कैसे हो प्रकृति की विनाशलीला का सामना?

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shivaनिर्मल रानी
उत्तराखंड में गत् 16 जून को हुई प्रकृति की भयंकर विनाशलीला के बाद से लेकर अब तक प्रभावित क्षेत्रों में राहत कार्य बड़े पैमाने पर जारी हैं। हालांकि इस त्रासदी में मृतकों की संख्या का कोई अंदाज़ा नहीं है। न ही सरकार की ओर से आधिकारिक रूप से इस संबंध में कोई आंकड़े जारी किए गए हैं। परंतु सरकार व सहयोगी एजेंसियों द्वारा मृतकों व शवों को ढूंढने का काम अब बंद कर दिया गया है। केदारनाथ से लेकर गंगा सागर की यात्रा के दौरान पडऩे वाले गंगा नदी के हज़ारों किलोमीटर के मार्ग पर दूर-दराज़ के कई स्थानों से शवों के मिलने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। अपने परिजनों,रिश्तेदारों,मित्रों व परिचितों की खबर न मिल पाने से परेशान लोग तथा इनकी चिंता को दूर करने के प्रयास में लगी सरकार अभी इस ओर तो ध्यान दे ही नहीं पा रही है कि आखिर मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य कौन-कौन से और कितने प्राणी इस प्रलयरूपी विपदा का शिकार हुए हैं। केदारनाथ क्षेत्र में बादल फटने के बाद हुई भारी बारिश तथा इसके परिणामस्वरूप स्थानीय नदियों व नालों के उफान पर आने तथा उसके बाद बड़े पैमाने पर होने वाले भूस्खलन के शिकार लोगों को उस समय और भी अधिक परेशानी झेलनी पड़ी जबकि इस प्राकृतिक हादसे के बाद भी लगातार कई बार इसी क्षेत्र में भारी बारिश,भूकंप तथा ज़मीन खिसकने जैसी कई वारदातें हुईं।
कहा जा रहा है कि 2004 में दक्षिण भारत के समुद्री तटों पर आई सुनामी की भयंकर लहरों से पहुंचने वाले भारी नुकसान के बाद 16 जून को उत्तराखंड में आई तबाही देश में अब तक हुई प्राकृतिक त्रासदियों में दूसरे स्थान पर है। इसकी भयावहता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार अथवा कोई दूसरी राहत व सहायता एजेंसी अभी तक यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि इस प्राकृतिक विनाशलीला में कितने लोग लापता हैं। यहां तक कि हज़ारों व लाखों के अंतर का भी सही अंदाज़ा नहीं हो पा रहा है। हां यदि इस त्रासदी में एक बार फिर कोई शर्मनाक व अफसोसनाक चीज़ दोहराती हुई देखी जा रही है तो वह है इस प्राकृतिक विनाशलीला को लेकर होने वाली राजनीति,आरोप-प्रत्यारोप तथा सरकार को बदनाम करने की एक ऐसी कोशिश व साजि़श गोया कि इस विनाशलीला की जि़म्मेदार ही सरकार है तथा प्रभावित लोगों को न बचा पाने के लिए व इन्हें समय पर पर्याप्त राहत न पहुंचा पाने के लिए भी सरकार ही दोषी है। विपक्षी नेताओं द्वारा तो इस त्रासदी के कारणों को लेकर कुछ ऐसे भावनात्मक बेतुके तथा बेबुनियाद तर्क दिए जा रहे हैं जिसका कोई वैज्ञानिक व भौगोलिक आधार भी नहीं है। परंतु आम लोगों की धार्मिक भावनाओं को भडक़ाने के लिए तथा सत्तारुढ़ सरकार की ओर से लोगों का मोह भंग करने के लिए विपक्ष इस त्रासदी को अपने लिए एक अवसर के रूप में प्रयोग कर रहा है।
सवाल यह है कि क्या प्रकृति की विनाशलीला तथा सुनामी अथवा बादल फटने या अत्यधिक मूसलाधार वर्षा होने एवं भूस्खलन होने या अत्यधिक तीव्रता वाले भूकंप जैसी प्रलयरूपी प्राकृतिक विपदाओं से निजात पाना या प्रकृति के इस प्रकार के प्रलयरूपी प्रकोप से स्वयं को सुरक्षित रख पाना मानव शक्ति के वश की बात है? आज उत्तराखंड त्रासदी को लेकर जहां अनेक विपक्षी पार्टियां तथा इनसे जुड़े नेता राज्य सरकार, केंद्र सरकार तथा अपनी जान पर खेल कर राहत व बचाव कार्य में लगी सेना व अन्य गैर सरकारी संगठनों की आलोचना में लगे हैं वहीं कई विश्लेषक ऐसे भी हैं जो इस त्रासदी में चल रहे राहत व बचाव कार्यो को देश में अब तक चलाया जाने वाला सबसे बड़ा खतरनाक व जोखिमभरा राहत व बचाव अभियान बता रहे हैं।और इसका प्रमाण भी यह है कि इस बचाव कार्य के दौरान कई राहतकर्मी, सुरक्षा अधिकारी व जवान तथा हैलीकॉप्टर चालक दल के सदस्य आदि अपनी जानें गंवा चुके हैं। फिर भी घटनास्थल से दूर देहरादून,हरिद्वार अथवा दिल्ली में एयरकंडीशंड में बैठकर बयानबाज़ी करने वाले कई बयान बहादुरलोग सेना व सरकार को सहयोग करना व उनकी हौसला अफज़ाई करना तो दूर उल्टे इनकी आलोचना कर खुद अपनी लोकप्रियता बढ़ाने में व्यस्त दिखाई दे रहे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि भारत, चीन-जापान व अमेरिका जैसे देशों से प्राकृतिक विपदाओं से बचाव करने संबंधी व्यवस्थाओं में कहीं पीछे है। परंतु इन तीनों देशों को विश्व की अर्थव्यवस्था से लेकर आधुनिक तकनीकी क्षेत्र तक में सबसे अग्रणी माना जाता है। इत्तेफाक से यह तीनों ही देश समय-समय पर बड़ी से बड़ी प्राकृतिक विपदाओं का सामना करते रहते हैं। यहां भी भारत की ही तरह मौसम विभाग की चेतावनी किसी प्राकृतिक विपदा के समय यदि संभव हो तो जारी की जाती है। आम लोग इनका पालन करते हुए प्रभावित क्षेत्रों से दूर सुरक्षित स्थानों पर जाने का प्रयास भी करते हैं। इन देशों की सरकारें भी अपने जांबाज़ एवं प्रशिक्षित राहत व बचाव कर्मियों की भारी-भरकम टीम के साथ अत्याधुनिक साज़ो-सामान से लैस होकर प्राकृतिक विपदा का सामना करने के लिए जी-जान से जुट जाती हैं। परंतु इतनी चौकसी के बावजूद अक्सर यह देखा गया है कि प्राकृतिक विपदा की तीव्रता इतनी अधिक हो जाती है कि मनुष्य द्वारा किए गए सभी उपाय व बचाव संबंधी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। अमेरिका,चीन तथा जापान जैसे देशों में भी सुनामी,समुद्री तू$फान, भूकंप तथा भूस्खलन जैसी घटनाओं से लाखों लोग मारे जा चुके हैं। परंतु प्रलयरूपी प्राकृतिक विपदाओं का सामना न तो महाबली अमेरिका कर पाया है और न ही चीन व जापान जैसी आर्थिक महाशक्तियां।
ज़ाहिर है भारत वर्ष की स्थिति धार्मिक अंधविश्वास तथा इसे लेकर की जाने वाली राजनीति को छोडक़र शेष लगभग प्रत्येक मामले में इन देशों से पीछे ही है। इसलिए उत्तराखंड त्रासदी या 2004 में दक्षिण भारत में आई सुनामी अथवा 2001 में गुजरात के कच्छ व भुज क्षेत्र में आए प्रलयकारी भूकंप को लेकर राजनीति करना या इन विपदाओं से न निपट पाने के लिए सरकार सेना अथवा राहत व बचाव दल की आलोचना करना न केवल गैर मुनासिब है बल्कि इससे इनका मनोबल भी टूटता है। वैसे भी निकृष्टता तथा गैर जि़म्मेदारी हमारे देश की शासन व्यवसथा से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक में किसी भी दौर या शासनकाल में देखी जा सकती है। हमारे देश में अक्सर आपको यह खबर पढऩे को मिल जाएगी कि कोई व्यक्ति अपनी गंभीर बीमारी अथवा किसी हादसे में घायल होने के बाद अस्पताल तक तो पहुंच गया। परंतु अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही या अस्पताल स्टाफ के निकम्मेपन के चलते सही वक्त पर सही इलाज न मिल पाने के कारण उसने दम तोड़ दिया। ऐसे लापरवाह व गैर जि़म्मेदार वातावरण में आखिर यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि उत्तराखंड जैसी प्रलयकारी प्राकृतिक विपदा में शत-प्रतिशत काम तसल्ली बख्श हो तथा प्रत्येक व्यक्ति को तत्काल रूप से राहत पहुंचाई जा सके। वैसे भी हमारे देश में काम करने वालों की तो काफी कमी है जबकि आलोचना करने वाले, प्रवचन व धर्मज्ञान बांटने वाले, लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले, ऐसी प्राकृतिक आपदा का भी राजनैतिक लाभ उठाने वाले तथा इस प्रलयकारी विपदा में लूटपाट, चोरी,व्याभिचार जैसे दुष्कर्मों को अंजाम देने वालों की बड़ी संख्या है और प्राय: ऐसे ही लोग नकारात्मक बयानबाज़ी पर भी अधिक विश्वास करते हैं। परंतु हकीकत तो यही है कि तमाम भविष्यवाणियों व चेतावनियों के बावजूद इन प्रलयरूपी प्राकृतिक विपदाओं की तीव्रता को कम कर पाना या इनका सामना कर पाना कम से कम मनुष्य के लिए तो कतई संभव नहीं है।

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  1. निर्मल रानी जी इस वेवाक विश्लेषण के लिए धन्यवाद. आपने जो कहा वह करीब करीब ठीक ही लगता है,पर आपके पास इसका क्या उत्तर है क़ि २००४ के सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रवंधन प्राधिकरण ( नेशनल डिज़ैस्टर मैनेजमेंट अथॉरटी ) बना था, उसने ने इन वर्षों में क्या किया? उनका घीसा पिटा उत्तर होगा,ऐसा तो कभी नहीं हुआ था.इसका कोई प्रेसिडन्स नहीं था. इस वक्तव्य के बचाव में आपका क्या तर्क है?
    मुंबई पर आक्रमण के समय हमारे एन एस जी कमांडो को पहुंचने में जो समय क़ी जो बर्बादी हुई थी और जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के मृत्यु का कारण बना था,उसके उन दुषपरिणामों के बावजूद हमारी अन्वेषक टीम बोधगया में दूसरे दिन पहुँच पाई. यह निश्चेष्ट प्रवृति कब ख़त्म होगी?

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