विविधा

हिंदी प्रचार-प्रसार : एक कड़वा सच

-बीएन गोयल-
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प्रवक्ता में प्रकाशित डॉ. मधुसूदन के लेख और उस पर हुई प्रतिक्रिया स्वरूप डॉ. महावीर शरण जैन की टिप्पणी हिंदी के प्रचार प्रसार के सन्दर्भ में अत्यधिक प्रासंगिक है। यह एक प्रकार से दो विद्वानों के बीच एक साहित्यिक शास्त्रार्थ है। इसी दौरान भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने अपना काम काज हिंदी में करने का निर्णय लिया है। केंद्रीय सरकार ने राज्य सरकारों को सरकारी काम काज हिंदी में काम करने के आदेश निकाले हैं। कुछ राज्यों ने इस पर अपनी प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी है।

डॉ मधुसूदन और डॉ जैन की चर्चा का प्रारम्भ वर्धा के हिंदी शब्दकोष के सन्दर्भ में था, लेकिन इस में विषयांतर हो गया। मूल प्रश्न था हिंदी को स्वीकार करने का। यह संविधान सम्मत होते हुए भी इस में बाधाएँ आती रही। मेरा निवेदन है कि यह गुत्थी इस तरह के लम्बे विवादों अथवा आरोप प्रत्यारोप से सुलझनें वाली नहीं है। डॉ. जैन हिंदी के पुरोधा हैं। वर्धा हिंदी कोष को लेकर 27 अप्रैल 2014 के हिंदी दैनिक जनसत्ता में कुलपति विभूति नारायण रॉय को लेकर काफी छीछालेदर हुई थी। उस पूरी बहस के केंद्र में कुलपति महोदय थे और सभी ने अपनी भड़ास निकाली थी। उस से किस को लाभ हुआ या किस ने उस से कुछ ग्रहण किया यह तो नहीं कहा जा सकता। हाँ उस में कुछ लोगों को बीच बाज़ार में अवश्य खड़ा कर दिया गया।

मेरी मान्यता है कि भाषा के विकास के लिए उसमें ग्रहणशीलता का होना आवश्यक है। संस्कृत भाषा हिंदी सहित अनेक अन्य भाषाओं का आधार है … एक बार एक श्यामवर्ण अफ़्रीक़ी भाषाकार ने मुझ से हिब्रू और संस्कृत में साम्यता तलाश करने में मेरी मदद मांगी थी। मैंने उन को मोनियर विलियम्स का संस्कृत-अंग्रेज़ी शब्द कोष भेज दिया। एक महीने बाद वे कुछ शब्दों की सूची लेकर आये। उन्होंने कहा की ये शब्द संस्कृत और हिब्रू में समान हैं – विशेषकर रिश्ते वाले शब्द जैसे की मातृ, पितृ, भ्राता, भगिनी और ऐसे ही अन्य भी। उन सज्जन की प्रसन्नता देखने योग्य थी।
यह भी एक सत्य है कि इतिहास के घात प्रतिघात और विदेशियों के आगमन के फल स्वरूप हमारी भाषा समृद्ध भी हुई हैं। शब्द भण्डार बढ़ा है। स्वतंत्रता संघर्ष दौरान महात्मा गांधी सहित सभी नेता हिंदी-हिंदुस्तानी भाषा के बारे में एकमत थे, लेकिन आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत में हिंदी की दशा खेदजनक है।

संविधान निर्माण के दौरान इस विषय पर काफी लम्बी बहस हुई, हिंदी अथवा हिंदुस्तानी के नाम पर मतदान हुआ, लिपि को लेकर चर्चा हुई, अंकों के लिए तर्क वितर्क दिए गए और अंततः हिंदी को राज भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इस के लिए 15 वर्ष का समय निश्चित किया गया। लेकिन गत 15 नहीं 65 वर्षों में स्थिति बदतर ही होती गयी।

हमारे पिछड़ने का एक मुख्य कारण हमारा अपनी भाषा का निरादर करना है। इसके लिए हमारा बाद का आने वाला नेतृत्व मुख्यतः दोषी है। यद्यपि उस समय हमारे पास डॉ. राजेंद्र प्रसाद, राजऋषि पुरुषोत्तम दास टंडन, डॉ. भगवान दास, सेठ गोविन्द दास आदि अनेक दिग्गज थे। मुंशी जी के उत्तर प्रदेश के राज्यपाल होने के समय उप्र सरकार की हिंदी और संस्कृत की एक बड़ी मोटी त्रैमासिक पत्रिका ‘शिक्षा’ निकलती थी। इस में प्रबुद्ध साहित्यकारों विद्वानों के लेख होते थे, लेकिन यह भी काल कवलित होती गयी।

हिंदी का एक व्यवहारिक और साधारण जनता के लिए उपयोगी शब्द कोष बनाने का काम तत्कालीन प्रसिद्ध विद्वान डॉ रघुवीर को दिया गया था । उन्होंने इस पर काम किया। लेकिन इस का परिणाम सुखद नहीं हुआ। डॉ रघुवीर प्रशंसा की अपेक्षा उपहास के पात्र अधिक बने। उनके सुझाये गए शब्दों को नकार दिया गया और हिंदी के पिछड़ने का दोष डॉ रघुवीर के माथे मढ़ दिया गया। संभवतः उन की शब्दावली अधिक संस्कृत निष्ठ थी। लेकिन प्रश्न है क्या इस के लिए वे अकेले दोषी थे। उन का कोष कुछ शब्दों को लेकर उपहास का विषय बन गया था। हिंदी का नाम आने पर लोग रेल के लिए ‘लौह पथ गामिनी’ और साइकिल के लिए ‘द्विचक्र वाहिनी ‘कह कर हंसी उड़ाते थे लेकिन कोई इस बात का उत्तर नहीं देता कि Phone के लिए दूरभाष, Type के लिए टंकण, Printing के लिए मुद्रण, लोक सभा स्पीकर के लिए ‘अध्यक्ष’ शब्द कैसे प्रचलित हो गए। डॉ मधुसूदन ने अपने लेख में भारत सरकार द्वारा स्वीकृत विभिन्न 45 पदों के अंग्रेजी नामों के साथ उनके हिंदी नामों की सूची दी है। ये हिंदी नाम डॉ रघुवीर के कोष से ही हैं। इन के अतिरिक्त और भी बहुत से शब्द हैं जो प्रशासन द्वारा मान लिए गए हैं और वे आज प्रचलन में हैं। मैं स्वयं भारत सरकार की नौकरी में रहकर अपनी हिंदी नोटिंग में कुछ हिंदी शब्दों का प्रयोग करता रहा हूँ और कहीं कोई परेशानी नहीं हुई। जैसे For approval के लिए ‘अनुमोदनार्थ’ अथवा ‘अनुमोदन के लिए’, Approved के लिए अनुमोदित, Recommend के लिए ‘अनुशंसित’ शब्द प्रचलन में हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश राज्यों में अधिकांशतः सरकारी काम हिंदी में ही होता है।

खेद की बात यह है की संविधान को बहकाने के लिए हम ने हिंदी प्रचार के नाम पर हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मना कर कुछ बहाने ढूंढे। भारत सरकार ने गृह मंत्रालय के अंतर्गत राज भाषा विभाग खोल दिया। सभी जानते हैं कि राज भाषा के नाम पर यह महज एक खाना पूर्ति ही है। इस का काम हिंदी का प्रचार प्रसार करने की अपेक्षा आंकड़े बनाना हो गया। भारत सरकार के प्रत्येक कार्यालय में राज भाषा अधिकारी बन गए, जो स्वयं में सफ़ेद हाथी ही साबित हुए. अनुवाद ब्यूरो खुल गया जिस का काम हिंदी अनुवाद में सहायता करना था। संसदीय समिति बन गयी जिस का काम विभिन्न कार्यालय में जाकर हिंदी की प्रगति को देखना और उन्हें निर्देश देना है। लेकिन वास्तविकता क्या है यह सब जानते हैं। कभी किसी ने इन से नहीं पूछा की ये सांसद स्वयं हिंदी में कितना काम करते हैं ?

हमारा विदेश मंत्रालय प्रत्येक वर्ष किसी एक देश में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करता है। उस देश के भारतीय दूतावास पर इसका उत्तरदायित्व होता है। यह एक प्रकार का हिंदी का महाकुम्भ होता है जिसमें काफी लोग एकत्रित होते हैं। हिंदी के नाम दोनों देशों के बड़े बड़े नेता इस में शामिल होते हैं। भारी भरकम प्रस्ताव पास होते हैं। करोड़ों रुपये स्वाहा होते हैं, कुछ नेताओं, अधिकारियों, पत्रकारों और विद्वानों के विदेश के टूर लगते हैं। उन्हें डॉलर में टीए / डीए मिल जाता है। लेकिन परिणाम इसका भी वही ढाक के तीन पात। एक दिलचस्प बात यह है की इन सम्मेलनों की गिनती ही गड़बड़ा गयी है। इन पंक्त्तियों का लेखक भारतीय दूतावास में हिंदी एवं सांस्कृतिक अधिकारी होने के नाते स्वयं इस तरह क पाँचवें सम्मेलन का संयोजक रहा है। लेकिन इस के बाद हुए सम्मेलन की गिनती फिर तीन से शुरू हो गयी अर्थात अगला सम्मलेन छठा होने की अपेक्षा तीसरा कहा गया। संयोजक होने के नाते मैं इस बरबादी का साक्षी रहा हुँ। कभी कभी ठन्डे दिमाग से सोचता हूँ कि क्या इस से हिंदी का कुछ भला हो सका है? क्या कभी किसी स्तर पर इस की समीक्षा की गयी? क्या किसी ने इस सम्मेलन में आने वाले अधिकारियों, नेताओं, पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों पर होने वाले खर्च के औचित्य कि समीक्षा की ?

इसी प्रकार विदेश मंत्रालय हिंदी प्रचार प्रसार के नाम पर हर वर्ष हिंदी की पुस्तकें ख़रीदता है जो हर भारतीय दूतावास को भेजी जाती है। कभी किसी ने इस बात की जांच पड़ताल नहीं की वे पुस्तकें उन देशों के लिए कितनी उपयुक्त हैं ? क्या कभी उन का चयन उपयोगिता की दृष्टि से हुआ ? क्या वे पुस्तकें किसी ने पढ़ी? उत्तर है नहीं। क्योंकि ये पुस्तकें पढ़ने के लिए नहीं होती। ये पुस्तकें अधिकांशतः किसी की डाक्टरेट की थीसिस होती है या ऐसी पुस्तकें होती हैं जो किसी विक्रेता के रखे रखे पुरानी हो गयी और बिकती नहीं। यह हिंदी के नाम पर पैसे का दुरुपयोग नहीं है तो क्या है ? यह एक कड़वा सच हैं।

मूल प्रश्न यही है कि हिंदी का विकास कैसे हो? कैसे देश के लोग इसे अपनी भाषा समझे? युवाओं में हिंदी के प्रति कैसे अपनी भाषा के प्रति प्रेम भाव जगाया जाये ? हिंदी के विरोधी लोगों का कथन एक सीमा तक ठीक हो सकता है कि हिंदी उन्हें नौकरी नहीं दिला सकती, हिंदी से वे अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते, फिजिक्स, केमिस्ट्री, गणित जैसे टेक्निकल विषय वे हिंदी में नहीं पढ़ सकते, सूचना प्रौद्योगिकी में भारत ने विश्व में जो स्थान बनाया है वह हिंदी से नहीं अंग्रेज़ी के कारण हुआ है आदि? इन सब प्रश्नों के उत्तर में मैं युवा पीढ़ी से यही कहूँगा कि आप को कब और किस ने अंग्रेज़ी भाषा पढ़ने से रोका है। अंग्रेज़ी पढ़ो लेकिन अपने भाषा का तिरस्कार न करो। हिंदी भाषी होने के नाते स्वयं को हीन मत समझो। जापान, जर्मनी अथवा फ्रांस में अपनी भाषा के सामने कोई अँग्रेज़ी को महत्व नहीं देता। इस देश में पंडित नेहरू, डॉ राजेंद्र प्रसाद, राज ऋषि टंडन, पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, सेठ गोविन्द दास, डॉ भगवान दास, उनके सुपुत्र डॉ श्री प्रकाश आदि ऐसे अनेक नेता हुए हैं जो हिंदी के पक्षपाती थे और अंग्रेज़ी में भी दक्ष थे…। विश्व के अधिकांश देशों के विद्वान एक विकासमान और अच्छी हिंदी के लिए भारत की ओर देखते हैं।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र-