राजनीति

पश्चिम बंगाल में नए चेहरे के साथ माओवादियो की सरकार !

पश्चिम बंगाल की फिजा एक झटके में ही बदल गयी लाल दुर्ग ढहा दिया गया है और उस पर हरे रंग का लेप लग चुका है. ममता की कई सालोकी मुख्यमंत्री बनने की आतुरता भी कुछ ही दिनों में पूरी होने वाली है. 34 सालो से सत्ता पर काबिज़ कम्युनिस्ट कैडर रास्ते पर आ चुकी है और शायद अगले 5 सालो तक इस करारे हार का कारण खोजते नज़र आयेंगे और राजनैतिक विश्लेषण से अपना गम दूर करेंगे. पर शायद बंगाल का दुर्भाग्य ही है कि दोबारा भी सरकार उन्ही शर्तो पर बन पायी है जिन शर्तो के कारण 34 साल पहले पश्चिम बंगाल वाम दुर्ग में तब्दील हुआ था. तब भी सरकार तत्कालीन नक्सलवाद ने बनवाई थी और आज भी ममता दीदी को माओवादियो ने ही सरकार में लाया तब भी उद्योग और विकास विरोधी सरकार बनी थी और आज भी ऐसी ही सरकार बनी. भारत की कभी राजधानी रही कोलकाता आज गलियों में सिमटी हुई सी नज़र आती है और उसके विपरीत दूसरे बड़े शहरों की छबि रोज बदलती जा रही है. मुझे भी अपने परिवार के साथ बचपन में बंगाल छोड़ना पड़ा था क्योंकि उस समय रोजगार की कमी ने मेरे अभिभावकों को कोलकाता छोड़ने पर मजबूर कर दिया था, पर अपने प्रदेश से जुदा होने का दर्द आज भी मेरे मन में कहीं न कहीं बसा हुआ है . क्योंकि वहां ऐसी फिजा है जिससे उद्योग प्राय:मृत हो रहे हैं और नए उद्योगों को बढ़ावा देने वाली सरकार कभी बन ही नहीं पाती है. जब कम्यूनिस्टो ने उद्योग का रास्ता अपनाना चाहा तो उन्हें भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया . आज बंगाल के मुख्यमंत्री तक अपना कुर्सी नहीं बचा पाए आखिरकार सिंगुर कि आंधी ने उन्हें भी हार का स्वाद चखा दिया .

ये सादगी भी किस काम की जिससे बंगाल कि उन्नति और विकास बिलकुल थम सी गयी है और दूसरे प्रदेश की तरक्की बंगाल को मुह चिढाने लगे है . आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है 100 फीसदी शिक्षित बंगाल को तरक्की और विकास के पटरी पर दौड़ने देना नहीं चाहती है . दूर की देखे तो ये बहुत बड़ी साजिश सी लगती है जो बंगाल के युवा को सर उठाने नहीं देना चाहती है और उन्हें माओवादी और नक्सलवादी गतिविधियों में धकेलना चाहती है. विकास माओवादियो की सबसे बड़ी दुश्मन और शायद इसी कारण आज माओवादी ममता को चुनावो में पिछले दो साल से खुलकर मदद करते आ रही है.

तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गटबंधन को इस बार माओवादियो ने इस विधानसभा में खुलकर मदद कि और कम्युनिस्ट जो इनके खास बनते थे बस दांतों टेल ऊँगली दबाते हुए ये खेल देखते रह गए और उससे ज्यादा उनके करने को कुछ था भी नहीं. कांग्रेस की चालाकी तो इससे ही समझ आ जाती है कि वो माओवादियो के हीरो विनायक सेन को योजना आयोग कि कुर्सी तक दे देते है. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जो इस देश में सही मायनों में प्रजातंत्र को पनपने ही नहीं देना चाहती है और शायद इन्ही कारणों से वो हर राज्य में नया गटबंधन करते नज़र आती है. हाल ही में मायावती जो कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन है उत्तर प्रदेश में वो केंद्र में कांग्रेस को समर्थन करते नज़र आई वो भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पे तो ये कैसा लोकतंत्र के साथ चाल है कांग्रेस का. पश्चिम बंगाल को भी आज ममता ने कही न कही कांग्रेस के साथ मिलकर छला है और माओवादियो के साथी से इससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.

ये ममता बनर्जी वही शक्शियत है जो जयप्रकाश जैसे जननेता की गाडी पर चढ़ गयी थी और एक बार तो उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष पे कागज़ भी उछाल फेका था तो आखिर ऐसी अभद्रता के बदले बंगाल के भद्र लोगो ने कैसे उन्हें कुर्सी तक पहुचाया इसे आनेवाले 5 सालो में समझ आएगा. खैर ये भी सही है कि बंगाल के लोगो के पास कोई दूसरा उपाय नहीं था और उन्हें जब लगा की अन्धो में काना राजा को चुनना है तब उन्होंने ममता को चुन लिया.