क्योंकि तुम अरुंधती नहीं हो मेरी बहन

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-आवेश तिवारी

क्या आप इरोम शर्मीला को जानते हैं? नहीं, आप अरुंधती रॉय को जानते होंगे और हाँ आप ऐश्वर्या राय या मल्लिका शेहरावत को भी जानते होंगे, आज(2 नवंबर) शर्मीला के उपवास के १० साल पूरे हो गए उसके नाक में जबरन रबर का पाइप डालकर उसे खाना खिलाया जाता है, उसे जब नहीं तब गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता हैं, वो जब जेल से छूटती है तो सीधे दिल्ली राजघाट गांधी जी की समाधि पर पहुँच जाती है और वहां फफक कर रो पड़ती है, कहते हैं कि वो गाँधी का पुनर्जन्म है, उसने १० सालों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा, उसके घर का नाम चानू है जो मेरी छोटी बहन का भी है और ये भी इतफाक है कि दोनों के चेहरे मिलते हैं।

कहीं पढ़ा था कि अगर एक कमरे में लाश पड़ी हो तो आप बगल वाले कमरे में चुप कैसे बैठ सकते हैं? शर्मीला भी चुप कैसे रहती? नवम्बर २, २००० को गुरुवार की उस दोपहरी में सब बदल गया, जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने १० निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी, जिन लोगों को गोली मारी गयी वो अगले दिन एक शांति रैली निकालने की तैयारी में लगे थे। भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी, वो हथियार उठा सकती थी, मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया, ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में गाँधी के बाद किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया। शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के न सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने कभी अधिकार मिल जाता है, पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं, ये वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान न सिर्फ कश्मीर और मणिपुर में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं। शर्मिला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून-१९५८ को नहीं हटा लेती, तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी।

आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है। अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर उठने वाली वही आवाज सुनी जाती है जो देश के खिलाफ जाने का भी साहस रखती हो और कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है, मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है। शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि उसने कोई बुकर पुरस्कार नहीं जीते हैं वो कोई माडल या अभिनेत्री नहीं है और न ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहु है।

इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं। वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की प्यारी बेटी है, वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम आ सके, उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अदभुत ज्ञान है, वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं। लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला न होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही, उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया। वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं, जब दिसम्बर २००६ में इरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं। गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है। शर्मीला कहती है ‘आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं, इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है, भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें?’

३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है ‘ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति, प्रेम, और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है।‘’ चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने, और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं, वे अन्दर से बेहद बीमार है। लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती, वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है ‘मैं मानती हूँ आत्मा अमर है, मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं, यंत्रणा नहीं है, ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है। शर्मिला ने पिछले ८ वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है ‘मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा न कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना।’लेकिन जब शर्मीला की ७५ साल की माँ से बेटी से न मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं, रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं ‘मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी, मैंने उसे आशीर्वाद दिया था, मैं नहीं चाहती कि मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अदभुत युद्ध पूरा न हो पाए, यही वजह है कि मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती, हम उसे जीतता देखना चाहते है।‘

इस बात में कोई न राय नहीं है कि जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद, नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है, ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है, सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है। मणिपुर में भी यही हो रहा है, आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं, शिक्षा का स्तर बेहद खराब है, लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं, ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं, लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए। जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की ‘भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो ‘तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता, सिर्फ शर्मिला नहीं रोती, आजादी भी रोती है, देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं। शर्मीला कहती है ‘मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है, मुझे अभी बहुत कुछ सहना है, लेकिन अगर मैं जीवित रही, खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे। अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है।

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आवेश तिवारी
पिछले एक दशक से उत्तर भारत के सोन-बिहार -झारखण्ड क्षेत्र में आदिवासी किसानों की बुनियादी समस्याओं, नक्सलवाद, विस्थापन,प्रदूषण और असंतुलित औद्योगीकरण की रिपोर्टिंग में सक्रिय आवेश का जन्म 29 दिसम्बर 1972 को वाराणसी में हुआ। कला में स्नातक तथा पूर्वांचल विश्वविद्यालय व तकनीकी शिक्षा बोर्ड उत्तर प्रदेश से विद्युत अभियांत्रिकी उपाधि ग्रहण कर चुके आवेश तिवारी क़रीब डेढ़ दशक से हिन्दी पत्रकारिता और लेखन में सक्रिय हैं। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद से आदिवासी बच्चों के बेचे जाने, विश्व के सर्वाधिक प्राचीन जीवाश्मों की तस्करी, प्रदेश की मायावती सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार के खुलासों के अलावा, देश के बड़े बांधों की जर्जरता पर लिखी गयी रिपोर्ट चर्चित रहीं| कई ख़बरों पर आईबीएन-७,एनडीटीवी द्वारा ख़बरों की प्रस्तुति| वर्तमान में नेटवर्क ६ के सम्पादक हैं।

22 COMMENTS

  1. मीडिया हमेसा तामस बीन होता है वह भी सर्कार की हाँ मई हा मिलाता है ओरे हाँ मई हाँ मिलाने वालों की संख्या ज्यादा होती है एसिलिया उन्हीं की आवाज को सुना जाता है एसिलिया तो एस महँ सत्याग्रही का नाम मीडिया के पन्नो पर नहीं है …………….

  2. शर्मीला जिस गोलीबारी के खिलाफ भूख हड़ताल पर गई थी उस में वो लड़की भी मारी गई थी जिसे १२ वर्ष के उम्र में वीरता के लिए २६ जनवरी को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था | शर्मीला को हर वर्ष आत्महत्या करने का दोषी मान कर १ वर्ष की सजा दी जाती है और ज़बरदस्ती भोजन दिया जाता है जेल से छूटने के बाद उन्हें कुछ दिनों बाद फिर उसी जुर्म में वापस पकड़ लिया जाता है पिछले दस सालों से यही चाल रहा है | वो आगे भी दस साल यही करेंगी फिर भी कोई उनकी नहीं सुनने वाला है | सरकार वहा से वो तानाशाही कानून नहीं हटा सकती है सुरक्षा कारणों से ये माना जा सकता है लेकिन वो चाहती तो इस कानून की आड़ में आम निर्दोषों के साथ हो रहे अन्याय को रोकने का प्रयास कर सकती थी पर वो उसकी भी जरुरत नहीं समझती है | एक आम भारतीय देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्र से बिल्कुल कटा हुआ है और मीडिया ने खुद को उससे काट लिया है | एक अच्छा विषय उठाने के लिए धन्यवाद |

  3. वाकई सत्ता और सत्ताधीश कितनी गहरी नीँद मेँ सोये हैँ । मीडिया को भी शर्म आना चाहिये जो गाँधी के देश मेँ सुरेश कलमाड़ी , अरुंधति राय , गिलानी जैसोँ को तो कवर पे छापता है या ब्रेकिँग न्यूज़ मेँ दिखाता है लेकिन इरोम शर्मिला के सत्याग्रह को नज़रअंदाज़ करता है । ये कैसा भारत है जहाँ राहुल गाँधी एक तगारी उठाकर कई कई दिनोँ तक मीडिया मेँ महात्मा गाँधी की विरासत को आगे बढ़ाते दिखाये जाते हैँ जबकि शर्मिला का दर्द जानने की जहमत कोई नहीँ उठाना चाहता । ऐसा तो शायद अंग्रेजोँ के ज़माने मेँ नहीँ हुआ होगा । आपका लेख पढ़ने के बाद आँखोँ मेँ आँसू आ रहे हैँ और खुद के भारतीय होने पर पहली बार अफसोस हो रहा है दिल करता है कि काश आज एक भगत सिँह और होता जो संसद मेँ धमाका कर शर्मिला के परचे उन सफेदपोशो के मुँह पर मारता जो खुद को भारतीयोँ का हमदर्द दिखाने का ढोँग कर अपना घर भर रहे हैँ । चमकते भारत की तस्वीर दिखा दिखाकर सत्ता ने हम सबको भी संवेदहीनता की गहरी नीँद मेँ पहुँचा दिया है । कब जागेगा ये भारत…..

  4. समस्या सेना नहीं है. इरोम शर्मिला का आन्दोलन उन भ्रष्ट साताधीशों के कारण है जो पिछले ६ दशक से भारत के ऊपर राज करते रहे हैं और हर व्यवस्था का अपने स्वार्थ में दुरूपयोग करते रहे हैं . इस कारण जन समर्थन विरोधी शक्तियों के पक्ष में चला जाता है और फिर कड़े क़ानून लगाने की जरूरत पड़ती है .

    ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा की कश्मीर से लेकर मणिपुर तक सभी राज्य अपनी इच्छा से भारत में विलय के लिए आये थे … हमने सेना भेज कर उन्हें मजबूर नहीं किया था … पर कांग्रेस की सरकारों ने अपने कारनामों से वहां की जनता के एक हिस्से को हमारे विरुद्ध खड़ा कर दिया है …इन कारनामों से भड़की हिंसा को शांत करने के लिए सेना भेजने से सारा दोष सेना के ऊपर आ गिरता है … सेना एक भ्रष्ट एवं अयोग्य शासक की तरफ से भेजे जाने की वजह से अपनी साख खोती है .

  5. .

    आवेश जी,

    इस बेहद जरूरी मुद्दे पर लिखने लिए आभार स्वीकार कीजिये।

    मैं पहले भी इस विषय पर दो लेख पढ़े और और वहां टिपण्णी की है। मेरा भरपूर समर्थन हैं शर्मीला जी के साथ और उन सभी के साथ जो संवेदनशील हैं तथा इस आन्दोलन की गरिमा को समझ रहे हैं।

    सैन्य बलों को जो विशेषाधिकार दिए गए हैं , उसका बहुत अनुचित प्रयोग हो रहा है । बलात्कार करके वो पशुवत व्यवहार कर रहे हैं। पशुओं को ऐसे अधिकारों से वंचित करना ही चाहिए।

    बहन शर्मीला के आन्दोलन में मैं मन से शामिल हूँ । उनकी नेकी और समाज के प्रति निष्ठां के लिए उन्हें नमन।

    शर्मीला जी की माताजी का योगदान भी अद्भुत और अतुलनीय है।

    सभी को इस आन्दोलन का हिस्सा बनना चाहिए और समाज के नासूर नियमों द्वारा फल-फूल रहे निंदनीय सैन्य बल के जवानों को इन विशेषाधिकार से वंचित करना ही चाहिए।

    .

  6. कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है तो उसे सुधारना चाहिए…क्योंकि दहेज़ विरोधी कानून, आर्म्स एक्ट, हरिजन एक्ट, अभिव्यक्ति की स्वंत्रता, सुचना का अधिकार, के अलावा तमाम कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है…कहें तो शासन एवं प्रशाशन व्यवस्था का भी हर स्तर पर दुरूपयोग हो रहा है…इनसे कई लोगों की रोज़ जान जा रही है, क्या सभी कानूनों को ख़त्म कर देना चाहिए या उनको सही तरीके से लागू करना चाहिए? कपूर साहब से पूरी तरह सहमत हूँ.

  7. आवेश जी आपने सचमुच इस लेख से दिल को छू लिया. समस्याओं का सर्वमान्य हल निकलना वाकई काफी दुष्कर है.
    पहली बार मुझको इरोम शर्मीला के बारे में पता चला. लोकतंत्र में किसी भी प्रकार की हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता. शर्मीला द्वारा किये जा रहे अनशन को मैं समर्थन नहीं दे सकता. यह न केवल आत्मघाती है बल्कि इमोशनल ब्लैकमेलिंग है. इस आन्दोलन से उनकी जान जा सकती है और यह भी एक प्रकार की हिंसा है. यदि वो खा पी के लड़ाई लड़तीं तो वास्तव में पता चलता कि वो कितने पानी में हैं?
    वास्तव में अशांत क्षेत्रों में विशेष सशत्र बल कानून देना सरकार की विवशता हो जाती है क्योंकि उसके पास विकल्प सीमित होते हैं. लेकिन विडम्बना ये भी है कि उत्साही सैनिक इस अधिकार का दुरुपयोग करने लगते हैं.
    मैं खुद एक अशांत प्रदेश छत्तीसगढ़ का रहने वाला हूँ. वहां पर विशेष सशत्र कानून पुलिस को नहीं देने से बड़ी संख्या में जवानों कि जाने गई हैं. इसके अंतर्गत यदि पुलिस किसी व्यक्ति को शक के आधार पर मारती है तो उसके पास से हथियार बरामद होना जरुरी है और यदि पुलिस को पहले से पता है कि वो नक्सलवादी है तो पर भी उसके हाथ बंधे हुए हैं और जवानों को इस कानून के न होने कि कीमत जान से चुकानी पड़ती है.
    वास्तव में सचाई न इधर है न उधर है, बल्कि बीच में है. वो महीन अंतर है जो स्पष्ट रूप से रेखांकित नहीं है.
    जब तक हम किसी समस्या का समग्र रूप से विवेचना नहीं करते तो हल में पहुँचाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है. भारत सरकार के पास रास्ते सीमित हैं एक मणिपुर कि उग्रवादियों कि मांग को मान ले या सेना को अधिकार देकर आतंककारियों को कुचला जाए. तीसरा रास्ता फिलहाल कमजोर है. शायद इस पहलु पर काम करने कि जरुरत है. लेकिन जवानों को खतरनाक राज्यों में मरने के लिए भी तो छोड़ा नहीं जा सकता?
    सेना के द्वारा मानवाधिकारों का हनन कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है. बल्कि सबको पता है कि वो उल्लंघन करते हैं. कभी कभी कानून के जद में भी आ जाते हैं, तो पर भी सभी मामलों में साबित करना टेढ़ी खीर होती है इसी बात का fayda सेना के jawan uthate हैं.

  8. उत्तम लेख, मैं सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने का तब तक समर्थन नही कर सकता जब तक मैं यह न जान लूं कि यह किन परिस्थितियों मे वहां लगा है पर निश्चित तौर पर मैं इस बात से सहमत हूँ कि मीडिया भी चिकने चेहरे ही ढूंढता है छापने के लिए।

  9. सशस्त्र सेना द्वारा कानून के दुरउपयोग के कारण उसे बदल देना क्या कोई समाधान है ? अगर इसी तरह सोचने लगे तो आतंकवादियों, अपराधियों के लिए जितने भी कानून बने हैं, वे सब के सब निरस्त करने पड़ेंगे. प्रतिक्रिया में लिए अतिवादी निर्णयों से देश चलता है क्या ? केवल अव्यवस्था ही अव्यवस्था रह जायेगी. होना तो यह चाहिए की कानूनों का दुरूपयोग होने से रोका जाय, संवेदनशीलता के साथ, इमानदारी के साथ उनका प्रयोग हो ; यह सुनिश्चित किया जाय.
    निसंदेह बड़ा मार्मिक लेख है. वाकई कोई देश के हितों को चोट पहुंचाने वाली अरुंधती जैसा कोई होता तो उसकी आवाज़ ज़रूर सुनी जाती. इसका मतलब है कि कानून नहीं, व्यवस्था गलत है ; उसे बदलना होगा. वरना हमारी शक्ती हालात सुधारने के बजाय बिगाड़ने में लगती रहेगी और इन हालात के असली अपराधी बरी हो जायेंगे. हमारे मित्र भावुक न होते तो इतने अछे लेखक भी न होते, देश के हालत से परेशान भी न होते. पर कभी-कभी भावुकता के कारण दृष्टी धूमिल भी हो जाती है, उससे बचना होगा.
    निर्मम व्यवस्था की शिकार इरोम शर्मीला के लिए हम सब वह करें जो कुछ भी हमारे लिए संभव हो. मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा कि उसकी पीड़ा को किसप्रकार सांझा करूँ. पर शायद सबके सोचने पर कोई रास्ता निकल आये ?
    एक मार्मिक लेख व सही समस्या को उठाने के लिए आवेश तिवारी जी को साधुवाद !

  10. आवेश जी अपने आवेश पर काबू रक्खे क्या गारंटी है की सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून हट जाने के बाद सेना बहुत अच्छी हो जाएगी और भगवान की तरह व्यवहार करने लगेगी अपने यहाँ यूपी में आइये सेना से बड़ा काम तो यहाँ की पुलिस करती है बिना सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून के भी ये कुछ भी कर सकती है याद रक्खे कानूनी संरक्षण की जरूरत भी उन्हें ही होती है जो कानून के अनुसार चलते है अगर सेना इतनी ही निरंकुश है तो कानून क्या आप उनकी बन्दूक भी छिन लेंगे तो भी वो अपना काम कर ही जायेंगे इसलिए इस तरह के भावनात्मक धोखे न आइये सेना पूरे देश में अच्छा काम कर रहीं है कुछ बुरे अनुभव हो सकते है लेकिन इस तरह से आप उनके कार्यों में बाधा न डाले उन्हें उनका काम करने दे मुझे ही नहीं पूरे देश को उनके ऊपर विश्वास है इरोम से मुझे भी सहानुभूति है लेकिन मणिपुर में सेना लगाने के कारणों की पड़ताल करता हूँ तो लगता है कि इरोम कि निश्छल भावना का दुरूपयोग और निरादर क्रमशः दोनों ही पक्षों देशद्रोहियों और देश की सरकारों के द्वारा किया जा रहा है

  11. बेहतरीन लेख तिवारी जी| मानवीय संवेदना से भरपूर| किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को हिला कर रख दे|धन्य है इरोम शर्मीला| धन्य है यह वीरांगना|
    तिवारी जी आपके द्वारा दी गयी इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आपको धन्यवाद|

  12. मानवीय संवेदनाओं पर होता नित निर्मम प्रहार
    सीधे चलता जन निर्बल माना जाता
    रौंदा जाता जनमत प्रतिदिन…
    यह कैसा लोकतंत्र – यह कैसा शासन ?

    सत्ता के गलियारों में शासक चुप क्यों बैठा
    जनता हर रोज नए सवालों संग आती है –
    क्या आक्रोश चाहिए इतना कि उठ जाये ज्वाला
    पिघलेगा पाषाण हृदय तब भी , या तू चाहे विष का प्याला …?

  13. सब ठीक है, बस एक बात पर आपत्ति है। मणिपुर में सरेआम मानव और मानवाधिकारों
    को साशस्त्र बलों द्वारा हत्या की जार रही है। इस बात से असमत हूं। पहली बात की मणिपुर की मीडिया पूरी तरह से वहां के अलगवावादियों के कब्जे में है। फिर जो भी खबरे आती है, अधिकतर उनके पक्ष की होती है। ज्यादा कुछ नहीं कहना है, जिन्हें हकीकत जाननी हो, तो मणिपुर जाएं। यदि ट्रेन मार्ग से जाना हो तो दीमापुर जाते-जाते काफी कुछ इस बात का अनुभव हो जाएगा कि सेना गलत है या मणिपुरी।
    visfot.com/index.php/story_of_india/3461.html

  14. तिवाराजी,
    आपके लेखन की तारीफ करुं या फिर जो विषय काल के गर्भ मे डाल दिया गया उसे उठाने के लिए साधुवाद दूं समझ मे नहीं आ रहा। मै स्वयं पूर्वोत्तर भारत के एक राज्य असम का निवासी हूं अतः मैने मणिपुर के लोगों की पीङा को नजदीक से देखा है। समाचार जगत ने तो शर्मिला के मानवतावादी आंदोलन को ठंडे बस्ते मे ही डाल दिया था। आपने उसे फिर एक बार लोगों के दिलों दिमाग के परदे पर प्रदर्शित करते हुए विषय को सूर्खियो मे लाकर चौथे स्तंभ की प्रतिष्ठा को बचाने का कार्य किया है। मै पूर्वोत्तर राज्यों की त्रस्त जनता की ओर से आपको धन्यवाद देता हूं। काश ! प्रिंट मिडिया भी ऐसा ही करता।
    नागेन्द्र शर्मा मोबाइल 9435150958

  15. आवेश जी बहुत ही सार्थक लेख है आपका , और किसी पाठक ने लिखा है की अभी तक टिप्पणी नहीं आई क्योकिं वो अरुंधती पर केन्द्रित लेख नहीं है इस वजह से -ऐसा नहीं है हर लेख पर टिप्पणी आये ऐसा जरूरी नहीं है और टिप्पणी दर्ज करने वाले ही लेख को पढ़ते हैं ऐसा भी नहीं है
    कई वजह होती हैं टिप्पणी नहीं देने की लेकिन मन में दुःख तो होता ही है जब ऐसे लेख पढ़ने में आते हैं मैंने भी इक बार इक लेखक को बार बार अरुंधती को महान लेखिका कहने पर टोका था मेरा मानना है की क्या पुरूस्कार मिल जाने मात्र से ही कोई महान लेखक हो जाता है
    इतिहास गवाह है हमेशा नीवं के पत्थरों को अनदेखा ही किया गया है और ईमारत पर चढ़ कर कंगूरों ने अपनी महानता बखानी है भारतीय नारी की गरिमा और गौरव को शर्मिला जैसी महिलाएं बढाती है तो वहीँ दूसरी और अरुंधती को देख लगता है ये भारतीय नारी जाती पर बदनुमा दाग हैं आपके लेख ने बहुत से पाठको के मन को ठंडक दी साधुवाद

  16. sabhi vichar dharayo ko espe apana dimad lagana chahiye dekhata hu kisame kitani takat hai harek jagah giravat aae hai es sachh ko sweekar karane ki takat nahi hai to barbad hone ke kiye taiyar raho .yah aaves ka lekh nahi aahwan hai mai apni batata hu kuchh na kuchh to jarur karuga kam samay ke safal ganga aandolan se maine sarkar ko jabab dena sikha hai. upa,nda,rss.cpi.sp,enko ye nahi dikhae deta en dalalo ko barhe najdik se dekha hai chor chor mausiyaur bhae hai sab sath sath rat me ragreliya manate hai ek aur kuchh kitab likh dene se koe samaj sudharak nahi ho sakta gurujee gandhi lohiya ki kamae kha rahe hai sab enke jaisa ho thorhee sakte hai kuch sudhar karana hai to jamin par uatar kar dekho aukat pata chal jayege maine likha bhi hai enke bare me dusaro ko aaena dikhane ke liye dhanyvad

  17. तिवारी जी,
    इसका सबसे सुन्दर और स्पष्ट उदाहरण कुछ और नहीं हो सकता की अभी तक किसी भी पाठक ने टिप्पणी नहीं दी है क्यूंकि चानू जी अरुंधती नहीं है वरना सेकुलरिस्टों की टिप्पणी की लाइन लग जाती?

    ये सब व्यवस्थाजनित दोष हैं और इन सब दोषों को दूर करने के लिए ईमानदार प्रयास की जरुरत है! तभी मेरा प्यारा भारत इन बेईमानो के चंगुल से छुट पायेगा और हर नागरिक चैन से रह पायेगा!
    लेख के लिए साधुवाद!!!

  18. मैंने पहले भी आपका लेख पढ़ा है और आज भी पढ़ा कभी भी मुझे अधुरा व संवेदनाविहीन नहीं लगा.
    यह लेख मानवता के लिए अमृत के सामान है अमृत होजाय यदि लक्ष्य पूर्ण होजाय.
    दिवाली की हार्दीक सुभकामनाओं के साथ
    अब्दुल रशीद
    सिंरौली मध्य प्रदेश

  19. ओह …वास्तव में अरुंधती का एक मात्र बयान इरोम जैसी सत्याग्रही पर भारी पड़ता है. वास्तव में अफसोसनाक. देश के भले अपने तर्क हों लेकिन इरोम के आग्रह को भारत का आग्रह समझ, भारतीय सत्याग्रह समझ राष्ट्र को ध्यान देना ही होगा. सही अर्थों में अरुंधती जैसे लोग अपने उत्पाद जितना बेच ली लेकिन इरोम जैसी वीरांगना के पाँव का धुल भी नहीं हो सकती….बहुत सुन्दर लिखा है आवेश जी ने. आँखे नम हो गयी.

  20. विलक्षण प्रतिभा के सम्मान मैं, विलक्षण व्यक्ति का विलक्षण आलेख

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