राजनीति

राज्यपालों की धूमिल होती गरिमा

-प्रमोद भार्गव-
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राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति और उनके पूर्वाग्रहों से प्रभावित कार्यप्रणाली से राज्यपाल जैसे पद की गरिमा हमेशा विवादग्रस्त होकर धूमिल होती रहती है, इसलिए जब केद्रीय सत्ता में परिवर्तन होता है तो राज्यपालों के बदले जाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। 2004 में संप्रग सरकार के वजूद में आते ही उन चार राज्यपालों को बदल दिया गया था, जिनकी नियुक्ति अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने की थी। अब यही राजनीतिक त्रासदी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार कुटिल चतुराई से बरतने जा रही है। इस सरकार ने संप्रग के कार्यकाल में तैनात हुए राज्यपालों को बदले जाने का कोई प्रशासनिक आदेश तो नहीं दिया, लेकिन खबरों के मुताबिक केंद्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने करीब पांच राज्यपालों को तत्काल इस्तीफा देने के लिए कहा है। इस तथ्य की पुष्टि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी द्वारा पद से इस्तीफा देने के क्रम में होती है। यही नहीं गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी यह बयान देकर कि यदि ‘वे राज्यपाल होते तो अभी तक नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे चुके होते‘ साफ कर दिया है कि मौजूदा सरकार भाजपा से विपरीत विचारधारा रखने वाले राज्यपालों को बर्दाश्त नहीं करेगा। इसी तारतम्य में राज्यपाल खुद इस्तीफा दे दें, ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया है। इस बदलाव में बदले की भावना भी अंतिर्निहित है।

वैसे हकीकत तो यह है कि राज्यपाल का राज्य सरकार में कोई सीधा दखल नहीं है, इसलिए इस पद की जरूरत ही नहीं है। लेकिन संविधान में परंपरा को आधार माने जाने के विकल्पों के चलते राज्यपाल का पद अस्तित्व में बना हुआ है। आंग्रेजी राज में वाइसराय की जो भूमिका थी, कमोवेश उसे ही संवैधानिक दर्जा देते हुए राज्यपाल के पद में रूपांतरित किया गया है। वाइसराय जिन राजभवनों में रहते थे, उन्हीं वैभवशाली राजभवनों में लोकतंत्र के राज्यपाल उसी ठाठ-बाट से रहते हैं। इनके पास राजसी वैभव को बनाए रखने पर अरबों रूपए हर साल खर्च होते हैं। इसका अभिशाप रोटी को तरसती 67 फीसदी वह आबादी भोग रही है, जिसके लिए संप्रग सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाई थी। बावजूद विडंबना देखिए कि मनमोहन सिंह सरकार ने ‘राज्यपाल‘ संशोधन विधेयक-2012 पारित कराया। इस विधेयक के मुताबिक पूर्व राज्यपालों को आजीवन पेंशन, भत्ते, सरकारी आवास, संचार और निजी सहायकों की सुविधाएं सरकार मुहैया कराती रहेगी। मसलन सेवा निवृत्ति के बाद भी राज्यपालों का संस्थागत ढांचा बदस्तूर रहेगा। यह संवैधानिक उपाय कुछ वैसा ही है, जैसा आजादी के बाद राजा-महाराजाओं को प्रीवीपर्स देने के प्रावधान किए गए थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस सुविधा को गरीब जनता पर बोझ मानते हुए एक झटके में खत्म कर दिया था। इस संषोधित विधेयक को लाते वक्त कई दलों के नेताओं ने संसद में चर्चा के दौरान राज्यपाल पद को औपनिवेशिक काल से चली आ रही गुलामी की विरासत और सफेद हाथी बताते हुए, इसे खत्म कर देने की वकालत भी की थी, लेकिन विरोधामास यह रहा कि डेढ़ घंटे की बहस के बाद विधेयक को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। जाहिर है, इस पद की उपयोगिता पर गंभीर समीक्षा की जरूरत है।

बावजूद यदि परंपरा के सम्मान और राज्यपाल की गरिमा को बनाए रखना है तो मौजूदा केंद्र सरकार 1988 में गठित सरकारिया आयोग की उन सिफारिशों को अमल में लाए, जिनके तहत राज्यपाल की भूमिका एक हद तक निर्विवादित रहे। इस मकसद पूर्ति के लिए मुख्यमंत्री की सलह से राज्यपाल की तैनाती की सिफारिश की गई है।
इस आयोग का गठन नियुक्ति में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से राजीव गांधी सरकार ने किया था। इसी परिप्रेक्ष्य में 2001 में अंतरराज्यीय परिशद् द्वारा बुलाई गई बैठक में सहमति बनी थी कि यह पद संवैधानिक गरिमा के अनुकूल बना रहने के साथ राजनीतिक दुराग्रह से भी निष्प्रभावी रहे। इस हेतु राज्यपाल की नियुक्ति अनिवार्य रूप से प्रदेश के मुख्यमंत्री से पर्याप्त सलाह मशविरे के बाद ही की जाए ? परिषद् ने यह सलाह भी दी थी कि एक तो राजनीति से जुड़े व्यक्तियों को राज्यपाल न बनाया जाए, दूसरे जो राज्यपाल सेवा मुक्त हो जाएं उन्हें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में हिस्सा लेने के आलावा अन्य कोई चुनाव लड़ने अथवा प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधि में भागीदारी से प्रतिबंधित किया जाए। किंतु बैठक में ’राजनीतिक गतिविधि’ की व्याख्या स्पष्ट नहीं जा की सकी और इस बहाने परिषद् की सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गईं।

मसलन धर्मनिरपेक्ष देश होने के कारण हमारे यहां धर्म आधारित अनेक संगठन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर से राजनीति, धर्म और सार्वजनिक जीवन में समान रूप से क्रियाशील हैं। अर्थात कई संगठन ऐसे हैं, जो ‘राजनीति मे हैं भी और नहीं भी’ कि स्थिति में हैं। जैसे भाजपा से जुड़े संगठन राश्ट्र्रीय स्वंय सेवक संघ,बंजराग दल और विष्व हिंदू परिषद्। इसी तर्ज पर मुस्लिम लीग से जुड़े सिमी और जमात ए इस्लामी हैं। सपा भी अपना राजनीतिक वजूद और मुस्लिम वोट बैंक पुख्ता बनाए रखने के नजरीए से इस्लामिक संस्थाओं का सहयोग ले रही है। ये तमाम संगठन ऐसे हैं, जो खुद को राजनीतिक संगठन तो नहीं मानते, किंतु अप्रत्यक्ष तौर से राजनीतिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहते हैं।

असल में हमारे देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति बनाम विकृति पिछले ढाई-तीन दशक में पनपी है, उसमें संविधान में दर्ज स्वायत्ता का परंपरा के बहाने दुरूपयोग ही ज्यादा हुआ है। न्यायालय, निर्वाचन आयोग और कैग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी जान-बूझकर आक्रामक प्रहार किए गए। ऐसे में राज्पाल तो सीधे राजनीतिक हित साधन के लिए केंन्द्रीय सत्ता द्वारा की गई नियुक्ति है। गोया राज्यपाल को प्रतिपक्ष संदेह की दृश्टि से देखता है। अक्सर इस पद को हाषिए पर पड़े थके-हारे उम्रदराज नेताओं अथवा सेवानिवृत नौकरशाहों से नवाजा जाता है। इन उपकृत राज्यपालों को जहां केंद्र्र अपना चाकर मानकर चलता है, वहीं ऐसे राज्यपाल भी स्वंय को नियोक्ता सरकार का नुमाइंदा समझने लग जाते हैं। लिहाजा पद की गरिमा के उल्लंघन में वे न तो शर्म का अनुभव करते हैं और न ही उन्हें संविधान की मूल भावना के आहत होने की अनुभूति होती है। हकीकत में वे केंद्र के एहसान का बदला चुका रहे होते हैं। पद की अवमानना और इसके औचित्य पर ऐसे ही कारणों के चलते सवाल खड़े होते हैं ?

राज्यपाल की हैसियत और संवैधानिक दायित्व की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायमूर्तियों की खंडपीठ ने 4 मई 1979 को दिए फैसले में कहा था कि ‘यह ठीक है कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं। जिसका अर्थ हुआ कि उपरोक्त नियुक्ति वास्तव में भारत सरकार द्वारा की गई है। लेकिन नियुक्ति एक प्रक्रिया है, इसलिए इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राज्यपाल भारत सरकार का कर्मचारी या नौकर है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हर व्यक्ति भारत सरकार का कर्मचारी नहीं होता। यही स्थिति राज्यपाल के पद पर लागू होती हैं।

बावजूद ज्यादातर राज्यपाल संविधान की बजाए नियोक्ता सरकार के प्रति ही उत्तरदायी बने दिखाई देते हैं। यही वजह है कि गाहे-बगाहे वे राज्य-सरकारों के लिए परेषानी का सबब भी बन जाते हैं। इसलिए इस संस्था को गैरजरूरी करार दे दिया जाता है और इसके स्थान पर उच्च न्यायालयों अथवा प्रमुख सचिवों को राज्यपाल के जो गिने-चुने दायित्व हैं, उन्हें सौंपने की बात राज्यपाल संशोधन विधेयक को पारित करते समय उठाई गई थी लेकिन इन बातों को दरकिनार कर दिया गया। दरअसल, राज्यपाल का प्रमुख कर्तव्य केंद्र सरकार को आधिकारिक सूचनाएं देना है। लेकिन राज्यपाल तार्किक सूचनाएं देने की बजाए, केंदीय सत्ता की मंशा के अनुरूप राज्य की व्यवस्था में दखल देने लग गए हैं। इस वजह से राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव के हालात पैदा हो रहें हैं। पिछले साल तब राज्यपाल की गरिमा को जबरदस्त आघात लगा था, जब बिहार के एक राज्यपाल पर विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की रिश्वत लेकर नियुक्तियां किए जाने का मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया था। न्यायालय ने भी इस मामले में पाया था कि राज्यपाल ने अपने अधिकारों का दुरूपयोग एवं पक्षपात किया है। दरअसल, संविधान की मूल भावना में निहित है कि संघ और केंद्र के बीच एकात्मता बनी रहे। किंतु राज्यपाल इस भावना के अनुपालन में खरे नही उतरे। वे केंद्र का अनैतिक रूप से भी हित साधने लग जाते हैं। इस वजह से राज्यपाल के पद के औचित्य पर सवाल उठते हैं। इसी वजह से इस व्यवस्था को आर्थिक बोझ व गैर जरुरी माना जाने लगा। लिहाजा इस पद की जरुरत के औचित्य की तलाश, वर्तमान राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में खोजने की जरुरत है।