राजनीति सिनेमा

माओवादियों की ओवर ग्राउंड आर्मी व ओडिया फिल्म अभिनेता सिद्धांत महापात्र

-समन्वय नंद

ओडिया फिल्म के सुपर स्टार तथा बीजू जनता दल से लोकसभा सांसद सिद्धांत महापात्र इन दिनों विवादों में फंसे हैं। ओडिया सिनेमा में एक हाई बजट के फिल्म का निर्माण किया जा रहा है जिसमें माओवादियों का महिमामंडम किया गया है। इस फिल्म में सांसद सिद्धांत ने नक्सलियों के एरिया कमांडर की भूमिका का निर्वाह किया है। फिल्म का मुख्य उद्देश्य आम लोगों में विशेष कर युवाओं के बीच माओवाद की विचारधारा को लोकप्रिय करना है। फिल्म की शूटिंग नक्सल प्रभावित कोरापुट के घने जंगलों में किया गया है। ऐसे आरोप भी लगे हैं कि शूटिंग के दौरान श्री महापात्र नक्सलवादियों से मिले और यहां तक की नक्सलवादियों ने इस भूमिका को और बेहतर ढंग से निभाने के लिए सिद्धांत महापात्र की सहायता भी की। इस बात का संदेह भी जताया जा रहा है कि कि माओवादी अपने विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए इस फिल्म मे भारी मात्रा में धनराशि का निवेश किया हो। फिल्म के बारे में जांच करने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा मांग की जा रही है और उनके खिलाफ राज्य के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन प्रारंभ हो गया है। इस फिल्म में अभिनय को लेकर वह जितने विवादों में नहीं रहे उससे अधिक आरोप लगने के बाद जो बयान दे रहे हैं उसके कारण अधिक विवादों में हैं। कभी वह माओवादी हिंसा को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा चलाये गये स्वतंत्रता आंदोलन के समकक्ष बता रहे हैं तो कभी उन्हें माओवाद को सही ठहरा रहे हैं। माओवादियों का सार्वजनिक रुप से महिमामंडन करने के पीछे उनकी क्या मंशा है। विस्तार से विश्लेषण करने पर चीजें स्पष्ट हो सकती हैं।

आतंकवादी हिंसा हो या फिर माओवादी हिंसा हो , अगर उनका ठीक से अध्ययन किया जाता है तो उनमें एक विशेष प्रकार की कार्य प्रणाली देखने को मिलता है। इस कार्यप्रणाली की विशेषता यह है कि यह शक्तियां केवल भूमिगत (अंडर ग्राउंड) हो कर हिंसा के माध्यम से देश को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इन सभी क्षेत्रों में यह शक्तियां दो मोर्चो (फ्रांटों) पर लडाई लडते हैं। उन्हें इस बात की स्पष्ट जानकारी रहती है कि वे आतंकवाद या माओवाद के जरिये अपनी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते। इस कारण इन शक्तियों का एक ओवर ग्राउंड सेना भी रहती है। इस ओवर ग्राउंड सेना को हथियार नहीं उठाने होते हैं। इस सेना का मुख्य कार्य अंडर ग्राउंड सेना के पक्ष में समाज में वैचारिक माहौल तैयार करना होता है। इसके अलावा कभी कोई अगर पुलिस के हत्थे चढ जाता है तो उसको समस्त प्रकार कानूनी सहायता प्रदान करना आदि होता है। एक सेना नीरिह नागरिकों की हत्या करती है , पुलों, सडक, विद्यालय भवनों को उडाती है तो दूसरी सेना हथियारों का उपयोग किये बिना उनकी सहायता करती है। इस अंडर ग्राउंड सेना व ओवर ग्राउंड सेना द्वारा आतंकवादी हो या फिर माओवादी देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते हैं।

क्योंकि ओवर ग्राउंड सेना हथियार नहीं उठाती है, इस कारण उनको कोई खतरा नहीं रहता है। जब भी कोई इस तरह की देश विरोधी शक्तियों द्वारा लोगों की हत्या की जाती है तो लोगों को माओवादियों या फिर आतंकवादियों के खिलाफ गुस्सा दिखता है। लेकिन ओवर ग्राउंड सेना के बारे में लोगों को जानकारी न होने के कारण वह इस गुस्से से बचे रहते हैं। एक बात और है। नक्सलियों की या फिर आतंकवादियों के इस ओवर ग्राउंड सेना में समाज के प्रतिष्ठित लोग रहते हैं। जैसे कलाकार, डाक्टर, पत्रकार, अध्यापक, बुद्धिजीवी आदि रहते है और समाज जीवन में उनका एक स्थान रहता है। इस कारण उनके खिलाफ आरोप लगाना भी आसान नहीं होता। नक्सलियों की या आतंकवादियों की यह ओवरग्राउंड सेना हिंसा व देश विरोधी काम करने वालों को सभी प्रकार की लाजिस्टिक सहायता प्रदान करते हैं।

मान लीजिये कोई नक्सली या फिर आतंकवादी को पुलिस पकड लेती है तो उन्हें कैसे जमानत दिलवाया जाए इसके लिए इस सेना के लोग तुरंत सक्रिय हो जाते हैं। संसद पर हमले के समय आरोपियों को बचाने के लिए दिल्ली में भी इस तरह की कमेटी बनी थी। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है, इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।

केवल इतना ही नहीं ओवर ग्राउंड आर्मी के लोग फिल्म व नाटक के माध्यम से आतंकवाद या नक्सलवाद का महिमामंडन करते है और उसको सही दर्शाते हैं। कलाकार होने के कारण सामान्य जनों को ऊपर उनका प्रभाव रहता है और इस तरह की विचारधारा को आगे बढाने के लिए वे उसका भरपूर उपयोग करते हैं। आतंकियों या नक्सलियों के एजेंडे को पूरा करने में इनकी प्रमुख भूमिका रहती है।

लेकिन इन ओवर ग्राउंड सेना के लोगों को कभी कभी दिक्कतों का सामना करना पडता है और परिस्थिति के मजबूरी में खुले तौर पर आतंकियों का या फिर नक्सलिय़ों के समर्थन में आना पडता है। इस तरह की घटना से इन पर जो नकाब रहता है वह खुल जाता है जिससे आम लोग उसका असली चेहरा देख लेते हैं। संसद पर हमले मामले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को जब फांसी देने पर चर्चा चल रही थी तब इस तरह के ओवर ग्राउंड सेना के कुछ लोगों को अफजल को फांसी देने खिलाफ सार्वजनिक रुप से बयान देना पडा था कि इससे कश्मीर की स्थिति खराब होगी। तब लोगों ने इस तरह से ओवर ग्राउंड सेना के लोगों को बेनकाब होते हुए देखा था।

ओडिया फिल्म अभिनेता तथा बीजद सांसद सिद्धांत महापात्र भी शायद इसी दौर से गुजर रहे हैं। वर्तमान तक वह पर्दे के पीछे रह कर कार्य कर रहे थे। माओवाद के समर्थन में फिल्म बनने पर और इसका जोरदार विरोध होने पर उन्हों माओवादियों के समर्थन में खुले तौर पर आना पडा है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि उन्हें माओवादी कहलाने में कोई समस्या नहीं है। उन्होंने माओवादी हिंसा को नेताजी के स्वतंत्रता आंदोलन के साथ तुलना किया है। इस तरह माओवादियों को सार्वजनिक रुप से सही ठहराने वाले व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है। भारत के संविधान न मानने वालों तथा वर्ग संघर्ष के नाम पर सर्वहारा वर्ग के ही निर्दोष लोगों की हत्या करने वालों को सही ठहराने पर भी कार्रवाई न होना अत्यंत दुखद है।

एक और प्रधानमंत्री नक्सली हिंसा को सबसे बडी चुनौती बता रहे हैं। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक नक्सलवाद के खिलाफ लडाई लडने की बात कर रहे हैं लेकिन अपने पार्टी के सांसद के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है। यह प्रश्न अपना उत्तर ढूंढ रहा है।

माओवाद समर्थक तथा इस सेना के वरिष्ठ नेता अरुंधती राय ने पिछले दिनों माओवादी हिंसा को सार्वजनिक रुप से जायज ठहराया था और सरकार से कहा था कि अगर उसमे साहस है तो उन्हें गिरफ्तार करे। हालांकि बाद में वह अपने इस बयान से पलट गयी थी और सारा दोष मीडिया पर डाल दिया था। आज वही कार्य ओडिया फिल्म अभिनेता सिद्धांत महापात्र कर रहे हैं। हो सकता है कि वह कल अपने इस बयान से पलट जाएं और दोष मीडिया पर मढ दें।

माओवादी हिंसा के खिलाफ लडाई को जीतना है तो माओवादियों के साथ साथ उनके इस ओवर ग्राउंड आर्मी से भी लडाई लडनी होगी। लेकिन जिसे इस लडाई को लडना है वह इस मामले में चुप्प है। सिर्फ इतना ही नहीं यह भी स्पष्ट हो रहा है कि इस ओवर ग्राउंड सेना उसे प्रभावित करने में पूरी तरह सक्षम है। ऐसी स्थिति में नक्सलवादियों के खिलाफ युद्ध कैसे जीता जा सकेगा। इसका उत्तर जनता को ही ढूंढना होगा।