ग्राम स्वराज का अर्थ आत्मबल का होना

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1982

मनोज कुमार
महात्मा गांधी का मानना था कि अगर गांव नष्ट हो जाए, तो हिन्दुस्तान भी नष्ट हो जायेगा। दुनिया में उसका अपना मिशन ही खत्म हो जायेगा। अपना जीवन-लक्ष्य ही नहीं बचेगा। हमारे गांवों की सेवा करने से ही सच्चे स्वराज्य की स्थापना होगी। बाकी सभी कोशिशें निरर्थक सिद्ध होगी। गांव उतने ही पुराने हैं, जितना पुराना यह भारत है। शहर जैसे आज हैं, वे विदेशी आधिपत्य का फल है। जब यह विदेशी आधिपत्य मिट जायेगा, जब शहरों को गांवों के मातहत रहना पड़ेगा। आज शहर गांवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गांवों का नाश हो रहा है। अगर हमें स्वाराज्य की रचना अहिंसा के आधार पर करनी है, तो गांवों को उनका उचित स्थान देना ही होगा। ग्राम स्वराज को लेकर उनकी चिंता रही है। 25 साल पहले हमने गांधी के सपनों को सच करते हुए पंचायती राज लागू कर दिया है लेकिन गांधी की कल्पना का ग्राम स्वराज अभी भी प्रतीक्षा में है। गांधीजी चाहते थे कि ग्राम स्वराज का अर्थ आत्मबल से परिपूर्ण होना है। स्वयं के उपभोग के लिए स्वयं का उत्पादन, शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता. इससे भी आगे चलकर वे ग्राम की सत्ता ग्रामीणों के हाथों सौंपे जाने के पक्ष में थे।
गांधीजी कहते थे कि जब मैं ग्राम स्वराज्य की बात करता हूं तो मेरा आशय आज के गांवों से नहीं होता। आज के गांवों में तो आलस्य और जड़ता है। फूहड़पन है। गांवों के लोगों में आज जीवन दिखाई नहीं देता। उनमें न आशा है, न उमंग। भूख धीरे-धीरे उनके प्राणों को चूस रही है। कर्ज से कमर तोड़, गर्दन तोड़ बोझ से वे दबे हैं। मैं जिस देहात की कल्पना करता हूं, वह देहात जड़ नहीं होगा। वह शुद्व चैतन्य होगा। वह गंदगी में और अंधेरे में जानवर की जिंदगी नहीं जिएगा। वहां न हैजा होगा, न प्लेगा होगा, न चेचक होगी। वहां कोई आलस्य में नहीं रह सकता। न ही कोई ऐश-आराम में रह पायेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे।
आदर्श भारतीय गांव इस तरह बसाया और बनाया जाना चाहिए जिससे वह सदा निरोग रह सके। सभी घरों में पर्याप्त प्रकाश और हवा आ-जा सके। ये घर ऐसी ही चीजों के बने हों, जो उनकी पांच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हों। हर मकान के आसपास, आगे या पीछे इतना बड़ा आंगन और बाड़ी हो, जिसमें गृहस्थ अपने पशुओं को रख सकें और अपने लिए साग-भाजी लगा सकें। गांव में जरुरत के अनुसार कुएं हों, जिनसे गांव के सब आदमी पानी भर सकें। गांव की गलियां और रास्ते साफ रहें। गांव की अपनी गोचर भूमि हो। एक सहकारी गोशाला हो। सबके लिए पूजाघर या मंदिर आदि हों। ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं हों, जिनमें बुनियादी तालीम हों। उद्योग कौशल की शिक्षा प्रधान हो। ज्ञान की साधना भी होती रहे। गांव के अपने मामलों को निपटाने के लिए ग्राम पंचायत हो। अपनी जरुरत के लिए अनाज, दूध, साग भाजी, फल, कपास, सूत, खादी आदि खुद गांव में पैदा हो। इस तरह हर एक गांव का पहला काम यही होगा कि वह अपनी जरुरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए जरुरी कपास खुद पैदा करे। गांव के ढोरों के चरने के लिए पर्याप्त जमीन हो और बच्चों तथा बड़ों के लिए खेलकूद के मैदान हों। सार्वजनिक सभा के लिए स्थान हो। हर गांव में अपनी रंगशाला, पाठशाला और सभा-भवन होने चाहिए।
गांधीजी यह भी चाहते थे कि प्रत्येक गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में स्वावलंबी हो तभी वहां सच्चा ग्राम-स्वराज्य कायम हो सकता है। इसके लिए उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि जमीन पर अधिकार जमींदारों का नहीं होगा, बल्कि जो उसे जोतेगा वही उसका मालिक होगा। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ग्रामोद्योग की उन्नति के लिए कुटीर उद्योगों को बढ़ाने पर बल दिया जिसमें उनके द्वारा चरखा तथा खादी का प्रचार शामिल था। गांधी का मानना था कि चरखे के जरिये ग्रामवासी अपने खाली समय का सदुपयोग कर वस्त्र के मामले में स्वावलंबी हो सकते हैं। ग्रामोद्योगों की प्रगति के लिए ही उन्होंने मशीनों के बजाय हाथ-पैर के श्रम पर आधारित उद्योगों को बढ़ाने पर जोर दिया। गांधीजी द्वारा ग्रामों के विकास व ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिये प्रस्तुत कार्यक्रमों में प्रमुख थे- चरखा व करघा, ग्रामीण व कुटीर उद्योग, सहकारी खेती, ग्राम पंचायतें व सहकारी संस्थाएं, राजनीति व आर्थिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण, अस्पृश्यता निवारण, मद्य निषेध, बुनियादी शिक्षा आदि।
गांधीजी का पूर्ण विश्वास सत्याग्रह में था। वे सत्याग्रह में जिस साहस को आवश्यक मानते थे, वह उन्हें शहरी लोगों में नहीं, बल्कि किसानों के जीवन में मूर्तिमान रूप में दिखाई पड़ता था। ‘हिंद स्वराज’ में वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- ‘मैं आपसे यकीनन कहता हूं कि खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे। किसान किसी के तलवार-बल के बस न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, न किसी की तलवार से वे डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बना कर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है। बात यह है कि किसानों ने, प्रजा मंडलों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है।’
गांधीजी की कल्पना के ग्राम स्वराज्य में आर्थिक अवस्था ही आदर्श नहीं, अपितु सामाजिक अवस्था भी आदर्श थी, इसीलिये वे सभी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन पर जोर देते थे। अस्पृश्यता व मद्यपान जैसी सामाजिक बुराइयों के वे घोर विरोधी थे। वे इन्हें ग्रामों की प्रगति में भी बाधक मानते थे। गांधी जी के ग्राम स्वराज का जो सपना आज हमें अधूरा लग रहा है, वह पूरा किया जा सकता है। गांधीजी ने ग्राम स्वराज की दिशा में जो तर्क दिए थे, उन पर अमल करने के पश्चात ही हम ग्राम स्वराज की कल्पना को साकार कर सकते हैं। गांवों का आत्मनिर्भर होना, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति जागरूक होना ग्राम स्वराज की पहली शर्त है। इस दिशा में हमें आगे बढऩा होगा क्योंकि केवल सत्ता हस्तांतरण से ग्राम स्वराज की कल्पना पूर्ण नहीं हो सकती है। गांधी के विचार और कर्म केवल हमारे हिन्दुस्तान तक नहीं है बल्कि वे पूरे संसार के लिए सामयिक बने हुए हैं। अहिंसा के बल पर दुनिया जीत लेने का जो मंत्र गांधी ने दिया था, आज जिसे पूरा संसार समझ रहा है यह विस्मयकारी है कि गांधी ने एक विषय पर, एक समस्या पर चर्चा नहीं की है बल्कि वे समग्रता की चर्चा करते रहे हैं. वर्तमान समय में हम जिन परेशानियों से जूझ रहे हैं और शांति-शुचिता का मार्ग तलाश कर रहे हैं, वह मार्ग हमें गांधी के रास्ते पर चलकर ही प्राप्त हो सकता है।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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