लेख

समाज के नशे में घुलता उन्नाद का जहर

संजय स्वदेश

पिछले दिनों राजस्थान में सांप्रदायिक हिंसा की घटना के बाद फिलहाल अभी ऐसा कोई राष्ट्रिय प्रसंग नहीं है कि धर्म की कट्टरता पर बहस हो। लेकिन प्रसंग नहीं होने की बाद भी इस मुद्दे पर चिंतन आवश्यक है। शांत महौल में देश के किसी न किसी हिस्से में हिंसक मजहबी हिलोरे उठती हैं। भले ही यह राष्ट्रिय सुर्खियां नहीं बनती हों, लेकिन जिस तरह से देश के अलग-अलग हिस्से में सांप्रदायिक हिंसा हो रहे हैं वह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

सांप्रदायिक हिंसा सरकार के लिए एक चुनौती के तौर पर उभर रही है। देश भर में पिछले तीन साल में सांप्रदायिक हिंसा के 2,420 मामले सामने आए जिसमें कम से कम 427 लोगों की मौत हो गई। इन आंकड़ों औसत देंखे तो देश में किसी न किसी हिस्से में हर दिन दो सांप्रदायिक हिंसा हो रहे हैं। इस हिंसा में हर माह करीब 11 लोग मौत के घाट उतर रहे हैं। घायलों की संख्या अलग है। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक इस साल अगस्त तक सांप्रदायिक हिंसा के 338 मामले सामने आए जिसमें 53 लोगों की मौत हुई, जबकि 1,059 लोग घायल हुए। गृहमंत्रालय भी मानता है कि केंद्र सरकार के लिए सांप्रदायिक हिंसा प्रमुख चिंता का विषय बन गया है। संबंधित राज्य सरकारों को इस तरह की घटनाओं से सख्ती से निपटने की सलाह भी दी गई है। क्योंकि सरकारी अमला यह मानता है कि सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। लेकिन सरकार के नेतृत्व थामने वाले किसी न किसी रूप में सांप्रदाय के दामन में राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करते हैं, लिहाजा, उनकी कथनी और करनी में फर्क होना सहज है। यदि यह फर्क नहीं होता तो 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में 114 लोगों की मौत हो गई और 2,115 व्यक्ति घायल हो गए। 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,417 लोग घायल हुए। 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,270 लोग घायल हुए।

ऐसी घटनाओं से समाज के रंगों में जिस जहर का प्रवाह होता है, वह राष्ट्र के लिए घातक है। राष्ट्रिय स्तर के अनेक ऐसी हिंसक घटनाओं के कारण देश अंतरराष्ट्रिय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। उसका दंश आज भी समाज के सैकड़ों लोग भोग रहे हैं।

काल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। मतलब यह है कि धर्म के प्रति लोगों की आस्था की हद नसेड़ी की अफीम की नशा की तरह है, जो हर कीमत पर नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही वह उसे भीतर ही भीतर खोखला क्यों नहीं करती हो। समाज की इसी कमजोरी को हर समुदाय के कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ को साधने का हथियार बनाया। भले ही इसकी बेदी पर सैकड़ों मासूमों के खून बह गये, पर क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया आदि तर्कों के नाम पर

उन्नमाद के इस जहर को रोकने के लिए समाज की ओर से कोई ठोस पहल की अभी भी दरकार है। केवल कठोर कानून से काम नहीं चलेगा। विषय पर गंभीर चिंतन की जरूरत है। हर कारणों की पड़ताल भी जरूरी है। देखें और परखे, कहां चूक हो रही है। समाज में ऐसी शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए जिससे कि सांप्रदायिक हिंसा का जहर समाज के नसों में न घुल पाएं।