भाई परमानंद जी की जयंती के अवसर पर उन्हें शत-शत नमन

देश के क्रांतिकारी आंदोलन की रीढ़ बनकर रहे भाई परमानंद जी आज भी प्रत्येक देशभक्त के लिए बहुत ही आदर और सम्मान के पात्र हैं। 4 नवंबर 1876 को जन्मे भाई परमानंद जी भारतीय इतिहास की एक अनमोल निधि हैं। उनके भीतर देशभक्ति,राष्ट्र प्रेम, संस्कृति प्रेम और धर्म के प्रति निष्ठा कूट-कूट कर भरी थी। वह अपने व्यक्तिगत जीवन में जितने सहज और सरल थे, उतने ही सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में कठोर थे। स्वतंत्र विचारक के रूप में काम करने वाले भाई परमानंद जी अपनी राजनीतिक दृढ़ता के लिए जाने जाते हैं। अनेक विषम परिस्थितियों में उन्होंने अपने नेतृत्व के गुणों का परिचय दिया। पहाड़ सी कठिनाइयों के सामने भी वह झुके नहीं। निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढ़ते रहे और देश धर्म की रक्षा के कामों में लग रहे। उनके वज्रसम कठोर राजनीतिक निर्णयों के सामने कठिनाइयां स्वयं झुक कर आगे बढ़ गई।
देवता स्वरूप भाई परमानंद जी का जन्म 4 नवम्बर, 1876 को संयुक्त पंजाब के जिला झेलम (अब पाकिस्तान ) के करियाला ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिताजी का नाम ताराचन्द था। ज्ञात रहे कि उनका परिवार देशभक्तों का परिवार था। बलिदानियों का परिवार था। देश धर्म के लिए मिटने वाले लोगों का परिवार था। ऐसे क्रांतिकारी देशभक्त परिवार में जन्म लेकर भाई परमानंद जी पर परिवार और कुल की परंपरा के संस्कार पड़ने स्वाभाविक थे।
औरंगजेब जैसे निर्दयी और अत्याचारी मुगल बादशाह के समय में गुरु तेग बहादुर जी के साथ अपना बलिदान देने वाले भाई मतिदास इसी कुल परंपरा से थे। जिन्हें 9 नवंबर 1675 को औरंगजेब के आदेश से आरे से चीरकर समाप्त कर दिया गया था। जिस परिवार के पूर्वजों ने इस प्रकार के कष्टों को झेलकर भी देश के लिए बलिदान देना श्रेयस्कर समझा था, उस परिवार में भाई परमानंद जी का जन्म होना सचमुच सौभाग्य का विषय था। जिसे भाई जी बहुत भली प्रकार समझते थे।
1902 में परमानन्द जी ने स्नातकोत्तर की उपाधि लेकर लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक के तौर पर नियुक्ति प्राप्त की। उनके भीतर वैदिक संस्कृति के प्रति असीम श्रद्धा थी। जिससे प्रभावित होकर वैदिक शिक्षा आंदोलन के प्रणेता महात्मा हंसराज ने इन्हें भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अक्तूबर, 1905 में अफ्रीका भेजा। महात्मा हंसराज जी भाई जी की प्रतिभा के कायल थे। भाई जी ने भी आशाओं से कहीं अधिक आगे बढ़कर काम करके दिखाया। उन्होंने सरदार अजीत सिंह और सूफी अंबा प्रसाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित किया और उनके साथ मिलकर देश की स्वाधीनता के लिए नई रणनीति बनानी आरंभ की। क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने जिस रणनीति पर आगे बढ़ना आरंभ किया था, उसके सकारात्मक परिणाम निकले । इन क्रांतिकारियों को देश के काम में लगाने के पश्चात वह लंदन की ओर चले गए। वहां पहुंचकर भाई जी ने क्रांतिकारियों में अग्रणी रहे श्याम जी कृष्ण वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर के साथ मिलकर काम करना आरंभ किया। ये दोनों ही क्रांतिकारी अपने आप को भाई जी के साथ पाकर स्वयं भी धन्य हो गए थे।
जब हमारे क्रांतिकारी लंदन में बैठकर 1857 की क्रांति के 50 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में विशेष कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे थे, तब भाई जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही थी। इसी वर्ष भाई परमानंद जी लंदन से लौट कर स्वदेश आ गए थे। यहां आकर भाई परमानंद जी ने दयानंद वैदिक महाविद्यालय में पढ़ाने के साथ-साथ देश के युवाओं को क्रांति के लिए प्रेरित करने का काम जारी रखा। उन्होंने पेशावर में बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया। 25 फरवरी 1915 को लाहौर में गदर पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ भाई जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी सक्रिय भूमिका के कारण अंग्रेजों ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई और काला पानी के लिए भेज दिया। भाई जी गीता का नित्य अध्ययन करते थे। जिसके कारण गीता का महान उपदेश उनके जीवन में प्रकट होने लगा था। उनकी कर्मठता और कर्मनिष्ठा उन्हें कर्मशील बनाए रखने के लिए प्रेरित करती थी। जिस कारण वह क्रांतिकारियों के लिए कृष्ण जी के रूप में ही दिखाई देने लगे थे। श्रीमद् भागवत गीता को वह अत्यंत श्रद्धा के भाव से देखते थे इस पर उन्होंने अनेक लेख लिखे। जिन्हें बाद में ‘ मेरे अंत समय का आश्रय ‘ नामक ग्रंथ के माध्यम से प्रकाशित किया गया। जेल से मुक्त होने के उपरांत भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा। उन्होंने इस बार लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बना लिया था। जहां पर लाला लाजपत राय जी ने राष्ट्रीय विद्यापीठ (नैशनल कालेज) की स्थापना की थी। लालाजी ने भाई परमानंद जी की प्रतिभा को सम्मानित करते हुए इस विद्यापीठ का कार्यभार उनको ही सौंप दिया था। इसी विद्यापीठ में सरदार भगत सिंह और सुखदेव जैसे युवा भी अध्ययन कर रहे थे। जब उन्हें भाई परमानंद जी का सानिध्य मिला तो सोने पर सुहागा हो गया। भाई जी ने अपने क्रांतिकारी की प्रतिभा को पहचान लिया और उन्हें सशस्त्र क्रांति के माध्यम से देश को आजाद करने की प्रेरणा दी। भाई जी ने ‘ यूरोप का इतिहास ‘ और वीर बन्दा बैरागी’ जैसे अनेक ग्रंथों की रचना की। आपने कांग्रेस जैसे संगठन में न जाकर देश के लिए हिंदू महासभा जैसे क्रांतिकारी संगठन में रहकर काम करना उचित समझा था। जहां पर पंडित मदन मोहन मालवीय जी जैसे महापुरुष पहले से ही कार्य कर रहे थे। उनके सानिध्य में रहकर आपने अनेक क्रांतिकारी निर्णय लिए। गांधी जी की उदारवादी नीतियों के वह आलोचक थे और नहीं मानते थे कि शत्रु को गांधीवादी नीतियों से पराजित किया जा सकता था। मुस्लिम लीग के प्रति गांधी जी की नीतियों का वह सदा विरोध करते रहे। जब देश के विभाजन की घड़ी आई तो वह गांधी जी के मुखर विरोधी के रूप में सामने आए थे। इसके उपरांत भी गांधी जी और उनकी पार्टी कांग्रेस ने देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया। जिसे भाई जी जैसे क्रांतिकारी देशभक्त नेता झेल नहीं पाए थे। देश विभाजन के पश्चात जिस प्रकार पाकिस्तान से आ रहे हिंदुओं और सिखों के साथ अत्याचार किए गए थे, उन घटनाओं से भाई जी अत्यंत दुखी रहते थे। वह अपनी असीम वेदना को झेल नहीं पाए । यही कारण रहा कि 8 दिसंबर 1947 को वह इस असार संसार को छोड़कर चले गए।
भाई जी की जयंती के अवसर पर देश के इस क्रांति नायक को हमारा शत-शत नमन।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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