नायकों की पुनर्स्थापना की आवश्यकता

डा.वेदप्रकाश

    हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि- हमारे राष्ट्रीय नायक महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज हैं, मुगल शासक औरंगजेब नहीं। यह हमारा नैतिक दायित्व है कि इतिहास में हुए अन्याय को हम खारिज करें। साथ ही देश के युवाओं को बताएं कि महाराणा प्रताप और शिवाजी महाराज केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है बल्कि वह हमारी प्रेरणा के जीवंत स्रोत हैं। नायकों के संबंध में रक्षा मंत्री जी का यह वक्तव्य निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। ध्यान रहे आज भारत विश्व की सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है। अनेक युवा पान, बीड़ी, गुटखा के विज्ञापन करने वाले फिल्मी सितारों को अपना नायक मानते हैं। हमें समझना होगा कि ऐसे लोग हमारे नायक नहीं हो सकते। हमारे नायक तो वीरता,बलिदान, त्याग, समर्पण और परोपकार हेतु जीवन समर्पित करने वाले ही हो सकते हैं। क्या आज जन मन में भिन्न-भिन्न तरीके से ऐसे नायकों की पुनर्स्थापना करने की आवश्यकता नहीं है?
     नायक किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के लिए जहां एक ओर वैचारिकी के निर्माण में योगदान करते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें आत्मबल भी प्रदान करते हैं। छोटा बालक आरंभ से ही अपने घर,परिवार, समाज और फिर विद्यालय में अपने रोल माडल यानी आदर्श अथवा नायकत्व की परिकल्पना करता है। कभी वह माता-पिता जैसा बनना चाहता है तो कभी अपने शिक्षक जैसा। जैसे-जैसे बाहरी दुनिया से उसका परिचय होता है तो वह किसी पुस्तक में पढ़े अथवा फिल्म और टेलीविजन की दुनिया से जुड़े व्यक्तित्व को प्रतिमान मानकर चलता दिखाई देता है। यह विडंबना ही कही जा सकती है कि स्वतंत्रता के बाद साहित्य व इतिहास लेखकों एवं नेतृत्व के शीर्ष पर बैठे नीति निर्धारकों ने उन आदर्शों व नायकों की उपेक्षा कर दी जो भारतवर्ष की ज्ञान परंपरा, बलिदान परंपरा एवं निर्माण परंपरा के मूल थे। इसके अतिरिक्त आर्य बाहर से आए, राम और रामायण में वर्णित कथा काल्पनिक है, मुगल शासकों ने भारतीय समाज और संस्कृति को समृद्ध किया, अंग्रेजों और अंग्रेजी के कारण भारत सभ्य हुआ आदि भ्रांतियां सुनियोजित ढंग से फैलाई गई।

 क्या यह सत्य नहीं है कि महाराणा प्रताप, शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान, संभा जी,  बिरसा मुंडा, चंद्रशेखर आजाद एवं भगत सिंह जैसे हजारों नायक आज स्मृति से बाहर होते जा रहे हैं? यजुर्वेद में लिखा है- वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: अर्थात हम पुरोहित  (पुर का, नगर का हित करने वाले) अपने राष्ट्र को सदैव जीवंत और जागृत बनाए रखेंगे। यदि पाठ्यक्रमों के जरिए यह भाव प्रत्येक नागरिक में भर दिया जाता तो आज न तो भारत के टुकड़े करने वाली और न ही छत्रपति शिवाजी जैसे नायकों का अपमान करने वाली मानसिकता पनपती। सर्वविदित है कि औरंगजेब इतिहास का खलनायक है. ऐसे खलनायकों का महिमामंडन मानसिक विकृति है जो वैमनस्य बढाती है। इसके लिए कठोर दंड का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?


      विचार करने पर हम पाते हैं कि भारतवर्ष में गौतम, वशिष्ठ, मनु, याज्ञवल्क्य, वाल्मीकि व वेदव्यास जैसे अनेक ऋषि हुए। पृथु, पूरु, भरत व रघु जैसे अनेक लोकनायक हुए। शिबि, हरिश्चंद्र एवं दधीचि जैसे परमार्थी और दानी हुए। प्रहलाद, ध्रुव, लव,कुश तथा अभिमन्यु जैसे वीर बालक इसी भारतभूमि पर हुए तो अदिति, शची, कात्यायनी, अरुंधती, घोषा, अपाला, गार्गी, मैत्रयी व लोपामुद्रा जैसी अनेक विदुषियां भी हुई। क्या वीरांगना कर्मादेवी, ताराबाई,दुर्गावती, रूपाली, कलावती एवं लक्ष्मीबाई आदि हमारे गौरव नहीं हैं? क्या छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, पृथ्वीराज चौहान, सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद व अशफाक उल्ला खां जैसे वीर और बलिदानी हमारे नायक नहीं होने चाहिए? क्या हमारे देश में नायकों की कमी है? नायकों की इस विराट परंपरा का युवा पीढ़ी से परिचय करवाना किसका दायित्व था?

अकबर द ग्रेट, औरंगजेब के शासन-प्रशासन की विशेषताएं और ब्रिटेन को ग्रेट बताने और इतिहास में पढ़ाए जाने के कारण क्या रहे, इसकी भी पड़ताल होनी चाहिए? क्या आक्रांता, लुटेरे, अत्याचारी एवं शोषक हमारे नायक हो सकते हैं? यदि नहीं तो फिर उनका महिमामंडन क्यों? इसके मूल में निहित तुष्टिकरण के खेल एवं राजनीतिक स्वार्थपूर्ति की मानसिकता को भी समझने की आवश्यकता है। क्या मुगलों के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ने वाले और धर्म के लिए बलिदान होने वाले गुरु तेगबहादुर व गुरु गोविंद सिंह जैसे व्यक्तित्व हमारे नायक नहीं होने चाहिए? क्या बाल्यावस्था में ही धर्म के लिए बलिदान देने वाले साहिबजादे युवा भारत के नायक नहीं होने चाहिए? विगत वर्षों में द लेजेंड आफ भगत सिंह, बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, मणिकर्णिका-झांसी की रानी और हाल ही में आई छावा जैसी फिल्में व कुछ धारावाहिक महत्वपूर्ण हैं जो इतिहास के सत्य के साथ-साथ अतीत गौरव व नायकों की पुनर्स्थापना करते हैं।
      ध्यान रहे आधुनिक भारत का निर्माण किसी व्यक्ति ने नहीं किया है अपितु इसकी नींव में भारत की विराट ज्ञान परंपरा,संघर्ष, बलिदान एवं उत्कृष्ट विचारों की लंबी श्रंखला है। यह देश राम, कृष्ण, बुद्ध और शक्ति का उपासक रहा है। ये वे शक्तियां हैं जिन्होंने धर्म की रक्षा और स्थापना के लिए मानव रूप में अवतार लेकर अनेक प्रकार के संघर्षों से गुजरते हुए मानवता की रक्षा और धर्म की स्थापना की। इनका व्यक्तित्व-कृतित्व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमारे लिए प्रेरक एवं मार्गदर्शी है, क्या राम,कृष्ण और बुद्ध हमारे नायक नहीं होने चाहिए? स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा में लिखा है- भारत दीर्घकाल से यंत्रणा सहता आया है। सनातन धर्म पर काफी अरसे से अत्याचार हुआ है…केवल श्री राम, कृष्ण देव के चरण तले बैठकर शिक्षा ग्रहण करने से ही भारत का उत्थान होगा। उनके जीवन, उनके उपदेशों का चारों तरफ प्रचार करना होगा।

ध्यान रहे वर्तमान समय भारतवर्ष के सुदृढ़ बनने का है। ऐसे में अपने अतीत की गौरवशाली परंपरा और नायकों को एक स्पष्ट एवं आत्म विवेकी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक परंपरा बहुत प्रखर एवं सशक्त है। इतिहास के विकृत अथवा कल्पित रूप को पढ़ने-पढ़ाने के स्थान पर यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम एवं पाठ्य पुस्तकों में व्यापक बदलाव किए जाएं जिससे सत्य सामने आए। उन नायकों की पुनर्स्थापना हो जिन्हें पढ़- समझकर भारतवर्ष का जन-जन गौरव की अनुभूति कर सके। विकसित भारत के बड़े और नए संकल्पों में अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित एवं अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का भी योगदान है, इसलिए भारत के नायक उन तक भी पहुंचने चाहिए।
       नवजागरण का शंखनाद हो चुका है। विकसित भारत और विश्व गुरु भारत जैसे बड़े लक्ष्य और नए संकल्पों के साथ यह विराट देश आगे बढ़ रहा है। जिनकी सिद्धि के लिए सत्यवक्ता, गुणी, ज्ञानी,विवेकी, परोपकारी, त्यागी, धीर, वीर, गंभीर एवं आत्मसंयमी लोगों की आवश्यकता है ऐसे लोगों की निर्मिती नायकों की पुनर्स्थापना से ही संभव है।


डा.वेदप्रकाश

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