ईश्वर हमारे कर्मानुसार ही हमें मनुष्यादि जन्म तथा सुख दुख देते हैं

0
194

-मनमोहन कुमार आर्य
हम लोगों का जन्म मनुष्य के रूप में स्त्री या पुरुष किसी एक जाति में हुआ है। यह जन्म हमें किसने, क्यों तथा किस आधार पर दिया है, इसका ज्ञान हमें माता, पिता, देश व समाज द्वारा नहीं कराया जाता। हमारे ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा वेदों के व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध इन प्रश्नों के समाधानों का अध्ययन किया व सत्य निष्कर्षों को प्रस्तुत किया है। हमारा सौभाग्य है कि वेदों के मर्मज्ञ विद्वान ऋषि दयानन्द सरस्वती की कृपा से हमें इन सभी प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हैं। प्रथम प्रश्न तो यही है कि हमारा यह संसार वा ब्रह्माण्ड किसने, कैसे तथा कब उत्पन्न किया? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो वेद, उपनिषद, दर्शन तथा सम्पूर्ण प्राचीन वैदिक साहित्य एक मत से बताते हैं कि इस संसार को इसमें सर्वत्र व्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर ने चेतन अल्पज्ञ अनादि व नित्य जीवों के लिए उत्पन्न किया है। ईश्वर जिसने इस सृष्टि को बनाया और इसका विगत 1 अरब 96 करोड़ वर्षों से संचालन व पालन कर रहा है, उसका स्वरूप एवं गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं, इसका समाधान भी सम्पूर्ण वेद व वेदभाष्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर हो जाता है। ईश्वर का वर्णन करते हुए ऋषि ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में लिखा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र एवं सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’

ईश्वर के इस स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव वाली सत्ता जिसे ईश्वर कहते हैं, उससे इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। ईश्वर ने यह सृष्टि अपने लिए या किसी अन्य के लिए बनाई है? इसका उत्तर है कि ईश्वर इस सृष्टि का निर्माण अपने किसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए नहीं करते, अपितु इसकी रचना वह जगत् में विद्यमान असंख्य व अनन्त संख्या वाले सत्य-चित्त अनादि, नित्य, अल्पज्ञ व एकदेशी जीवों के लिए करते हैं। ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही अनादि, नित्य तथा अविनाशी सत्तायें हैं। सृष्टि को बनाने से ईश्वर के सभी व अधिकांश गुणों का प्रकाश होता है। मनुष्यों में भी यह गुण पाया जाता है कि उनमें जो गुण, क्षमता व सामथ्र्य होती है, वह उसके अनुसार कर्म व कार्यों को करते हैं। ऐसा करके ही उनके गुणों का होना सफल होता है तथा उनको सुख व सन्तुष्टि मिलती है। परमात्मा भी एक धार्मिक एवं दयालु सत्ता है। वह जीवों का माता, पिता, आचार्य एवं रक्षक है। जीवात्माओं को सुख देने के लिए ही ईश्वर ने इस संसार को बनाया है व इसका पालन कर रहा है। जीवों को उनके पूर्वजन्मों के अनुसार जन्म देना व सुख आदि का भोग कराने सहित जीवों को अपवर्ग वा मोक्ष हेतु प्रयत्न करने के लिए अवसर देने हेतु ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है व इसे चला रहे हैं। इससे सृष्टि की उत्पत्ति तथा इसका प्रयोजन ज्ञात हो जाते हैं। हमें यह भी ज्ञात होना चाहिये कि ईश्वर व जीवों के अतिरिक्त संसार में प्रकृति नाम की एक अनादि तथा सूक्ष्म जड़ सत्ता भी है जो सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त होती है। इस प्रकृति नामी पदार्थ में विकार होकर ही यह समस्त दृश्यमान व सूक्ष्म अदृश्य जड़ व भौतिक जगत अस्तित्व में आया है। इसका विस्तार वेद, उपनिषद सहित सांख्य दर्शन तथा ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के अष्टम् समुल्लास में देखा जा सकता है। हमें यह भी ज्ञात होना चाहिये कि जीव जन्म व मरणधर्मा सत्ता है। यह मनुष्य योनि में जो कर्म करता है उनका फल भोगने के लिए मृत्यु के कुछ काल बाद इसका विभिन्न योनियों में से किसी एक योनि में जन्म होता है जिसका आधार जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्म ही होते हैं। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति यही तीन मुख्य अनादि व नित्य पदार्थ इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय के निमित्त व उपादान आदि कारण हैं। 

परमात्मा जीवों को उनके मनुष्य जन्म की उभय योनि के पूर्वजन्मों के कर्मानुसार ही उसे मनुष्य व इतर योनियों में जन्म देते हैं। मनुस्मृति में राजृषि मनु जी ने बताया है कि मनुष्य के आधे से अधिक पुण्य कर्मों के होने पर जीवात्मा को मनुष्य का जन्म होता है और आधे से अधिक कर्म यदि पाप श्रेणी के होते तो उसे पशु व पक्षी आदि नाना योनियों में से कोई नीच योनि मिलती है। संसार में जीवों की अगणित योनियां हैं। मनुष्य योनि में जो जीवात्मायें हैं उनके पूर्वजन्म के कर्म आधे से अधिक पुण्य कर्म रहे थे, इस लिए उन्हें मनुष्य जन्म मिला है। मनुष्य को आगामी जन्मों में भी उन्नति मिले व उसे इस जन्म में भी सुख मिले, इस लिये वेद मनुष्यों के लिए सत्कर्मों वा पुण्यकर्मों को करने का विधान करते हैं। सत्य का आचरण अर्थात् सत्याचार ही मनुष्यों का सत्य धर्म होता है। मनुष्य को सत्य व सत्य पर आधारित शुभ कर्मों का ही धारण करना चाहिये और असत्य का त्याग करना चाहिये। ऐसा मनुष्य ही धार्मिक होता है। मत-मतान्तरों और धर्म में अन्तर होता है। मत-मतान्तरों की वही मान्यतायें धर्म से युक्त होती हैं जो वेदानुकूल तथा प्राणी मात्र के लिए हितकारी होती हैं। मनुष्य यदि कोई पाप व असत्कर्म करता है तो वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। 

धर्म मनुष्य के कर्तव्यों को भी कहा जाता है। मनुष्य के ऊपर परमात्मा द्वारा अनादि काल से जन्म जन्मान्तरों में किए गये अगणित उपकार हैं। यदि परमात्मा उपकार न करे तो हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते। हमारी श्वसन प्रक्रिया को परमात्मा ने ही स्थापित किया है तथा वही इसको चला रहा है। हम जिन पदार्थों का उपभोग कर सुख प्राप्त करते हैं वह सब भी परमात्मा ने बनाकर जीवों को प्रदान किये हैं। हमारे माता, पिता व आचार्य आदि सभी लोग भी हमें परमात्मा से ही प्राप्त हुए हैं। अतः हमारा कर्तव्य होता है कि हम ईश्वर की उपासना करें। प्रकृति व सृष्टि में विकार, अस्वच्छता व दुर्गन्ध आदि होने से प्राणियों को दुःख होता है। अतः हमारा यह भी कर्तव्य होता है कि हम इस सृष्टि व इसके सभी स्थानों सहित वायु एवं जल आदि को भी स्वच्छ व सुगन्धित रखें व करें। इस कार्य को करने के लिए ही वेदों में प्रतिदिन देवयज्ञ अग्निहोत्र करने का विधान है। वेदों में मनुष्य के करने योग्य सभी कर्मों का प्रकाश है तथा निषिद्ध कर्मों का भी विधान है। अतः मनुष्य को वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय कर इनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये और सदैव सत्कर्म व पुण्यकर्मों सहित ईश्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र तथा परोपकार के कार्य ही करने चाहिये। इसी से मनुष्य की वास्तविक उन्नति होती है। उसका ज्ञान व विज्ञान बढ़ता है, उसको भौतिक लाभों सहित आध्यात्मिक उन्नति भी होती है तथा उसका लोक व परलोक दोनों सुधरते हैं। संसार में आत्मा व शरीर की उन्नति के लिए वैदिक जीवन पद्धति ही श्रेष्ठ है। इसी का सबको पालन व व्यवहार करना चाहिये। 

परमात्मा ने हमारे पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही हमें यह मानव जीवन दिया है। हमारा अगला जन्म हमारे इस जन्म के शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कर्मों के आधार पर हमें प्राप्त होगा। हमारा पुनर्जन्म होना सत्य एवं यथार्थ है। आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी तथा जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। इसका अभाव कभी नहीं होता। इसी कारण हमारा यह जन्म सिद्ध होता है और इसी से हमारे पूर्वजन्म तथा परजन्मों का होना भी सिद्ध होता है। हमारे सभी जन्म हमें हमारे कर्मों के अनुसार मिलने हैं। अतः हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और वेदानुकूल वा वेद प्रतिपादित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिये। इसी से हमें अधिक मात्रा में सुख प्राप्त हो सकते हैं, हम अपनी आत्मा तथा शरीर की उन्नति कर सकते हैं और हमें परजन्म में अमृत व आनन्दमय मोक्ष भी प्राप्त हो सकते हैं। हमें वैदिक कर्म फल विज्ञान को समझना चाहिये। इसका अध्ययन करने सहित इस कर्म फल सिद्धान्त पर विचार, चिन्तन, मनन व अनुसंधान भी करना चाहिये। यह कर्म फल विधान वेदों में ईश्वर की देन होने से सर्वथा सत्य है। ऋषियों ने भी सत्य का साक्षात्कार कर इसकी पुष्टि की है। यह सत्य है कि जीवात्मा का मनुष्य जन्म सुख व दुःख के भोग तथा अपवर्ग वा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हुआ व होता है। ऐसा निश्चय कर हमें वेद, वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा वेदों के भाष्य व टीकाओं आदि का अध्ययन करते रहना चाहिये। इसी से हमारा जीवन सुधरेगा, सफल होगा तथा हमें जीवन के अन्तिम समय में सन्तोष प्राप्त होगा। हम निराशा से दूर रहेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress