आर. सिंह
मैने यह आलेख श्री राकेश कुमार आर्य के आलेख “संपूर्ण भारत कभी गुलाम नहीं रहा “ पर टिप्पणी के रूप में लिखना आरम्भ किया था,पर यह धीरे-धीरे इतना बड़ा हो गया कि मैने इसे प्रवक्ता में एक अलग आलेख के रूप में भेजना उचित समझा.
राकेश जी का यह प्रयत्न सराहनीय है, इसमे दो मत नहीं. ऐसे भी किसी लूटेरे या आक्रंता के लिए उस जमाने में संपूर्ण भारत को गुलाम बनाना इतना आसान भी नहीं था, क्योंकि भारत विभिन्न स्वतंत्र इकाइयों में बँटा हुआ था, और इन लूटेरों या आक्रमण कIरियों की इतनी क्षमता नहीं थी कि वे उन सब इकाइयों पर कब्जा करते,पर उस समय भी यह भारत का दुर्भाग्य था कि ये स्वतंत्र इकाइयाँ एक दूसरे की सहयोगी नहीं थी. सब अपनी डफली अपना राग अलाप रहे थे. इसीलिए एक संस्कृति का सूत्र जो राष्ट्र को जन्म देता है,वैसा होते हुए भी उस समय राष्ट्रीय भावना का विकास या तो नहीं हो पाया था या आपसी कट्टूता में वह दब गया था,नही तो ऐसा कोई कारण नहीं था कि यदि हम मिलकर लड़े होते, तो कोई आँख उठाकर भी इस ओर देखता.
जहाँ तक मेरी जानकारी है, भारत आख़िरी बार एक सूत्र में गुप्त वंश तक था. उसके बाद सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुए हर्षवर्धन. उनका राज्य भी विन्ध्य पर्वत के उतर तक ही सीमित था. विन्ध्य के दक्षिण अनेक प्रयत्नों के बावजूद वे नहीं पहुँच सके थे. फिर भी मुस्लिम आक्रांता,अगर आते भी तो उनके राज्य की सीमा में नहीं प्रवेश कर पाते. हर्षवर्धन के बाद का भारत का इतिहास वास्तव में हमारी अनेकता या आपसी द्वेष का इतिहास है,जिसका भरपूर लाभ आक्रमण कारियों को मिला. यद्यपि वे संपूर्ण भारत पर कब्जा जमाने में असमर्थ रहे, पर अपनी ताकत बढ़ाते गये. पता नहीं हममे क्या कमज़ोरी थी कि हम कभी भी मिलकर इन शत्रुओं का सामना नहीं कर सके,नतीजा यह हुआ कि देश के बहुत से शूरवीरों के बलिदान के बावजूद उनका दबदबा बढ़ता गया.
फिर भी दिल्ली के तख्त पर आसीन होने के बावजूद १५२६ तक मुस्लिम शासकों का दबदबा बहुत सीमित था. बगल में राजपूताना भी उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर था. संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत यद्यपि उस समय भी टूकाड़ों में बँटा हुआ था, पर इन इकाइयों का अपना अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व था. यहाँ राकेश जी से थोड़ा अलग हट कर मैं यह कहना चाहता हूँ कि व्यक्तिगत वीरता की बहुत सी गाथाएँ तो इस समय तक भी सामने आ चुकी थी और उनके महत्व से भी इनकार नहीं किया जा सकता,पर वे भारत का इतिहास बदलने में सफल नहीं हो सकी.
भारत का असली दुर्भाग्य तो आरम्भ होता है १५२६ के बाद, जब पानीपत की पहली लड़ाई हुई.यद्यपि, उसके बाद भारत धीरे धीरे एक बड़े साम्राज्य के रूप में उभडने लगा, पर उसकेसाथ ही गुलामी की जंजीर भी उसके बहुत बड़े भू भाग पर कसने लगी. मेरे विचार से इसमे प्रथम दोषी राणा सांगा हैं. इतिहासकारों के अनुसार बाबर के आक्रमण का सामना करने के लिए इब्राहिम लोदी ने,जो उस समय दिल्ली का शासक था,राणा सांगा से मदद माँगी थी, पर राणा सांगा ने इनकार कर दिया. मेरे जैसोंके विचार से यह उनकी बहुत बड़ी भूल थी और उस भूल ने वहाँ से भारत के इतिहास को नया मोड़ दे दिया.
राणा सांगा ने शायद सोचा हो कि पानीपत की लड़ाई में एक तो हारेगा,जो जीतेगा भी वह भी इतना थका हुआ रहेगा कि उसको हराना आसान हो जाएगा. तब उनका दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सपना साकार हो जाएगा,पर बाद की घटनाएँ साक्षी है कि उनका सोचना ग़लत सिद्ध हुआ. बाबर की सेना कट्टीवद्ध लोगों का एक ऐसा दल था,जो छोटा होते हुए भी बहुत कुछ करने में समर्थ था, क्योंकि बाबर स्वयं एक शूरवीर लड़ाका था. उसकी जीत हुई और दूसरे ही वर्ष भीड़ गया वह राणा सांगा से. इस लड़ाई में यद्यपि , कहा जाता है कि राणा सांगा का पलड़ा भारी था,पर विकलांग महाराज के एक आँखमें तीर लगते ही(दूसरी आँख तो पहले ही लड़ाइयों की भेंट चढ़ चुकी थी) युद्ध का पासा पलट गया. यह युद्ध बाबर के लिए निर्णायक युद्ध था और तब इन मुगल आक्राणताओं को रोकने वाला भारत में कोई नहीं था. बाबर ने दिल्ली और राजपूताना पर कब्जा तो कर लिया,पर उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे हुमायूँ की अदूरदर्शिता के चलते उसका साम्राज्य चार भागोंमें बँट गया और उसका सीधा लाभ मिला शेरशाह सूरी को,पर अंत में हुमायूँ ने शेरशाह सूरी के वंशजों से १५ वर्ष बाद फिर सत्ता छीन ली,पर असमय ही उसकी भी मृत्यु हो गयी. .
इसके बाद भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ आया,जो हमारी पूरी संस्कृति और सभ्यता पर प्रश्न चिह्न लगा देता है. शेरशाह सूरी के बाद उसी इलाक़े से हेमू या हेमचंद्र अवतरित हुआ , जो एक हिंदू राजा था,पर दुर्भाग्य बश राजपूत नहीं था,जिसका खामिजाना बाद में पूरे राष्ट्र को भुगतना पड़ा. हेमू एक तूफान था.वह सबको तहस नहस करते हुए आगे बढ़ रहा था और दिल्ली तक पहुँचने में सफल भी हो गया था,पर वह इस इलाक़े से एक तरह अंजान था. अगर उस समय उसे राजपूताना के शासकों का साथ मिला होता,तो १५५६ में पानीपत की दूसरी लड़ाई में बैरम ख़ान और अकबर की सेना नहीं बल्कि हेमू की सेना जीती होती. तब भारत का इतिहास यहाँ से भी एक नया मोड़ ले सकता था. महाराणा प्रताप के बीरता की बहुत कहानियाँ है,पर उस समय महाराणा प्रताप या उनके पिता महाराणा उदय सिंह कहाँ थे?
अब तो मुगल भारत का हिस्सा बन चुके थे. कुछ बीर बाकुंड़ो ने तब भी उनकी अधीनता नहीं स्वीकार की थी,जिसमे पहले महाराणा प्रताप और बाद में शिवाजी का नाम सर्वोपरि है. पर इस सत्य को भी स्वीकारना पड़ेगा कि तब तक मुगल भी भारत का हिस्सा बन चुके थे और उनको पदस्त करने के सब उपाय व्यर्थ सिद्ध हो रहे थे,फिर भी एक संघर्ष तो उन लोगों द्वारा चलाया ही जा रहा था,जो इसको किसी तरह भी स्वीकार नहीं करना चाहते थे,पर वे सफल नहीं हो रहे थे.
इसी बीच भारत एक अन्य मोड़ की ओर अग्रसर हो रहा था. अंग्रेज ,जिनको व्यापार करने की छूट मुगल शासकों द्वारा दी गयी थी,अपना पाँव फैलाने लगे थे. शिवाजी और उनके बाद अन्य मराठा सरदारों का दबदबा भी मध्य भारत के एक बड़े हिस्से पर कायम हो चुकाथा. राजपूताना में राजपूत भी कम मजबूत नहीं थे,पर बात फिर वहीं थी. अगर वे लोग सचमुच में मुगलों को बाहरी और आक्राणता मानते थे,तो उनको मिलकर मुगलों को उखाड़ फेंकना था,नहीं तो उनके साथ सह अस्तित्व कायम रखना था,पर नहीं,अभी तो भारतीय इतिहास का तीसरा महत्व पूर्ण मोड़ बाकी था.
आपसी फूट के कारण भारत के अधिकतर राज्य सतरह्वीं सदी तक कमजोर पड़ चुके.थे. हालात वही थे,जिसने मुस्लिमों को ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में भारत में आसानी से जड़ जमाने का मौका दिया था. अँग्रेज़ों ने इसका भरपूर लाभ उठाया. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत पर अब तक जिसने भीं आक्रमण किया था,चाहे वे हूण हों या अन्य या फिर मुगल और अन्य मुस्लिम,सब धीरे धीरे भारत के वाशिन्दे बन गये थे,पर अँग्रेज़ों ने ऐसा नहीं किया. वे आए थे राज्य करने और भारत के धन से ब्रिटिश तिजोरी भरने और अंत तक वे यही करते रहे.ब्रिटेन से ही अपने प्रतिनिधियों के सहारे राज्य चलाते रहे.
अब आता है भारत के इतिहास का तीसरा महत्व पूर्ण मोड़. १७५७ में पलासी की लड़ाई जीतकर अँग्रेज़ों ने, यदपि भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी,पर अभी भी उनको कोई महत्व नही देता था. वह अवसर उन्हे प्रदान किया १७६१ की पानीपत की तीसरी लड़ाई ने.यह लड़ाई मराठो के लिए दिल्ली पर कब्जा करने का निर्णायक युद्ध था. मुगलों शासकों ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया,पर राजपूतों ने मराठो का साथ नहीं दिया. युद्ध में मराठे हावी थे,पर अंत में जीत अहमद शाह अब्दाली की हुई.,पर इस लड़ाई ने मराठा शासन की कमर तोड़ दी . मुगल तो पहले ही कमजोर हो चुके थे,अतः लाभ तीसरी पार्टी यानि अँग्रेज़ों को मिला. इतिहास में ऐसे बहुत कम ही अवसर आए हैं,जब दो दलों की लड़ाई में तीसरे को लाभ हुआ हो. राजपूत तीसरी बार खलनायक सिद्ध हुए
उसके बाद भारत में अँग्रेज़ों का दबदबा तेज़ी से बढ़ा और ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत वे भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे. शासन तो ब्रिटेन के तत्वाधान में ही चलता रहा.
फिर आया १८५७. इसे पहले तो सिपाही विद्रोह का नाम दिया जाता रहा,पर बाद में इतिहास कारों ने प्रमाणित किया कि यह अँग्रेज़ों के खिलाफ भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था,तो फिर इसमे राजपूताना के राजपूत और पंजाब के सिक्ख क्यों नहीं शामिल थे? इतना ही नहीं राजपूत रेजीमेंट और सिक्ख रेजीमेंट ने इस विद्रोह को कुचलने में मदद की. ऐसा क्यों बार बार हुआ कि राजपूत जैसी वीर और लड़ाकू जाति हमेशा या तो इन लड़ाइयों से दूर रही(पानीपत की तीनों लड़ाइयाँ) या उसके विरुद्ध में (१८५७) रही? क्या इन घटनाओं से यह सिद्ध नहीं होता कि हममे किसी ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखा ही नहीं. सब अपनी डफली अपना राग अलापते रहे.
क्या ये हमारी ग़लतियाँ नहीं थी, जिसका नुकसान हमें बार बार उठाना पड़ा? क्यों नहीं कभी भी हमारा राष्ट्र प्रेम हमारे स्वार्थों पर हावी हो सका? इसका उत्तर आज भी हमसे हमारा इतिहास माँग रहा है,क्योंकि हमने ये ग़लतियाँ बार बार दुहराई.
(नोट : इस आलेख को लिखने में किसी सन्दर्भ यानि रेफ़्रेंस का सहारा नहीं लिया गया है,अतः कुछ त्रुटिया भी हो सकती हैं,पर मैं नहीं समझता कि उससे मूल तथ्य पर कोई असर पड़ेगा..)
आज जब मैं यों हीं प्रवक्ता.कॉम के पन्ने उलट रहा था,तो मेरी नजर सात वर्षों पहले लिखी अपने इस आलेख पर पड़ी.उस समय मैंने लिखा था कि भारत का इतिहास हमारी गलतियों की कहानी, पर आज मुझे लगता है कि भारत का हमारे गलतियों से ज्यादा हमारे स्वार्थों की कहानी है.
इसीलिए एक संस्कृति का सूत्र जो राष्ट्र को जन्म देता है,वैसा होते हुए भी उस समय देशीय भावना का विकास या तो नहीं हो पाया था – एक हिन्दू राष्ट्र में अनेक देश रहे हैं
हर्षवर्धन के समय इस्लाम बना तो था पर उसका प्रवाह भारत तक नहीं आया – इस्लाम एक राष्ट्र है और संप्रदाय की एक राजनीती, एक पूजा केंद्र, एक शक्ति के प्रतीक के रूपमे लगातार उभरा है और आज भारत राष्ट्र( देश नहीं) जिसे हिन्दू रास्त्र भी कह सकते हैं के आधे हिस्से(अफगानिस्तान, पाकिस्तान , बैन्ग्लादेश, मलयेशिया , भा रत श्रीलंका का बड़ा भाग) को निगल चुका है – १५२६ तक मुस्लिम शासकों का दबदबा बहुत सीमित था क्योंकि उनकी संख्याकम थी- मुगलों ने रिश्ते यहाँ बना संख्या बढ़नी शुरू की- अपने को उदारवादी बना हिन्दुओं को डकार लिया – और्ग्जेब ताना तो शीघ्र पटना हुआ- लोन शत्रु से लड़ सकते पर ढोंगी मित्र से नहीं – राणा सांगा इब्राहीम लोदी को मुस्लिम समझ ही मदद न दी होगी – उनके लिए दोनों ही आततायी- पलासी की लड़ाई में केवल ७ ब्रिटश मरे गए थी- जो इलाका जीता बिहार, बंगाल(बांग्लादेश सहित०,झारखण्ड,ओरिस्सा जिसकी जन्संझ्या ३ करोड़ और राजस्वा २५ लाख पौंड प्रति वर्ष दुनिया में इतनी बड़ी लाभ की जीत इतने कम लोगों ने मरकर नहीं जीती( ताराचंद का भारत का इतिहास देखें) १७६१ की पानीपत की तीसरी लड़ाई ने.यह लड़ाई मराठो के लिए दिल्ली पर कब्जा करने का निर्णायक युद्ध था. . राजपूत तीसरी बार खलनायक सिद्ध हुए सही हो सकता है पर इसका अर्थ किसी आजके राजपूत से नहीं लगाया जय वल्कि उसे उस समय का स्थानीय शाशक माने
भारत में अँग्रेज़ों का दबदबा तेज़ी से बढ़ा
फिर आया १८५७. र इसमे राजपूताना के राजपूत और पंजाब के सिक्ख क्यों नहीं शामिल थे?
नेपाल कभे इभी गुलाम नहे एहुवा – असम भी मुगलों कहाथ नहीं लगा – अंग्रेज आये गए पर अंगरेजी और अंग्रजियत छोड़ गए जिससे लाभ और हनी दोनों हैं- मुस्लमानोने १६ प्रतिशास्त सख्या के बल पर ३३ प्रतिशत जमीन ले ली पाकिस्तान के रूपमे 9 pratisht idhar ही रहे – आज वे ही apratyaksh अपने मतों से राज्य कर रहे हैं- वे एक संगठित राष्ट्र हैं हिन्दू बिखरा है – शंकराचार्य डॉ हेडगेवार का स्वप्न चूर -चूर हो चुका है
डाक्टर ठाकुर आपने इस आलेख पर टिप्पणी की,उसके लिए धन्यवाद. पर आप जब अपनी टिप्पणी पढ़ेंगे तो स्वयं आपको लगेगा कि आपने ज्वलंत प्रश्नो को केवल टाला है. हमे कभी न कभी तो आत्म विश्लेषण करना ही पड़ेगा कि बार बार हमने ये ग़लतियाँ क्यों की. क्या कमी है हमारी संस्कृतिमें?
सहसा याद नहीं की क्या मैंने टाला है? जातीय आधार पर विश्लेषण को सही नहीं माना जा सकता यद्यपि जाति व्यवस्थाके कारण ही हिन्दू समाज का पूर्ण इस्लामीकरण नहीं हो पाया ( आनंद कूमार स्वामी ).( व्यक्तिगत रूपसे मैं जातीयता का विरोधी हूँ जाति के नाते ब्राह्मण मैथिल होने का कोई गर्व या अफ्शोश मुझे नहीं है. )
डाक्टर साहब, यहाँ मूल प्रश्न जातिवाद नहीं है. मूल प्रश्न है,भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने की. प्रश्न यह है कि भारत के इतिहास या साहित्य में कहीं यह सन्दर्भ मुझे क्यों नहीं दिखा,जिसमे भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखा गया हो
अभी तक इस आलेख पर प्रवक्ता के प्रेक्षकों की तरफ से कोई तरफ से कोई प्रतिक्रिया या टिप्पणी नहीं? इसका मतलब मैं क्या समझूँ?
उपरोक्त टिप्पणी “इस आलेख पर मैं अपनी टिपण्णी लिख रहा था, लेकिन वह टिपण्णी इतनी बड़ी हो गयी क़ि मैंने उसे प्रवक्ता के संपादक के पास एक आलेख के रूप में भेज दिया और वह प्रवक्ता के वाल पर आ भी गया. उसका लिंक है:https://www.pravakta.com/history-of-india-the-story-of-our-mistakes.”
असल में श्री राकेश कुमार आर्य के आलेख संपूर्ण भारत कभी गुलाम नहीं रहा के लिए था,पर ग़लती से यहाँ पोस्ट हो गया इस भूल से उत्पन्न ग़लतफहमी के लिए मुझे खेद है.
इस आलेख पर मैं अपनी टिपण्णी लिख रहा था, लेकिन वह टिपण्णी इतनी बड़ी हो गयी क़ि मैंने उसे प्रवक्ता के संपादक के पास एक आलेख के रूप में भेज दिया और वह प्रवक्ता के वाल पर आ भी गया. उसका लिंक है:https://www.pravakta.com/history-of-india-the-story-of-our-mistakes.