मेहमान

पाँच की मैगी साठ में खरीदी,
सौदा भी कोई सौदा था?
खच्चर की पीठ पे दो हज़ार फेंके,
इंसानियत भी कोई इरादा था?

बीस के पराठे पर दो सौ हँस कर,
पचास टिप फोटो वाले को,
हाउस बोट के पानी में बहा दिए
हज़ारों अपने भूखे प्याले को।

नकली केसर की खुशबू में
अपनी सच्चाई गँवा बैठे,
सिन्थेटिक शाल के झूठे रेशों में
अपने सपनों को सिलवा बैठे।

इतना लुटे, फिर भी मुस्काए,
आज जान भी लुटा आए हो,
और सुनो —
वो फिर भी कहते हैं —
“मेहमान हो, मेहमान हमारे हो!”

— डॉ सत्यवान सौरभ

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