा सुखों को देने वाला भी ईश्वर ही है। हमारे कर्मानुसार हमें मनुष्य सहित अनेकानेक योनियों में जन्ममृत्यु देकर सृष्टि की उत्पत्तिस्थिति प्रलय का चक्र चलाकर वह हमें घुमाता रहता है। वह हमारे किसी दुःख सुख में हमारा साथ कभी नहीं छोड़ता। ईश्वर के हमारे ऊपर अनन्त उपकार हैं। हम कितना भी कर लें, उसके उपकारों रूपी ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। हम केवल उसके उपकारों के लिये मनुष्य जीवन में उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही कर सकते हैं। उसकी आज्ञा का पालन कर भी हम उसे प्रसन्न कर सकते हैं और उससे सुख व सुख के साधन प्राप्त कर सकते हैं।

                ईश्वर ने वेदों में मनुष्यों के कर्तव्य अकर्तव्यों का ज्ञान कराया है। हमें नित्य प्रति वेदों का अध्ययन करना चाहिये। ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों का भाष्य पढ़कर हम वेदों का स्वाध्याय कर सकते हैं। हम ईश्वर की वेदों के माध्यम से सभी मनुष्यों को की गई प्रेरणाओं को जानकर उनका आचरण कर अपना कल्याण कर सकते हैं। यही हमारा कर्तव्य धर्म है। वेदों का स्वाध्याय एवं उसके अनुसार आचरण करना ही संसार के मनुष्यों का एकमात्र धर्म है। हम जिन मत-मतान्तरों को धर्म कहते हैं उनमें से कोई भी मत धर्म न होकर सभी मत-मतान्तर, सम्प्रदाय, रिलीजन, मजहब आदि हैं। धर्म तो केवल वेदनिहित व वेदविहित ईश्वर की सत्य आज्ञाओं का पालन करना ही है। ऐसा करके ही ईश्वर हमारा मित्र व सखा बन जाता है। उपासना करके हम ईश्वर के जितना निकट जायेंगे उतने हमारी आत्मा के काम, क्रोध, इच्छा, द्वेष, दुव्र्यसनादि मल दूर होते जायेंगे। हम ज्ञान प्राप्त करेंगे और ईश्वर की इस सृष्टि में सब प्राणियों को अपने एक परिवार के रूप में जानेंगे और व्यवहार करेंगे। इसी कारण हमारी संस्कृति में ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम् का विचार आया है जो कि सत्य व यथार्थ है।

                हम कुछ वर्ष पूर्व इस संसार में जन्में हैं। कुछ वर्ष बात हमारी मृत्यु होनी निश्चित है। जन्म से पूर्व भी हमारी आत्मा का अस्तित्व था और मृत्यु के बाद भी हमारी आत्मा का अस्तित्व रहेगा। अनादि काल से हमारे अगण्य जन्म हो चुके हैं। अगण्य बार हम मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। प्रायः सभी अगण्य योनियों में कर्मानुसार हमारा जन्म हुआ है और आगे भी होगा। अनेक बार हम मोक्ष में गये हैं और मोक्ष से लौटे भी हैं। इन सब अवस्थाओं में ईश्वर ही एकमात्र हमारा साथी, मित्र सखा रहा है और आगे भी रहेगा। यह ध्रुव सत्य है। इसे हमें अनुभव करना है और इसके आधार पर हमें अपने भावी जीवन के निर्वाह की योजना बनानी है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने सभी मनुष्यों के लिये पंचमहायज्ञों का विधान किया है। इन यज्ञों को करके हम अपनी आत्मा की उन्नति करते हैं और मोक्ष के निकट पहुंचते हैं। मोक्ष में भी हम ईश्वर के साथ रहते हैं और उससे शक्तियों को प्राप्त करके आनन्द से युक्त रहते हैं। जन्म व मरण तथा के बीच जितने व जिस प्रकार के अनेकानेक क्लेश होते हैं, मोक्ष प्राप्त होने पर हम उनसे बचे रहते हैं। सभी मनुष्यों का एकमात्र परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति के लिये पुरुषार्थरत, तपस्यारत व उपासनारत रहना है। वैदिक पथ पर चलकर ही हमारी उन्नति हो सकती है। अन्य मार्ग मनुष्य को गुमराह करते हैं व बन्धनों में डालकर जीवन को नरकगामी बनाते हैं। वेदेतर मत मनुष्य को न तो उसकी आत्मा का यथार्थ स्वरूप बतातें हैं और न ही ईश्वर के सच्चे स्वरूप से ही परिचित कराते हैं। संसार में वेदों व ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थों का ज्ञान मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। जो मनुष्य इससे वंचित हैं वह वस्तुतः ज्ञान व कर्मों की पूंजी की दृष्टि से दरिद्र हैं। बिना वेद-ज्ञान मनुष्य दुःखो व दरिद्रताओं से नहीं छूट सकता। ज्ञान वह है जो सत्य व असत्य का यथार्थ ज्ञान कराये। ईश्वर व आत्मा विषयक सत्य ज्ञान प्राप्त करना ही मनुष्य का प्रथम, मुख्य एवं अनिवार्य कर्तव्य है। इससे हम ईश्वर व आत्मा को जानकर अपना व अन्यों का कल्याण कर सकते हैं जैसा कि अतीत में ऋषि दयानन्द सहित अन्य ऋषियों व आर्य महापुरुषों ने किया है। निष्कर्ष यह है कि हम ईश्वर व उसके गुणों को जानकर उसके शाश्वत सखा बनें और अपने भावी जन्म-जन्मान्तरों के दुःखों को दूर करें। वेदमार्ग के आचरण से इतर उन्नति का अन्य कोई मार्ग नहीं है।

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