वो भोली गांवली

जलती हुई दीप बुझने को ब्याकुल है

लालिमा कुछ मद्धम सी पड़ गई है

आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है

उनकी मीठी हंसी गुनगुनाने की आवाज

बंद कमरे में कुछ प्रश्न लिए

लांघना चाहती है कुछ बोलना चाहती है

संम्भावना ! एक नव स्वपन की मन में संजोये

अंधेरे को चीरते हुए , मन की ब्याकुलता को कहने की कोशिश में

मद्धम -मद्धम जल ही रही है

””””””””वो भोली गांवली ””””’सु -सुन्दर सखी

आँखों में जीवन की तरल कौंध , सपनों की भारहीनता लिए

बरसों से एक आशा भरे जीवन बंद कमरे में गुजार रही है

दूर से निहारती , अतीत से ख़ुशी तलाशती

अपनो के साथ भी षड्यंत्र भरी जीवन जी रही है

छोटी सी उम्र में बिखर गई सपने

फिर -भी एक अनगढ़ आशा लिए

नये तराने गुनगुना रही है

सांसों की धुकनी , आँखों की आंसू

अब भी बसंत की लम्हों को

संजोकर ”’साहिल ”” एक नया सबेरा ढूंढ़ रही है

मन में उपजे असंख्य सवालों की एक नई पहेली ढूंढ़ रही है

बंद कमरे में अपनी ब्याकुलता लिय

एक साथी -सहेली की तालाश लिए

मद भरी आँखों से आंसू बार -बार पोंछ रही है

वो भोली सी नन्ही परी

हर -पल , हर लम्हा

जीवन की परिभाषा ढूंढ़ रही है ”””’

2 COMMENTS

  1. आपकी यह रचना बहुत ही सुन्दर लिखी गयी है साहिल जी आपने
    बधाई हो आपको इसके लिए जी
    आपका अभिन्न मित्र .. नीलू वैष्णव “अनिश”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress