मामूली चीज़ों को देवता बनाना

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गंदा है पर धंधा है ये…!

एक राजा के इकलौते बेटे की शादी किसी मध्यवर्गीय परिवार की गुण-संपन्न बेटी के साथ तय हुई. वहाँ एक रिवाज है कि लड़के वाले के यहाँ से शगुन के रूप में सामर्थ्य भर चीज़ें भेजी जाती है. अब जब राजकुमार की ही शादी थी तो ज़ाहिर है कोई भी कोर-कसर नहीं रहने दी गयी होगी. लेकिन रिवाज ये भी है कि गांव की महिलाएं शादी में आये सामान की आलोचना भी करते हैं. तो उन सब लोगों ने तय किया कि जब राजा के यहाँ से चना आएगा तो हम सब लोग मिल कर कहेंगे कि कैसा राजा है एक चने का नाक भी सीधा कर नहीं भेज सकता था, सभी चने का नाक टेढा है. नक्सल जैसे गंभीर मुद्दे पर विमर्श करते हुए इस तरह की कहानी ज़रूर आपको उथली सी लगेगी. खास कर तब और जब इसी हफ्ते इन लुटेरों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में अब तक का सबसे बडा हमला कर 76 जवानों की निर्ममता पूर्वक ह्त्या कर दी हो. लेकिन इस कहानी से आप नक्सलवाद को वैचारिक आधार प्रदान करने वाले कलम के सौदागरों का हाल जान सकते हैं. वास्तव में देशद्रोहियों के टुकड़े पर पलने वाले कुछ कलमकारों के संगठित गिरोह का भी केवल इतना ही लक्ष्य रहता है कि देश के किसी भी कोने से इस तरह के “चने” को खोज कर लोकतंत्र रूपी चने के टेढ़े नाक को अंतराष्ट्रीय समस्या का दर्ज़ा दे दिया जाय. हालांकि उपरोक्त का कही से यह आशय नहीं है कि लोकतंत्र में सब कुछ बिलकुल सही सलामत है. वास्तव में “सबसे अच्छी” व्यवस्था जैसी कोई चीज़ कभी हो भी नहीं सकती. जब एक परिवार के दो भाइयों में समग्र समन्वय संभव नहीं तो आखिरकार 125 करोड लोक के तंत्र में कहाँ से सबकुछ आदर्श जैसा हो सकता है. लेकिन सवाल न्यूनतम बुराई को चुनने का है और इस मानदंड पर वर्तमान समाज में लोकतंत्र के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

लेकिन जहां तक लोकतंत्र की विसंगतियों के बहाने नक्सलियों का सर्थन करने का सवाल है तो आप गौर करें…..! हाल तक इनसे बातचीत का आपराधिक राग अलापते गृह मंत्री को भी पता नहीं है कि वार्ता के बिंदु क्या हो सकते हैं. नक्सलियों के पक्ष में जार-जार आंसू बहाने वाले घरियाल भी आज तक कह नहीं पाए हैं कि आखिर नक्सलियों को चाहिए क्या? बस चुकि अपनी दूकान चलानी है तो कही से एक समस्या खोज कर लाओ और उसकी अच्छी पैकेजिंग की व्यवस्था करो और शुरू हो गयी अपनी दुकानदारी. समझ में आने लायक मामला केवल उन 2000 करोड के सालाना वसूली का है जिसके कारण इतना प्रपंच और मजलूमों की जान ली जा रही है. अगर विचारधारा की बात करें तो इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि इसके जन्मदाता “कानू” ही इस आंदोलन को आतंक का नाम दे रहे थे. ख़बरों के अनुसार आहत हो कर इन्होने आत्महत्या भी कर ली. यहाँ पर शिकायत पतित नक्सलियों से नहीं है. उन पर काफी कुछ लिखा जा रहा है. बल्कि अब लिखने से ज्यादा उनको उन्ही की भाषा में जबाब देने वाले जवानों का मनोबल बढाने की है. निश्चय ही अपने कुछ सौ जवानों की शहादत पर लोकतंत्र का मनोबल कम नहीं होने वाला. दुगनी जोश और बदला लेने की भावना से अपने वीर टूट पड़े इन अभागों पर, यह भरोसा है. ज़रूरत केवल कलमकारों के भेष में छुपे नागिनों की पहचान करने और उनका सामाजिक बहिष्कार करने की है. नाम लेकर भी कहने में हर्ज नहीं है कि लोकतंत्र के विरुद्ध जम कर विषवमन करने वाले अरुंधती राय जैसों के विष का दांत तोड़ देने की ज़रूरत है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आसरा लेकर लोकतंत्र को बेजुबान करने, झूठा-सच गढ़ सरकारों को बदनाम करने की साज़िश ऐसे लोगों को पता होना चाहिए कि वे अपनी उच्छृंखल अभिव्यक्ति दे कर भी इनकी जुबान इसलिए सही सलामत रह जाता है क्युकी देश में नक्सलियों का शासन नहीं है. कहीं पर किसी एक नक्सलियों का वध हो जानेपर आसमान सर पर उठा लेने वाले इन टूच्चों को सरकारी शिविरों में रहने वाले एर्राबोर के पचासों आदिवासियों को मार देने पर भी उफ़ तक करते नहीं सुनेंगे. मानवाधिकार के नाम पर अपनी ज्ञान बघारने वाले ये अभागियां वही की 1.5 साल की बची “ज्योति कुटट्यम” को ज़िंदा जला देने पर भी अपने खोल से बाहर नहीं निकलेंगी. एक कोई आज़ाद नामक नक्सली कही सैर करने के लिए भी निकल पड़े तो ये चोट्टे उच्चतम न्यायालय तक पहुच जायेंगे. लेकिन रानीबोदली में शहीद 35 आरक्षी गण हो या फिर महाराष्ट्र की सीमा से लगे राजनांदगांव के मदनवाडा में शहीद हुए एसपी विनोद चौबे समेत 29 जवान या ताज़ा हमले में शहादत प्राप्त दांतेवाडा के ही 76 देशभक्त, इन लोगों के लिए संवेदना के चंद शब्द कहते भी इनके जुबान को लकवा मार जाएगा. हालांकि अरुंधती एक मात्र ऐसी दुकानदार नहीं हैं. लेकिन चुकी अभी दांतेवाडा पर उन्ही के द्वारा लिखे गए यात्रा-वृतांत की काफी चर्चा है इसलिए उसी पर ध्यान केंद्रित करता हूँ.

खुफियागिरी में पूर्णतः विफल हमारे रणनीतिकारों को अब यह समझ लेना चाहिए कि जब भी बहुत प्यारे से शब्दों में, नाटकीय लेकिन पठनीय तरीके से किसी जगह जाकर “राय” कुछ लिखे तो वहाँ की सुरक्षा चार गुनी कर दीजिए. सीधा सा मतलब उसका येनिकालिए कि आतंकी किसी बड़े हमले को अंजाम देने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं ताकि ऐसे वृतांतों से वो खुद को जस्टिफाई कर पाएं. जब-जब भी किसी आतंकी के तरफ से किसी गोरे कलमकारों को आमंत्रण मिले तो समझ लीजिए कि हमें अपने कुछ और जवानों को खोना है.

आपने छोटे-छोटे शहरों से, भारी बोर दोपहरों से झोला उठाकर, अपने कांख में गुलशन नंदा का उपन्यास दबाये ड्राइवर याँ माली के साथ भाग गयी लड़कियों के बारे में फिल्मों में देखा होगा. या किसी लुगदी जासूसी साहित्य पढ़ कर उसी तरह अपराध को अंजाम देने वाले युवकों की खबर भी आपने पढ़ी होगी. वैसे ज़रूर आप इन जैसे लोगों के लेखन को लुगदी साहित्य नहीं कह सकते. कोई पाश्चात्य पुरस्कार मिल जाने के बाद तो वैसे भी अपने यहाँ लेखक को महान मान लेने की परंपरा है. लेकिन साहित्य भले ही उत्कृष्ट ही हो मगर उसका आशय लोगों को उसी तरह भडकाना या लोकतंत्र को छिन्न-भिन्न कर देना हो तो आखिर क्या किया जा सकता है. साहित्य समाज के लिए हो या अपने कुंठा को शब्द देने के लिए यह देखना और सोचना तो होगा ही. ऊपर जिस लड़की या युवा के रोमानीपन की बात कही गयी है वह हम ही नहीं खुद नक्सलवाद के जन्मदाता कानू भी अंत में मानने लगे थे. वैसे कर्मवीरों को क्युकर आखिरकार आत्महत्या का सहारा लेना पड़ा, इस पर भी विमर्श करना होगा. लेकिन सवाल तो यह भी हैकि आखिर किसी को बुढापे के बाद चीजें समझ में आये और तब-तक वो समाज को अपूरणीय क्षति पहुचा चुका/चुकी हो तो क्या मतलब. वैसे जिस तरह घर से भागी लडकियां भी बाद में पछतावा होने पर भी अपनी गलती स्वीकार नहीं पाती, लोक-लाज या अपने इगो के कारण सम्बन्ध को चुनौती मान भी किसी तरह निर्वाह करती रही हैं. उसी तरह भले ही ये अपनी बात पर अड़ी भी रह सकती है लेकिन क्या आतंक को प्रोत्साहन देने के अपराध में उनपर कारवाई नहीं की जा सकती?

“आतंक पर्यटन” भी एक नया लेकिन दमदार कांसेप्ट है. लोग तो ढेर सारी कठिनाइयों के बावजूद उत्तरी ध्रुव, अंतरिक्ष या एवरेस्ट की एडवेंचर वाले यात्रा पर निकल पड़ते हैं, उसी तरह अगर कभी आप पांच और सात सितारा होटल के अय्याशी से ऊब कर लाख सितारे वाले आसमान के नीचे सोने को निकल पड़ें. होटल के पाश्चात्य कमोड से उकता कर प्लास्टिक के बोतल के पानी से निवृत होने या देश के सुरक्षित स्थानों को छोड़ अपने अतिथि मुस्टंडों के साथ सोने चले जाय तो कोई उपकार थोड़े कर रहे होंगे लोकतंत्रपर? हालाकि आपके ऐसे किसी अय्याशी से कोई तकलीफ भी नहीं किसीको. 60 के दशक के हिप्पियों की तरह आप भी नक्सलियों के सौजन्य से हीच-हाईक करते हुए साईकिल की यात्रा करें तो आपकी मर्जी. लेकिन अगर उसके बहाने आप देश के 76 जवानो की शहादत का पृष्ठभूमि तैयार कर रही हों तो ऐसे हाथ को कुचल नहीं देने वाला शासन कायर ही कहा जाएगा. कश्मीर में जाकर उसे विदेश का हिस्सा बताना या बस्तर में आ कर आदिवासियों को हन्दू या भारतीयता से अलग करने की साज़िश वाले जुबान को क्या तराश नहीं लिया जाना चाहिए? अभी इसी तरह एक ऐसे ही सरफिरे ने नक्सल हमले के अगले दिन जनसत्ता में अपना पुण्य-प्रशून बरसाया. वो लेखक भी किसी एक गांव की चर्चा कर वहाँ बाबुओं के सही समय पर दफ्तर आने, बिजली-पानी आदि की उचित व्यवस्था का गुणगान करते नही थक रहा था. अगर उस लेखक की बात सही मान भी ली जाय तो क्या आपातकाल के बारे में भी लोग यही नहीं कहते कि उस समय सब अपना-अपना काम इमानदारी से कर रहे थे? तो क्या थोप दिया जाय वैसा ही आपातकाल? फिर इन कलम घिस्सुओं का क्या होगा ये सोचा है इन लोगों ने कभी? सुरसा के मूह की तरह इन शहरी आतंकियों का भी ओर-अंत नहीं. बस देश को नक्सलियों से मुक्त करने के प्रयास में लोकतंत्र के खेबैये लोग इन कु-बुद्धिजीवियों को भी मद्देनज़र रखें….यही निवेदन…..

3 COMMENTS

  1. पंकज जी सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा की जाके पैर ना फटी बेवाई वो क्या जाने पीर पराई.
    जब पत्रकारिता सरकार की जुबान बोलने लगे तो समझ लीजिये की हो गया देश का बंटाधार. सरकार कहती है की देश से मैला ढ़ोने की प्रथा समाप्त हो गयी है मगर क्या ऐसा है ?मैला ढ़ोने वालों को पुनर्वासित करने की योजना मैला ढ़ोने वालों को तो लाभ नहीं पंहुचा रही है अपितु सरकारी अफसरों को पूंजीपति जरूर बना रही है.
    अब मै क्या – क्या उदाहरन प्रस्तुत करूं.
    आपका लेख पढ़ कर ढेर सारी उलटी करने का मन करता है,

  2. क्या सही लिखा है। जुग जुग जियो। अरुंधती को पुरस्कार ही इसी लिए दिया गया है। विदेशी पुरस्कारों का इतिहास कहता है– जो भारत को जितनी गाली दे उतना बड़ा पुरस्कार। अब उन्होंने पैसे लिए हैं तो काम तो करेंगी ही। यह भारतवासियों को समझना है कि उन्हें देश से निकाला जाय या सिर पर बैठाया जाए।

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