डा वीरेन्द्र भाटी मंगल
आज का युवा तेजी से बदलती डिजिटल दुनिया में जी रहा है। तकनीक, इंटरनेट और सोशल मीडिया जहां सूचना, अभिव्यक्ति और अवसरों का नया दरवाजा खोलते हैं, वहीं इन माध्यमों का गलत और अत्यधिक उपयोग युवा वर्ग के सामने एक नई सामाजिक चुनौती बनकर उभर रहा है। इनमें सबसे प्रमुख है ’’‘रील्स कल्चर’ का बढ़ता प्रभाव’’। छोटी वीडियो की इस दुनिया ने युवाओं की सोच, आदतों, दिनचर्या और समय प्रबंधन को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है।
रील्स देखने का यह आकर्षण सही मायने में मनोरंजन है या मानसिक जाल, यह विचारणीय प्रश्न है। रील्स को बेहद आकर्षक बनाने के लिए प्लेटफॉर्मस रंग, संगीत, तेज विजुअल और छोटी-छोटी कहानियों का इस्तेमाल करते हैं। पन्द्रह से तीस सेकेंड की यह सामग्री तुरंत डोपामिन रिलीज करती है जिसके कारण दिमाग इसे बार-बार देखने के लिए प्रेरित करता है। आज के युवा कहते हैं बस एक ही रील और, लेकिन यह ’एक’ रील धीरे-धीरे ’एक घंटे’ से कई घंटो में कब बदल जाती है, पता ही नहीं चलता है। यह वही समय है जो पढ़ाई, करियर निर्माण, परिवार से बातचीत या अपने कौशल को विकसित करने में लगाया जा सकता था।
रील्स देखने से समय तो बर्बाद होता ही है, साथ ही मानसिक ऊर्जा भी टूटकर बिखर जाती है। इसके नियमित व अति उपयोग से ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो जाती है। लंबी बात या गहन अध्ययन में मन नहीं लगता। काम शुरू करने के कुछ मिनट बाद ही फोन उठ जाने की आदत बनने लगती है। दिमाग लगातार ’त्वरित मनोरंजन’ की मांग करने लगता है। परिणामस्वरूप युवा ’सही दिशा में काम करने का समय निकाल ही नहीं पाते’ और स्वयं को “टाइम नहीं मिलता” की शिकायत में फंसा पाते हैं।
जीवन में समय प्रबंधन पर रील्स कल्चर का असर व्यापक रूप से देखने को मिल रहा है जिसके अन्तर्गत युवाओं की सुबह की दिनचर्या बिगड़ जाना तय है। युवा देर रात तक रील्स देखते हैं और सुबह सुस्ती के साथ उठते हैं। न पढ़ाई की ऊर्जा बचती है, न नौकरी का फोकस बनता है। इसी प्रकार काम व पढ़ाई के बीच रुकावटें पैदा होने लगती है। कुछ देर पढने के बाद ही दिमाग रील्स की तरफ भागता है। यह ’गहरी सीखने की प्रक्रिया को बाधित’ करता है। इस रील्स कल्चर के दुष्परिणाम से होमवर्क, पढ़ाई, लेखन और लक्ष्य निर्धारण में भारी गिरावट देखने को मिली है। किसी भी लंबी गतिविधि के लिए धैर्य चाहिए लेकिन रील्स कल्चर धैर्य को कमजोर कर देता है, जिसके कारण समय का सदुपयोग नहीं हो पाता।
युवाओं का अधिकांश समय कब रील्स में बीत जाता है कि जिससे सामाजिक समय में कमी देखने को मिलती है। परिवार से बातचीत, दोस्तों से मिलना, खेल-कूद सब कुछ स्क्रीन टाइम में बदल रहा है, जो चिंताजनक है। रील्स का बढता यह जाल युवाओं के लिए नई सामाजिक चुनौती के रूप में सामने आ रहा है।
’’रील्स कल्चर’’ सिर्फ समय संकट ही नहीं पैदा करता बल्कि मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक चेतना पर भी असर डालता है। जिसके कारण व्यक्ति में तुलना और हीनभावना बढ़ती है, अवास्तविक जीवनशैली का दबाव बनता है, आत्मविश्वास में कमी आती है, क्रिएटिविटी घटती है। लेकिन युवा ‘लाइक’ और ‘व्यूज’ में अपना किमती समय गवाने हैं। इस कारण समाज का वास्तविक संवाद कमजोर होता जा रहा है।
रील्स कल्चर से बचाव और समय प्रबंधन की राह में समाधान भी है। इसके लिए स्क्रीन टाइम की स्वयं-निगरानी करते हुए स्वयं के विवेक से निर्णय लेना होगा। मोबाइल की डिजिटल वेलनेस सेटिंग में समय सीमा लगाना जरूरी है। प्रतिदिन अधिकतम तीस मिनट का शॉर्ट वीडियो का समय तय करे। इसके साथ ही रात दस बजे के बाद कोई सोशल मीडिया नहीं।
युवाओं को चाहिए कि सुबह उठते ही अपनी दिनचर्या तय करे। इससे मानसिक संतोष होने के साथ ही कार्यशैली व्यापक बनेगी। सुबह उठते ही करीब 30 मिनट फोन से दूर रहें। इस दौरान हल्की स्ट्रेचिंग, प्राणायाम, या पानी पीना मानसिक संतुलन बनाता है। इसके अलावा नो-रील्स’ जोन्स भी बनाएं जिसके अन्तर्गत पढ़ाई की टेबल, भोजन का समय, सोने से एक घंटा पहले इन स्थानों पर मोबाइल का प्रयोग बिल्कुल न करें। इसके साथ साथ जीवन में वास्तविक गतिविधियों को बढ़ाएं जैसे कोई नया कौशल सीखें, संगीत, खेल, योग, लेखन आदि के साथ प्रतिदिन कम से कम तीस मिनट किताब अवश्य पढ़ें। जब वास्तविक जीवन रोचक बनता है, डिजिटल व्यसन अपने आप कम हो जाता है।
परिवार और समाज की भूमिका को भी समझना जरूरी है। परिवार को भी यह समझना होगा कि केवल डांटने से युवा फोन छोड़ नहीं देंगे। उन्हें संवाद, सहयोग, सकारात्मक माहौल, लक्ष्य और दिशा की आवश्यकता होती है। स्कूल, कॉलेज और समाज को भी समय-प्रबंधन व डिजिटल साक्षरता पर नियमित वर्कशॉप शुरू करनी चाहिए। रील्स कल्चर आज की युवा पीढ़ी को तेज मनोरंजन देता है, लेकिन इसके बदले उनका कीमती समय, ध्यान और मानसिक शांति हर ली जाती है। यदि समय पर जागरूकता नहीं आई, तो आने वाले वर्षों में यह केवल एक डिजिटल समस्या नहीं बल्कि उत्पादकता और सामाजिक संरचना के लिए बडी चुनौती बन जाएगी। सही दिशा, संतुलित उपयोग और समय प्रबंधन के साथ ही युवा इस डिजिटल तूफान में अपना भविष्य सुरक्षित रख सकते हैं।
डा वीरेन्द्र भाटी मंगल