स्वाधीनता संग्राम के महान नेता – सुभाष चन्द्र बोस

वीरेन्द्र ंिसंह परिहार
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की व्यक्तित्व एवं कृतित्व कुछ ऐसा रहा है कि वह निर्जीव एवं हतोत्साह व्यक्तियों के हृदयों में भी स्फूर्ति एवं प्राणों का संचार कर सकता है। जीवन की सभी आकांक्षाओं को उन्होने देश की आजादी की वेदी पर बलि चढ़ा दिया। आई.सी.एस. में उच्च श्रेणी प्राप्त करने पर भी आपने भारत सरकार की उस सर्वोच्च नौकरी को देश के लिए तृण के समान ठुकरा दिया
नेताजी के पूर्वज बंगाल प्रांत के चैबीस परगना जिले के केदालिया गाॅव के निवासी थे। इनका जन्म 23 जनवरी 1897 ई. को कटक में हुआ। पिता कटक में सरकारी वकील थे। सुभाष के विद्यार्थी जीवन की एक घटना अत्यंत मनोरंजक है। पड़ोस के एक गाॅव में हैजा फैलने पर सुभाष बिना माता-पिता से कहे घर से चलकर वहाॅ पहुॅच गए और कुछ दिन वहाॅ आर्ताे की सेवा कर वापस लौट आए। विद्यार्थी जीवन में एक दौर एैसा भी आया कि रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़कर संयास लेने का निश्चय कर हरिद्वार एवं वृदांवन की ओर चले गए। लेकिन साधुओं का जीवन काफी निकट से देखने के बाद उन्होने तय किया कि वह स्वतः शौर्य, साहस, एवं बलिदान के पुंज हिमालय बनेंगे। इस तरह से उनका पुनः अध्ययन क्रम चल पड़ा। एक साथी पर किये गए अपमान के प्रतिकार में प्रोफेसर पर हमला करने के चलते आप कालेज से निकाल दिए गए पर दूसरे कालेज से दाखिला लेकर आप क्रमशः आई.ए.एस.के लिए विलायत गए। उसमें पास भी हो गए, पर देश लौटने पर देश की दुःखद स्थिति देखकर आप आई.ए.एस. से इस्तीफा देकर देशबंधु की सेना में स्वयंसेवक बन गए। देशबंधु द्वारा उन्हे राष्ट्रीय विद्यापीठ का आचार्य एवं कांगे्रस स्वयं सेवक दल का कप्तान बनाया गया। इसी दौरान प्र्रिंस आॅफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार के चलते सुभाष बाबू को हिरासत में लेते हुए छः मास की सजा दे दी गई। 1922 में उत्तरी बंगाल की बाढ़ में आपने बाढ़-पीड़ितों की अद्भुत सहायता कर अपने कौशल का परिचय दिया। तत्पश्चात आप स्वराज पार्टी के प्रमुख दैनिक पत्र ‘‘फारवर्ड’’ के संपादक बनाए गए। 1924 में जब देशबन्धु कलकत्ता के मेयर बने तब आपको चीफ एग्जीक्यूटिव आॅफीसर बनाया गया। उसी बर्ष बंगाल आर्डिनेंस के अंतर्गत आपको गिरफतार किया गया,जहाॅ वह गंभीर रूप से बीमार हो गए। ऐसी स्थिति में 15 मई 1927 को सुभाष बाबू को रिहा कर दिया गया। आश्चर्य जनक बात यह है कि जेल प्रवास के दौरान ही उन्हे धारा-सभा का सदस्य चुन लिया गया। सन 1928 के कलकत्ता कांगे्रस में महात्मा गांधी के औपनिवेशिक स्वराज के प्रस्ताव पर पूर्ण स्वराज वाले संशोधन को नेताजी द्वारा पूरे दम-खम के साथ समर्थन किया गया। इसी बीच सुभाष बाबू कलकत्ता नगर निगम के मेयर बन चुके थे। इनके नेतृत्व में अंग्रेज शासन के विरोध में जुलूस निकाला गया। जुलूस में लाठियां तो बरसाई ही गई, उन्हे गिरफतार भी कर लिया गया। जेल में नाना प्रकार की यातनांएॅ दी गईं जिससे उनका टी.बी.रोग पुनः उभर आया। किसी तरह से रिहा होने पर वह स्विटजरलैंड चले गये। पिता की मृत्यु पर एक माह के लिए भारत लौटे पर अंग्रेज सरकार के बाध्य करने पर उन्हे पुनः इग्लैण्ड लौटना पड़ा। अंततः सुभाब बाबू ने तय किया कि वह वापस लौटेंगे, पर अंग्रेज सरकार का कहना था कि यदि वह भारत वापस लौटे तो जेल में ही रहना पड़ेगा। फलतः मुम्बई उतरते ही उन्हे कैद कर लिया गया, इससे पूरे देश में विक्षोभ फैल गया। अंततः जेल में स्वास्थ्य काफी खराब होने के चलते 17 मार्च 1936 को उन्हे रिहा कर दिया गया। स्वास्थ्य लाभ के लिए नेताजी को पुनः यूरोप जाना पड़ा। जब वह लंदन में थे तभी हरिपुरा-कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए जो एक बड़ी उपलब्धि थी। उस समय कांगे्रस के अध्यक्ष को राष्ट्रपति कहा जाता था। इस चुनाव में उन्होने गांधी जी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हराया था। इसके चलते कांगे्रस के एक बड़े गुट ने उनसे असहयोग करना शुरू कर दिया, जिसके चलते नेताजी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। और फारवर्ड ब्लाक नामक दल की स्थापना की इसके चलते उन्हे कांग्रेस से निर्वासित कर दिया गया।
तब तक विश्व-युद्ध के काले बादल घिर चुके थे, कांग्रेसी मंत्रि-मंडलो ने त्याग पत्र दे दिये थे। सरकार सुभाष बाबू के संकेत पर ही बंगाल में उठते तुफानो को देखकर भयभीत हो गई और नेताजी को पुनः जेल मे डाल दिया गया। नेताजी ने जेल में ही अनशन आरंभ कर दिया। फलतः सरकार ने एक महीने के लिए नेताजी को जेल से छोड़ तो दिया पर उनके घर पर कड़ा पहरा लगवा दिया। वेश बदलकर और युक्तिपूर्वक नेताजी ने अंग्रेजी सरकार को चकमा देते हुए कभी मोटर और कभी रेल द्वारा वह पेशावर पहुॅच गए। पठान जियाउद्दीन के वेश में एक काफिले के साथ देश की सीमा पार कर काबुल पहुॅच गए। काफी व्यवधानों के बाद एक जर्मन व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके वायुयान द्वारा जर्मनी पहुॅच गए। जहाॅ पर जर्मन सरकार के अतिथि बने। बर्लिन और रोम रेडियो से आपके व्याख्यान आए दिन होने लगे। जून 1943 में एक पनडुब्बी द्वारा वह टोकियो आ गए। 5 जुलाई को उन्होने आजाद हिन्द फौज के गठन की घोषणा की और आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की आजादी का संदेश लेकर आगे बांसी की रानी’’ ब्रिगेड बनाई गई। बच्चों की भी एक टुकड़ी थी। जापान, जर्मनी, इटली, चीन, मंचुरिया आदि नौ देशों ने आजाद हिंद सरकार को एकमत से स्वीकार कर लिया था। आजाद हिंद सरकार का केन्द्र पहले सिंगापुर बनाया गया, बाद में बर्मा में रंगून को ही अस्थायी सरकार की राजधानी और प्रधान कार्यालय बनाया गया। क्रमशः अनुशासन एवं व्यवस्था पूर्ण ने वाले सैनिक एव सोलह-सोलह घंटों तक मौलमीन में युद्ध करके ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा देने वाली ‘‘झांसी की रानी’’ रेजीमंेट की सैनिकाएं युग-युग तक इतिहास के पृष्ठो पर अमर ही नही रहेंगे वरन आने वाली पीीिना,
जिस दिन पहुॅचे होगे देवलोक की सीमाओं पर,
अमर हो गयी होगी आसन से मौत मूर्छिता होकर,
और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना,
और देवताओं ने लेकर धु्रवतारे की टेक,
छिड़के होंगे तुम पर तरूणाई के खूनी फूल,
खुद ईश्वर ने चीर अगूॅठा अपनी सत्ता भूल,
उठकर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक,
किन्तु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम यह स्वागत का शोर,
धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिल्कुल शांत,
और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश,
खौल कफन ताका होगा तुमने भारत की भोर,’’

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