सरकार के जाने का समय अभी नहीं आया है

सिद्धार्थ शंकर गौतम

अर्थव्यवस्था के लिए कड़े सुधारों को बिना सहयोगी दलों से विचार-विमर्श किए जनता पर लादना केंद्र सरकार को महंगा पड़ने लगा है| मंगलवार शाम हुई तृणमूल कांग्रेस की बैठक के बाद ममता ने सरकार से समर्थन वापसी का एलान क्या किया मानो राजनीतिक परिदृश्य में ही भूचाल ही आ गया| कोई मध्यावधि चुनाव की भविष्यवाणी करने लगा तो किसी को कांग्रेसी जहाज डूबता नज़र आ रहा है| जबकि हकीकत यह है कि ममता के समर्थन वापसी के कदम से केंद्र सरकार की स्थिरता पर कोई नकारात्मक असर पड़ता नहीं दिख रहा| फिर बुधवार को कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में ममता को मनाने की चर्चाओं के बीच सरकार कहीं न कहीं बैकफुट पर नज़र आई| हालांकि ममता के सरकार के समर्थन वापसी के फैसले पर अडिग रहने के बावजूद सरकार के पास बहुमत तो है ही| सरकार को बहुमत के लिए २७२ सांसदों का समर्थन चाहिए जबकि ममता को मिलाकर सरकार के पास २६८ सांसदों का समर्थन है| सपा के २२ और बसपा के २१ सांसद सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं| यदि ममता मान जाती हैं तो ठीक वरना सरकार अन्य सहयोगियों को साम्प्रदायिक ताकतों की सत्ता में वापसी का भय दिखाकर अपना हित साध लेगी| ऐसे में मध्यावधि चुनाव की नौबत तो कतई नहीं आने वाली| तब क्यों सरकार ममता को मनाने की जद्दोजहद में लगी है? आखिर क्यों ममता के समर्थन वापसी के फैसले को सरकार पलटवाना चाहती है? क्यों बैठकों के मैराथन दौर चल रहे हैं? दरअसल ममता के समर्थन वापस लेने से भले ही सरकार २०१४ तक अपनी गाड़ी खींच लें किन्तु ऐसी सूरत में उसे कई समझौतों से दो-चार होना पड़ेगा जो उसकी भावी राह को कुंद करने का माद्दा रखते हैं| यह तो विदित है कि मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे के गठन हेतु प्रयासशील हैं और खुद को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर काबिज देखना उनका शगल बन चुका है| वहीं कभी बिहार की राजनीति में प्रभावशाली लालू प्रसाद यादव भी अपनी खोई राजनीतिक ताकत पाने हाथ का साथ चाहते हैं| कुछ यही हाल रामविलास पासवान और उन जैसे तमाम नेताओं का है जो आज हाशिए पर पड़े हैं| ममता की सरकार से विदाई कांग्रेस के समक्ष समझौतावादी व्यवस्था को आगे लाएगी जिसमें लालू पुनः रेल मंत्री बनने की मांग रख सकते हैं तो मुलायम प्रधानमंत्री का सपने संजोये रक्षा मंत्री के पद पर अपना दावा प्रस्तुत कर सकते हैं| दलित राजनीति के नाम पर पासवान राजनीति रोटियाँ सेंकने का काम कर सकते हैं तो कुछेक सांसद स्वहितों को साधने की गरज से सरकार पर दबाव बना सकते हैं| हालांकि यह अभी मात्र कयासबाजी ही है किन्तु राजनीतिक परिदृश्य में कयासबाजियों का भी अपना ही अलग महत्व होता है क्योंकि राजनीति में कोरी गप नहीं हांकी जाती बल्कि उसी आंकलन को प्रस्तुत किया जाता है जिसकी संभावना सबसे अधिक होती है|

जहां तक ममता की भावी राजनीति की बात है तो ममता का सरकार से समर्थन वापस लेना जनता की नज़रों में उनके राजनीतिक कद को बढ़ा ही गया, साथ ही उनके फैसले ने सरकार को रोलबैक के लिए मजबूर कर दिया है| यदि सरकार की अस्थिरता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं तो उसमें काफी हद तक ममता का कड़ा रुख ही जिम्मेदार है| किन्तु एक सवाल यहाँ उठाया जाना प्रासंगिक है कि क्या ममता भी केंद्र सरकार को झुकाने के एवज में अपने राजनीतिक हित देख रही हैं? दरअसल ममता ने भले ही सरकार से बाहर आने की विधिवत घोषणा कर दी हो किन्तु संभावनाओं की एक खिड़की तो वे भी छोड़कर चल रही हैं| यदि ममता सच में सरकार को अलविदा कहना चाहतीं तो शुक्रवार तक अपने मंत्रियों के इस्तीफे सौंपने का पैंतरा नहीं चलतीं| ममता चाहती तो राष्ट्रपति के पास सरकार से समर्थन वापसी का पत्र भेज सकती थीं किन्तु उन्होंने ऐसा भी नहीं किया| कुल मिलाकर ममता भी विशुद्द रूप से राजनीति कर रही हैं| डीजल और घरेलू गैस सिलेंडर पर की गई मूल्यवृद्धि से देश में केंद्र सरकार के विरुद्ध आक्रोश है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है| ऐसे में सरकार के फैसलों के साथ जो भी कदमताल करता दिखेगा, जनता उसकी राजनीति की धार को कुंद करने में अधिक नहीं सोचेगी| शायद यही सोचकर ममता ने समर्थन वापसी का पुख्ता सियासी दांव चला है|

अगले ४८ घंटे केंद्र सरकार के लिए काफी अहम हो सकते हैं| परदे के पीछे ममता को राजग में लाने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं तो माया-मुलायम का एक साथ आना असंभव है| यानी तीसरे मोर्चे की संभावना पुनः जन्म लेने लगी है| मुलायम सिंह ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं किन्तु उनकी राजनीतिक समझ को देखते हुए कहा जा सकता है कि वे कोई ऐसा फैसला नहीं लेंगे जो उनकी और उत्तरप्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार के लिए आत्मघाती सिद्ध हो| मायावती तो वैसे भी उत्तरप्रदेश की हार से सदमे में हैं और उन्हें सीबीआई की जांच से बचने के लिए कांग्रेस के चरणों में आना ही होगा| सरकार के अन्य सहयोगी दल अभी इस स्थिति में नहीं है कि वे हाथ का साथ छोड़ खुद की राजनीतिक ज़मीन पुख्ता कर सकें| कुल मिलाकर केंद्र सरकार को लेकर राजनीतिक ड्रामेबाजी का सुनियोजित कार्यक्रम चल रहा है जहां देशहित से अधिक स्वहितों को तवज्जो दी जा रही है और यदि ऐसा न होता तो एक हफ्ता पहले तक मीडिया की सुर्ख़ियों में शामिल कोयला घोटाले को राजनीतिक दल भुला नहीं देते| जनता को छलना कोई राजनीतिक दलों से सीखे|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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  1. ममताजी ..परिवार केन्द्रित और व्यक्ति केन्द्रित राजनीतिक पार्टीयॉं, जनतांत्रिक प्रणाली में टिकेगी नहीं.| कॉंग्रेस पार्टी को भी विचारमंथन की आवश्यकता है. राहुल गांधी के स्तुति गान गाने से काम नहीं चलेगा. हॉं, कुछ व्यक्तियों का चल जाएगा. लेकिन विचारों, नीतियों, कार्यक्रमों मतलब पार्टी का नहीं चलेगा. वह सव्वा सौ वर्ष पुरानी पार्टी है. कुछ व्यक्तियों की श्रेष्ठ गुणसंपदा के कारण वह टिकी और बड़ी हुई है. लेकिन श्रीमति इंदिरा गांधी के जाने के बाद से उसका र्‍हास शुरू हुआ. सोनिया जी और राहुल जी से हटकर भी उन्हें देखना होगा. मुलायम सिंह के बाद उनके पुत्र अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री क्यों बने? लोकसभा के रिक्त स्थान पर उनकी बहू डिम्पल यादव ही क्यों खड़ी होती है? कारण, वह व्यक्ति, हम उसे परिवार कहे, उस पार्टी का प्राण है. लालू प्रसाद यादव के बाद मुख्यमंत्री उनकी पत्नी राबडीदेवी ही क्यों? पार्टी में अन्य भी कोई तो होगे ही? लेकिन लालू प्रसाद को वह नहीं सूझा. २०१४ में वह पार्टी अस्तगत हुई तो आश्‍चर्य नहीं. बाळासाहब ठाकरे के बाद उद्धव ठाकरे, उनके बाद आदित्य ठाकरे लेकिन ऐसी पार्टी अखिल भारतीय स्तर तक पहुँच नहीं सकती, और अपने क्षेत्र में भी टिकेगी, इसकी भी गारंटी नहीं.आपात्काल के विरुद्ध के संघर्ष में अनेक पार्टीयॉं एकत्र आई एक मूलभूत सिद्धांत स्वीकारे. उसे प्रतिपादित करे. उसके अनुसार अपनी नीतियॉं और अपने कार्यक्रमों का प्रचार करे | यदि संभव हो तो मा.आडवाणी जी ,नरेन्द्र मोदीजी,सुब्रहमण्यमस्वामीजी ,गोविन्दाचार्यजी ,नीतीशजी में से किन्हीं को प्रधानमंत्री बनानेवाला बनिये और २०१४ की तैयारी में जुटकर २०२० के स्वप्नों का भारत बनाकर स्वामी विवेकानन्द,महर्षि अरविद ,डा. कलाम के चिंतन के मार्ग को प्रशश्त करें ~~~सुभकामनाएँ~~परशुराम कुमार ~

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