हार्ड पॉवर, साफ्ट पॉवर, स्मार्ट पॉवर

लालकृष्ण आडवाणी 

वर्ष 1957 में दूसरे आम चुनावों के बाद मैं राजस्थान में स्वतंत्रता के पश्चात् का पहला दशक बिताने के बाद दिल्ली आया था। यही वह चुनाव था जिसमें पहली बार श्री वाजपेयी लोकसभा के लिए चुनकर आए थे। पार्टी के महासचिव और हमारे मुख्य विचारक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय चाहते थे कि मैं पार्टी के संसदीय कार्यालय को स्थापित कर उस समय के पार्टी के सांसदों के छोटे समूह की सहायता करूं। तब से मैं पार्टी के संसदीय दल से निकटता से जुड़ा हूं। जो आज भी जारी है।

हाल ही में समाप्त हुए वर्ष का सिंहावलोकन करते समय मैंने एक वक्तव्य जारी किया था जिसमें पार्टी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी को बधाई दी थी, जिनके नेतृत्व में पार्टी ”अपेक्षाकृत रूप से मजबूत और ज्यादा जीवंत” बनी है। जहां तक संसद के दोनों सदनों का सम्बन्ध है, जनमत इस पर एकमत है कि हमारी पार्टी के दोनों नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली सदैव संसद की बहसों में उत्कृष्ट योगदान करते हैं। इन दोनों सदनों में विपक्ष के नेताओं पर पार्टी को गर्व है।

सदन में न केवल उनकी व्यक्तिगत परफोरमेंस के चलते उन्हें प्रशंसा मिलती है और बहस का स्तर बढ़ता है अपितु पार्टियों के साथ उनके प्रबन्धन ने भी संसद में भाजपा को वास्तव में एक प्रभावी विपक्ष बनाया है। जनसंघ के दिनों से ही, संसद सत्र में प्रत्येक मंगलवार को दोनों सदनों से पार्टी के सारे सांसद नियमित रूप से मिलते हैं और बीते सप्ताह में हुई कार्रवाई पर विचार कर, आगामी सप्ताह में आने वाले विषयों पर मंत्रणा करते हैं। भाजपा सांसदों ने मुझे बताया कि निजी बातचीत में अनेक कांग्रेसी सांसद इससे ईष्या करते हैं कि भाजपा सांसद कितनी आसानी से अपने नेताओं से बात कर लेते हैं और इन साप्ताहिक बैठकों में नि:संकोच कोई भी मुद्दा उठाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती।

1975-77 में आपातकाल के दौरान बंगलौर केंद्रीय कारागार में बंदी के रूप में मुझे एल्विन टॉफ्लर की पुस्तक Future Shock पढ़ने का अवसर मिला, और मैं लेखक का प्रशंसक हो गया। बाद में मैंने उनकी पुस्तक THIRD WAVE और POWER SHIFT पढ़ीं। ‘पॉवर शिफ्ट’ पुस्तक में विस्तार से सत्ता के तीन प्रमुख स्त्रोतों पर फोकस किया गया है: सेना, धन और ज्ञान तथा इसमें सत्ता के एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र के बदलने के इतिहास को बताया गया है, और कैसे वर्तमान युग में ज्ञान आधारित समाज अपेक्षाकृत रूप से प्रभावी है।

पिछले सप्ताह न्यूयार्क के मेरे एक मित्र ने इसी विषय पर एक विद्वान की पुस्तक भेंट की जो आधुनिक विश्व में सत्ता कैसे विकसित होती है, के विशेषज्ञ हैं। पुस्तक का शीर्षक है ‘दि फ्यूचर ऑफ पॉवर’ और लेखक हैं ‘हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के केनेडी स्कूल ऑफ गर्वनमेंट के पूर्व डीन जोसफ एस.न्ये. जूनियर।

न्ये लिखते हैं कि केनेडी और ख्रुश्चेव के युग में सत्ता के संसाधन को परमाणु मिसाइल्स, औद्योगिक क्षमता, और पूर्वी यूरोप के मैदान में तुरंत जा सकने वाले शस्त्रधारी सैनिकों और टैंकों की संख्या से मापा जाता था। लेकिन 21वीं शताब्दी का वैश्विक सूचना युग सत्ता के परम्परागत मानकों की लुप्तप्राय व्याख्या कर रहा है, सत्ता के सम्बन्ध पुनर्भाषित हो रहे हैं। कहा जाता है कि यह पुस्तक “एक ऐसी नई सत्ता का वर्णन करती है जो बदलाव, नवाचार, प्रमुख प्रौद्योगिकी और नए सम्बन्धों से 21वीं शताब्दी को परिभाषित करेगा।”

पुस्तक सत्ता को परिभाषित करते हुए बार-बार तीन विशेषणों का उपयोग करती है: कठोर सत्ता, नरम सत्ता और स्मार्ट सत्ता। पुस्तक की अपनी प्रस्तावना में लेखक रक्षा मंत्री राबर्ट गेट्स को उद्धृत करते हुए अमेरिकी सरकार से कूटनीति, आर्थिक सहायता और संचार सहित ‘सॉफ्ट पॉवर टूल्स’ के लिए और ज्यादा धन की प्रतिबद्धता करने का अनुरोध करते हैं: वह बताते हैं कि अमेरिका का सैन्य खर्चा 36 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा है। जोसफ न्ये ने एक राष्ट्र की ‘हार्ड और सॉफ्ट पॉवर को मिलाकर विभिन्न संदर्भों में एक प्रभावी रणनीति‘ की क्षमता को स्मार्ट पॉवर नाम की नई परिभाषा दी है।

पाकिस्तान के परमाणु सम्पन्न बनने के संदर्भ में लेखक ने एक दिलचस्प उदाहरण इस प्रकार दिया है:

सत्तर के दशक के मध्य में फ्रांस पाकिस्तान को एक परमाणु रिप्रोसेसिंग प्लांट बेचने को राजी हो गया था जिससे प्लूटोनियम, एक सामग्री जिसका उपयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों या बम बनाने के लिए किया जा सकता है, निकाला जा सकता था। परमाणु हथियारों के प्रसार से चिंतित फोर्ड प्रशासन ने यह प्लांट पाकिस्तान को खरीदने से रोकने के लिए उच्च क्षमता वाले विमान देने का प्रयास किया, लेकिन पाकिस्तान ने यह सौदा नहीं माना। फोर्ड तथा कार्टर प्रशासन ने फ्रांस पर दबाव बनाकर इस बिक्री को रद्द कराने की कोशिश की लेकिन फ्रांस ने इस आधार पर इसे मानने से इंकार कर दिया कि यह सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जा रहा विधिसम्मत सौदा है।

जून 1977 तक कुछ होता नजर नहीं आया, जब मैं (पुस्तक लेखक) जिम्मी कार्टर की अप्रसार नीति का प्रभारी था और मुझे फ्रांसीसी अधिकारियों को नए साक्ष्य दिखाने की अनुमति दी गई कि कैसे पाकिस्तान परमाणु हथियार तैयार कर रहा है। फ्रांस के एक उच्च अधिकारी ने मेरी आंखों में देखा और मुझे बताया कि यदि यह सत्य है तो फ्रांस को इस प्लांट को पूरा होने से रद्द करने का रास्ता ढूंढ़ना होगा।

इस लक्ष्य को अमेरिका कैसे हासिल कर सका? कोई धमकी नहीं दी गई। कोई भुगतान नहीं किया। कोई प्रलोभन नहीं दिया गया या लाठियां नहीं भांजी गई। समझाने और विश्वास से फ्रांसीसी व्यवहार बदला। मैं वहां था और मैंने इसे होते देखा। यह मुश्किल से सत्ता के प्रचलित ढांचे में फीट बैठती है जोकि अधिकांश सम्पादकीयों या ताजा विदेश नीति संबंधी पुस्तकें समझाने को सत्ता के रुप में नहीं मानती क्योंकि यह “अनिवार्य रूप से एक बौद्धिक या भावनात्मक प्रक्रिया” है।

2 COMMENTS

  1. आडवाणी जी का यह लेख पढ़ कर अच्छा लगा,पर आज के संदर्भमें इस लेख का औचित्य समझ में नहीं आया.आडवाणी जी से आज अपेक्षा की जा रही है कि भाजपा के सबसे वरिष्ट नेता की हैसियत से वे इस बात पर प्रकाश डालें कि भाजपा के वर्तमान दोमुही नीति का क्या कारण है? क्या कारण है कि भाजपा एक तरफ तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध चेतना यात्रा निकालती है,एक प्रभावशाली लोक पाल बिल के लिए वकालत करती है,दूसरी तरफ मायावती द्वारा निकाले गए भ्रष्ट नेताओं को प्रश्रय देने की होड़ में शामिल हो जाती है?

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