पानी रे पानी तेरा रंग कैसा . . . .

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लिमटी खरे

पानी को लेकर विश्वयुद्ध तक होने की बात कही जा रही है। पानी को सुरक्षित रखना आज सबसे बड़ी चुनौति है। देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी को साफ पानी मुहैया नहीं है। शहरों में कांक्रीट जंगलों के कारण भूमिगत जल स्तर में कमी किसी से छिपी नहीं है। बारिश का पानी सहेजने में किसी को भी दिलचस्पी नहीं दिखती। माना जाता है कि बोतलबंद पानी लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, फिर भी शुद्ध और आरओ पानी के नाम पर लोग इसका धड़ल्ले से सेवन करते दिखते हैं। यही नही पानी अब पाऊच में भी बिकता दिखता है। पाऊच में पानी की गुणवत्ता कैसी है यह देखने की फुर्सत किसी को भी नही है। देखा जाए तो बोतल बंद पानी आम पानी से चार हजार गुना ज्यादा मंहगा होता है, पर क्या किया जाए आज के युग में बोतल बंद पानी मानो स्टेटस सिंबल बन चुका है। देश के नब्बे फीसदी लोगों को साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि माना जाता है कि पानी के कारण ही सत्तर प्रतिशत से ज्यादा बीमारियां होती हैं।

कविवर रहीम का दोहा रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून  . . आज के आधुनिकता के युग में भी बहुत अधिक प्रासंगिक लगता है। सच ही है बिना पानी के सब कुछ सूना सूना ही है। हमारे देश में पानी का विशाल भंडार लिए नदी, नालों, तालाबों की कमी नहीं है, फिर भी दो तिहाई से अधिक आबादी के कंठ सूखे ही रह जाते हैं। देश में जितने भी बांध, नदी तालाब या अन्य जल स्त्रोत हैं उनमें बारिश का पानी जाकर भरता है। नदियों पर बांध बनाए गए हैं। बारिश के मौसम में नदियों से बहने वाले पानी के साथ लकड़ी, कंकर पत्थर और अन्य चीजें भी बहकर इन बांधों की तलहटी में जाकर जमा हो जाती हैं, जिससे इनका जल भराव क्षेत्र कम हो जाता है।

प्राचीन काल से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक पानी को यात्रा के दौरान साथ ले जाने के लिए सुराही, छागल आदि का प्रयोग किया जाता रहा है। इन साधनों में पानी शुद्ध होने के साथ ही साथ नैसर्गिक रूप से शीतल बना रहता था। अस्सी के दशक के आगाज के साथ ही पानी को प्लास्टिक में कैद कर बेचने का काम शुरू हुआ और नब्बे के दशक तक यह धंधा पूरे शबाब पर आ गया। जगह जगह पीनेे के पानी के लिए मिनरल वाटर के नाम पर न जाने कितने ब्रांड बाजारों में आ गए। इतना ही नहीं सस्ते सुलभ पानी के पाउच ने भी जोरदार तरीके से अपनी आमद बाजार में दर्ज करवाई। अब तो हर जगह बोतलबंद पानी और पाउच का ही जोर नजर आता है। बड़े व्यापारिक घरानों के साथ ही साथ स्थानीय स्तर पर भी पानी का व्यवसायिक स्वरूप दिखाई देने लगा है, दिखे भी आखिर क्यों न, सत्तर फीसदी मुनाफे का धंधा जो ठहरा।

आर ओ के नाम पर जिस तरह का पानी बाजारों में बेचा जा रहा है उसकी जांच शायद ही कभी की जाती हो। यहां तक कि गर्मी के मौसम में मशीनों से ठण्डा किया गया पानी भी लोगों के घरों में बीस लीटर के केन्स में दिखाई दे जाता है। सोशल मीडिया पर अनेक वीडियो भी वायरल हुए हैं, जिनमें साधारण नल से पानी भरकर उसमें अमानक बर्फ मिलाई जाकर इसे ठण्डा किया जाता है। इसके अलावा शहरों में एक से दो रूपए गिलास बिकने वाला मशीन से ठण्डा किया गया पानी भी शुद्धता के पैमाने पर खरा नहीं उतरता है।

विशेषज्ञों के मुताबिक तमाम प्रयासों के बावजूद भी बोतल बंद पानी की शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुनिया के चौधरी अमेरिका के खाद्य एवं औषधी प्रशासन (फुड एण्ड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन) के कठोरतम नियम कायदों के बावजूद भी वहां 38 फीसदी पानी स्वास्थ्य के लिए हानीकारक ही पाया गया। जब सबसे ताकतवर देश जहां से विज्ञान और प्रोद्योगिकी की दिशा और दशा तय होती हो, वहां का यह आलम है तो फिर भारत में बोतल बंद पानी को सुरक्षित कैसे माना जा सकता है।

इतना ही नहीं सर्वेक्षण से यह तथ्य भी सामने आया है कि एक लीटर बोतलबंद पानी को बनाने मंे पांच लीटर भूजल बर्बाद हो जाता है। वहीं दूसरी ओर भारत में पानी बनाने वाली कंपनियां एक हजार लीटर भूजल दोहन के एवज में महज 30 पैसे उपकर चुकाती हैं, और एक लीटर बोतल बंद पानी को बाजार मंे 12 से 15 रूपए में बेचती हैं।

पेसिफिक इंस्टीट्यूट ऑफ केलीफोनिर्या के सर्वेक्षण के अनुसार 2004 में अमेरिका में 26 अरब लीटर बोतलबंद पानी की बोतलों के निर्माण में दो करोड़ बेरल तेल की खपत की गई थी। उपयोग के उपरांत खाली बोतल निश्चित तौर पर पर्यावरण के लिए भारी खतरा ही पैदा करती हैं।

लाख टके का सवाल तो यह है कि आखिर बोतलबंद पानी या पाउच का धंधा हिन्दुस्तान जैसे देश में कैसे फल फूल रहा है, जबकि यहां पानी के अनगिनत स्त्रोत मौजूद हैं? इसका उत्तर भी आईने की तरह ही साफ है कि पानी के स्त्रोंतों का रखरखाव उचित तरीके से न किए जाने के कारण लोगों का भरोसा नलों से आने वाले पानी पर से उठता जा रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के महानगरांे में नलों से आने वाले पानी का उपयोग पीने से इतर ही किया जाता है। पेयजल के तौर पर महानगरों में बीस से पच्चीस लीटर के बोतल बंद पानी का ही उपयोग अस्सी फीसदी लोग किया करते हैं।

सरकारें भी पानी के इस नए व्यवसाय में पूरी तरह रम गईं दिखतीं हैं। 21वीं सदी के आगमन के साथ ही गरमी के मौसम में जगह जगह खुलने वाली प्याउ भी अब दिखाई नहीं पड़तीं। लगता है सरकारों ने मान लिया है कि एक रूपए में मिलने वाले पानी के कृत्रिम रूप से ठंडे किए गए पाउच से गरीब जनता अपनी प्यास बुझा सकती है, तो फिर प्याऊ खोलना औचित्यहीन ही है। कुछ सामाजिक संगठनों के द्वारा ग्रीष्म ऋतु में पानी के लिए मशीनें लगाई जाती हैं, इन मशीनों के जरिए मिलने वाला पानी निशुल्क तो होता है पर इसकी गुणवत्ता क्या है इस बारे में शायद ही कोई जानता हो।

सरकारें भूल जाती हैं कि इंसान तो अपनी प्यास इस प्लास्टिक में बंद पानी से बुझा सकता है, किन्तु जानवर और पशु पक्षी बोतल बंद पानी कहां से खरीदेंगें और कैसे अपनी प्यास बुझाएंगे। संवेदनशील होने का दावा करने वाली सरकारें, स्थानीय निकाय कितने संवेदनहीन हैं, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जानवरों और पशु पक्षियों के लिए भी पानी मयस्सर नहीं हो पा रहा है, आज के आधुनिक युग में।

आज मनुष्य भी काफी हद तक अपने तक ही सीमित रह गया है यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। यह कहने के पीछे ठोस आधार यह है कि आज गर्मी के मौसम में सामाजिक संस्थाओं और लोगों के द्वारा पशु पक्षियों के पीने के लिए पानी नहीं रखा जाता है। कुछ दशकों पहले तक कमोबेश हर घर के सामने एक पात्र रखा होता था, जिसमें पानी भरा होता था और पशु पक्षी इसके जरिए अपनी प्यास बुझाते थे। आज ऐसा होता दिखता नहीं है।आज जरूरत इस बात की है कि नदियों में कुछ कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्टॉप डेम बनाए जाएं। नदियों, जलाशयों, बांधों और अन्य जल स्त्रोतों का समय रहते गहरीकरण किया जाए। रेन वाटर हार्वेस्टिंग को सख्ती के साथ लागू किया जाए, ताकि बारिश के पानी को ज्यादा से ज्यादा सहेजा जा सके। अभी भी हम नहीं चेते तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में पानी को लेकर विश्व युद्ध हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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