सिनेमा

अभिव्यक्ति की आज़ादी को वोटबैंक से तोल रही है सरकारें ?

vishwaइक़बाल हिंदुस्तानी

खाप पंचायतों और मज़हबी कट्टरपंथियों को कानून का डर नहीं!

फिल्म कलाकार कमल हासन की विवादित फिल्म विश्वरूपम हालांकि कुछ दिन विवाद के बाद तमिलनाडु में भी रिलीज़ हो गयी लेकिन फिल्म संेसर बोर्ड से पास होने के बावजूद जिस तरह से कट्टरपंथियों के दबाव में खुद जयललिता सरकार ने हाईकोर्ट में कानून व्यवस्था की दुहाई देकर इस के प्रदर्शन के खिलाफ स्टे लिया और हासन को कट्टरपंथियों से समझौता करने का मश्वरा दिया उससे एक बार फिर यह साबित हो गया कि हमारी सरकारों के लिये अभिव्यक्ति की आज़ादी से अहम उसका वोटबैंक होता है। सरकार की बजाये विरोध करने वालों को इस फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ कोर्ट जाने का संवैधानिक अधिकार था।

इससे पहले असहमति के बावजूद एम एफ हुसैन, तसलीमा नसरीन, आशीष नंदी और सलमान रश्दी को लेकर राज्य और केंद्र की सरकारें जो रूख अख़्तियार करती रहीं हैं उससे भी यही संदेश गया है कि हमारी सरकारों के लिये अभिव्यक्ति की आज़ादी की कीमत पर अपने वोटबैंक को प्राथमिकता देना आम बात है। यह अकेला मामला नहीं है जिससे यह साबित होता है कि हम समय के साथ उदार होने की बजाये कट्टर होते जा रहे हैं। दरअसल यही तो तालिबानी , तानाशाही और फासिस्टवादी सोच होती है कि जो हम मानते हैं वही सबको मानना होगा और जो नहीं मानेगा उसको हम नुकसान पहंुचायेंगे। जबकि होना यह चाहिये कि हम अपना विरोध दर्ज करने को कानूनी तरीके अपनायें और अगर फिर भी नाकाम रहें तो अंतिम विकल्प के तौर पर हम उस फिल्म, किताब या कलाकार का बायकॉट कर सकते हैं।

आपको याद होगा जब पहली बार मुंबई में एसटीएफ के प्रमुख हेमंत करकरे ने यह रहस्योद्घाटन किया कि कुछ हिंदुत्ववादी सोच के लोग अजमेर, समझौता एक्सप्रैस और मक्का मस्जिद में बम विस्फोट के ज़िम्मेदार हैं और उन हिंदू आरोपियों की गिरफ्तारी हुयी तो हमारे वरिष्ठ भाजपा नेता और देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री एल के आडवाणी पीएम और प्रेसिडेंट के पास यह सिफारिश करने जा पहंुचे कि ये लोग तो आतंकवादी हो ही नहीं सकते। इतना ही नहीं जब जब उन हिंदू आरोपियों की पेशी हुयी हिंदूवादियों के कोर्ट के बाहर जमकर प्रदर्शन हुए। उनको हिंदू संगठनों की ओर से पैरवी के लिये महंगे और योग्य वकील उपलब्ध कराये गये। आतंकवाद को लेकर दो पैमाने क्यों? क्या हिंदूवादियों का कोर्ट पर भरोसा ही नहीं रहा? कोई विस्फोट हो तो फौरन दस पांच मुस्लिम युवकों को इसके आरोप में संदेह के आधार पर पकड़ लो और दावा करो कि यही असली आतंकवादी हैं।

पहले यह दावा किया गया कि माना कि सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन जितने भी लोग आतंकवाद के आरोप में पकड़े जाते हैं वे सभी मुसलमान ही होते हैं। हम इस बहस में नहीं जाना चाहते कि जब पुलिस और सरकार पूर्वाग्रह के आधार पर किसी भी आतंकवादी घटना के लिये एक वर्ग विशेष को ही दोषी मान कर चलेंगे तो उनकी ही गिरफतारी होगी और अनुमान की बुनियाद पर घटना के फौरन बाद यह भी दावा मीडिया में किया जायेगा कि इस आतंकवादी घटना के लिये इंडियन मुजाहिदीन ज़िम्मेदार है। अब जब गृहमंत्री शिंदे और गृह सचिव ए के सिंह ने तथ्यों और आंकड़ों के साथ यह दावा किया कि हिंदुत्वादी सोच से प्रभावित कुछ लोग आतंकवादी घटनाओं मेें शामिल पाये जा रहे हैं तो संघ परिवार और भाजपा के नेता यह दावा करके लालपीले होने लगे कि कोई हिंदू आतंकवादी कैसे हो सकता है?

वे कह सकते थे कि हम होममिनिस्टर के दावे से सहमत नहीं हैं लेकिन यहां तो हंगामा चल रहा है कि आपने यह कहा ही क्यों? हम आपको संसद मंे बोलने नहीं देंगे, जहां जाओगे वहीं विरोध करेंगे। कमाल है हिंदू हज़ारों साल तक अपने ही दलित भाइयों के साथ अमानवीय पक्षपात और जुल्म कर सकता है, नक्सलवादी एवं माओवादी हो सकता है, गुजरात का वीभत्स दंगाई हो सकता है, सुपारी किलर हो सकता है, बलात्कारी और वीरप्पन जैसा डकैत, श्रीलंका का लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण व उड़ीसा का दारा सिंह जैसा हत्यारा हो सकता है, बाबरी मस्जिद का विध्वंसक हो सकता है लेकिन आतंकवादी नहीं हो सकता? और आतंकवादी कैसा होता है?

हाल ही में कश्मीर में प्रगाश रॉक बैंड की कक्षा दस की तीन मुस्लिम छात्राओं को जब कट्टरपंथियों ने सोशल नेट साइट्स पर खूब धमकाया तो वे सहमीं तो लेकिन अपने मिशन पर डटी रहीं लेकिन जब राज्य के मुख्य मुफती ने उनके खिलाफ बाकायदा फतवा जारी कर दिया तो वे टूट गयीं। उनको सामाजिक बहिष्कार की चेतावनी दी जाने लगी जिससे एक तो इतनी बीमार हो गयी कि मानसिक सदमें से उबरने के लिये उसे बंगलूर साइकेटिस्ट के पास ले जाया गया है। इससे पहले मुंबई में बाल ठाकरे के निधन पर सोशल साइट पर इस दिन मुंबई बंद को सम्मान व श्रध््दा की बजाये भय और आतंक से मिश्रित बताने पर दो छात्राओं को पुलिस ने शिवसैनिकों की शिकायत पर बाकायदा पकड़ कर जेल भेज दिया था।

इसी मुंबई में कुछ कट्टरपंथी मुस्लिमों ने असम और बर्मा में कथित मुस्लिम विरोधी हिंसा का विरोध करने के नाम पर जमकर पुलिस प्रशासन और दुकानदारों के साथ हिंसा का नंगा नाच किया लेकिन सरकार ने सख़्ती ना करने के आदेश वोटबैंक की खातिर दे रखे थे। हैदराबाद में अकबर ओवैसी भड़काने वाली बातें खुलेआम कहते हैं लेकिन जब तक पूरे देश में हंगामा नहीं मचता तब आंध्रा सरकार हरकत में नहीं आती और जब ओवैसी के जवाब में विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया वैसा ही भड़काने वाला बयान देते हैं तो एक बार फिर हिंदू वोटबैंक की खातिर वहां की सरकार रहस्यमयी चुप्पी साध लेती है। शाहरुख़ खान की चर्चित फिल्म माई नेम इज़ खान का सेंसर बोर्ड से पास होने और कोर्ट से स्टे ना होने के बाद भी शिवसेना ने सिनेमाघरों मंे प्रदर्शन रोकने को खासा हंगामा किया था।

पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को वानखड़े स्टेडियम में मैच खेलने से रोकने को पिच खोदना देना शिवसेना का बार बार शगल रहा है। काफी पहले दूरदर्शन पर तमस धारावाहिक जब आरएसएस के तमाम विरोध के बाद भी नहीं रोका गया था तो संघ के समर्थकों ने दूरदर्शन के स्टूडियो पर तोड़फोड़ मचा दी थी। आसाराम बापू अपने आलोचकों को कुत्ता और दिल्ली गैंगरेप की शिकार दामिनी को बलात्कार का खुद ज़िम्मेदार बताते हैं लेकिन सरकार से उनका कुछ नहीं बिगड़ता। आर्ट गैलरी, पुस्तक मेला और इंडो पाक सेमिनार या गीत संगीत के सांस्कृतिक व अन्य नापसंद प्रोग्रामों में गैर कानूनी तौर पर घुसकर आग लगाना और हिंसा करना हमारे देश में आम बात हो चुकी है। बढ़ती हुयी असहिष्णुता और अनुदारता आज देश की धर्मनिर्पेक्ष और लोकतांत्रिक छवि के लिये बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

किसी की किसी प्रकार की भी भावनाओं को ठेस पहंुच रही हो तो उसका कोर्ट जाकर कानूनी कार्यवाही करना या शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करना तो समझ में आता है लेकिन कानून व्यवस्था बिगाड़ने की खुलेआम धमकी देना और सरकारों का वोटबैंक के चक्कर में उनके दबाव में आ जाना भविष्य के लिये भारत जैसे उदार देश के तालिबानीकरण का रास्ते पर जाना माना जायेगा।

वो क़त्ल करता तो सबकी नज़र में आ जाता,

फिर ये किया कि वक़्त पर कभी दवा ना दी।