विविधा

हिंदी का सफ़र: अर्श से फर्श तक ….

प्रशांत राय

हिंदी हमारी राज भाषा होने के साथ साथ विश्व की चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है | यह विश्व के लगभग ३० करोड़ (४.४६ %) लोगो द्वारा बोली जाती है; जिसके ऊपर सिर्फ मंदारिन (१४.१ %), स्पेनिश (५.८ %) और अंग्रेजी (५.५२ %) भाषा ही आती हैं | इसकी प्रसारता भारत के १० हिन्दीभाषी राज्यों के अलावा नेपाल, त्रिनिदाद और टोबागो तक है | यह उन चुनिन्दा भाषाओँ में से एक है जो अपने आप में सभी भाषाओँ को समाहित कर लेती है | मुग़ल शासन के समय इसने उर्दू को अपनी जुबान बना ली , अंग्रेजी हुकूमत के वक्त इसने अंग्रेजी को भी अपने रंग में रंगना शुरू किया ; और आज ये आलम है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में चले जाइये तो आपको हर किसी कि जुबान में हिंगलिश के तौर पर नजर आएगी | हिंदी अपने आप में इतनी विविधताओं को समेटे हुए है कि आप हर ५ कोस पर इसके बोल चाल के लहजे में फर्क महसूस करेंगे | भाषा के तौर पे अपने आप में इतनी धनी, इतने प्रसार और इतने लोगों के द्वारा बोले जाने के बावजूद यह अपने जीर्णावस्था की तरफ अग्रसर है | आखिर क्या वजह है कि हिंदी को वो सम्मान, वो गौरव और वो विश्वास नहीं मिल पा रही है ; जिसकी वो हकदार है ?

वजह साफ़ है | जब अंग्रेज भारत से जाने लगे तो उन्होंने अंग्रेजी के रूप में एक ऐसी लकीर भाषाओँ के बीच खीच दी ; जो समय के साथ साथ खाई के रूप में परिवर्तित होती गयी | आज आलम ये है कि भारत को अंग्रेजी तबके के लोग इंडिया और हिंदी और अन्य भाषा के लोग भारत बुलाने लगे | यह खाई सिर्फ नाम तक ही सीमित नहीं रही बल्कि नाम के साथ साथ वैचारिक, ब्याव्हारिक, क्षेत्रीय और श्रेष्ठता के रूप में कई सारे बंटवारे करती गयी | आज भारत का हर परिवार चाहे वो मध्यमवर्गीय हो या फिर सक्षम तबके का हो और विशेषकर शहरी क्षेत्रों के ;अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेजता है | उनकी भी मजबूरी है , वो भी लाचार है – करे तो क्या करे ; रोजगार के अधिकांश अवसर विशेषकर सर्विस और आईटी सेक्टर के – अंग्रेजी माध्यम वाले लोगो के लिए ही उपलब्ध है | यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि आईटी और कॉल सेंटर पर हम गर्व महसूस करते हैं वो सिर्फ उन्ही लोगो तक सिमित हैं जिन्होंने अपनी पढाई अंग्रेजी माध्यम में की ( अपवादों को हम छोड़ सकते हैं )|

जिस तरह से समाज का बंटवारा जाति , धर्म और क्षेत्र के रूप में किया गया , उसी तरह समाज में एक और बंटवारा हो रहा है – अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी न बोलने वालो के रूप में | आप किसी माल में चले जाइये या स्कूलों के पैरेंट्स मीटिंग में चले जाइये ; अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तो आपको वो सम्मान नहीं मिल पाएगा जो सम्मान एक अंग्रेजी बोलने वालो को मिलता है | मै अंग्रेजी बोलने वाले लोगो के ऊपर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा बल्कि उस विभाजन की तरफ इंगित कर रहा हूँ जो आज स्टेटस सिम्बल के तौर पर देखा जा रहा है |

यह विभाजन समाज के अधिकांश क्षेत्र में देखने को मिल जाएगा | उदहारण के तौर पर साहित्य को ले लीजिये ; आप एक भी वर्तमान के युवा हिंदी लेखको का नाम बता दीजिये , आप बड़े मुश्किल से नाम गिना पाएँगे | यंहा तक कि आप किसी पुस्तकों की दुकान पर चले जाइये आपको इंग्लिश उपन्यासों कि भरमार मिल जाएगी | आपको चेतन भगत की फाईव पॉइंट समवन से लेकर अमीश की नागा तक सैकड़ों उपन्यास अंग्रेजी में मिल जाएँगे , यंही नहीं उन्ही किताबो का हिंदी रूपांतरण भी मिल जाएगा | हिंदी में तो सिर्फ प्रेमचंद , धर्मवीर भारती और कुछ पुराने लेखको की पुस्तकें दिख जाएंगी | क्या वास्तव में हिंदी युवा लेखकों का आभाव है या फिर वो अपनी मार्केटिंग नहीं कर पाते हैं ? बॉलीवुड को ले लीजिये – जिसका सम्पूर्ण आकार लगभग २०००० करोड़ का है और सारी फिल्मे हिंदी में हीं बनती है | सारे कलाकारों की रोजी रोटी हिंदी की वजह से चलती है पर फिर भी किसी भी आयोजन में आप उनकी हिंदी में भाषण या वार्तालाप नहीं सुनेंगे |

बेरोजगारी दर में भाषा के रूप में अंतर और बड़ा होता जा रहा है | आप अगर अंग्रेजी जानते हों तो आपके लिए प्राइवेट सेक्टर के दरवाजे खुले हैं, किन्तु अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो आप के लिए रोजगार के अवसर सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सिमित रह जाएँगे | और अगर आपने प्रतिस्पर्धा के माध्यम से प्राइवेट सेक्टर में नौकरी पा भी ली तो आपकी समस्या वही समाप्त नहीं हो जाती ; आपका अंग्रेजी भाषा में प्रवाह अगर अंग्रेजी माध्यम वालो से बेहतर नहीं हुआ तो आप फिर परतिस्पर्धा में पिछड़ जाएँगे |

इस खाई को पाटने के लिए सरकार को अहम् भूमिका निभाने पड़ेगी, वरना वह दिन दूर नहीं जब हिंदीभाषी और अन्य भाषाओँ के छात्र भाषा के नाम पर आरक्षण की मांग करने लगेंगे | आप सीबीएसई और आई.सी.एस.इ के परीक्षाओं का परिणाम देखिये; वंहा पर बच्चे ९९% तक अंक प्राप्त करते है ,लेकिन आप एक भी हिंदी भाषी शिक्षा परिषद् नहीं बता पाएंगे जहाँ पर इसके इर्द-गिर्द भी अंक मिलते हों | यंही हाल सिविल सर्विसेस से लेकर अन्य प्रतियोगिताओं में भी होता है| इलाहबाद और पटना से लाखों हिन्दीभाषी छात्र इन प्रतियोगिताओं में बैठते हैं , पर हिंदीभाषी निरीक्षको की मानसिकता कह लीजिये या फिर छात्रों का कम ज्ञान ; वंहा पर भी हिंदीभाषी छात्रो के उत्तीर्ण होने की दर अंग्रेजी के छात्रों से काफी कम होती है | परिणाम स्वरुप उन हिंदीभाषी छात्रो की बेरोजगारी दर बढती जाती है |

इस बात को हमें अच्छे से समझ लेना चाहिए कि जब तक हिंदी और भारत में बोली जाने वाली अन्य भाषाओ का विकास कला, संस्कृति , और रोजगार के तौर पर नहीं होगा ; तब तक भारत एक विकसित देश नहीं बन सकता | आप आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो पाएँगे कि विश्व के हर विकसित देश : चाहे वो अमरीका , इंग्लैंड , जर्मनी या फ़्रांस हो या फिर जापान, कोरिया और चीन हो – वो विकसित हैं ; इसका एक प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने अपनी राष्ट्र भाषा को ही हर क्षेत्र में प्राथमिकता दी है | अपनी भाषा के सन्दर्भ में भारतेंदु हरिशचंद्र ने कहा है –

निज भाषा उन्नति अहे , सब उन्नति को मूल |

बिन निज भाषा-ज्ञान के , मिटत न हिय को सूल ||