एक-दूसरे को मुंह चिढ़ाते दो विधान, वक्फ और पूजा स्थल अधिनियम एक-दूजे के विपरीत दो कानून कैसे हो सकते हैं_

संयुक्त संसदीय समिति को वक्फ अधिनियम पर विचार करने के लिए कुछ और समय मिल गया है। अब यह समिति अपनी रपट संसद के अगले सत्र यानी बजट सत्र में प्रस्तुत करेगी। इस समिति की बैठकों में विपक्षी दलों के सांसदों ने जैसा हंगामा किया, उसे देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि सर्वसम्मति से कोई रपट सामने आ सकेगी।

विपक्षी सांसदों की मानें तो वक्फ अधिनियम में किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं। उनका यह निष्कर्ष तब है, जब हाल में कर्नाटक में किसानों की 15 सौ एकड़ जमीन और केरल में छह सौ ईसाइयों की संपत्ति पर वक्फ बोर्डों के दावे को खारिज करने और पीड़ितों के हितों की रक्षा करने का आश्वासन देने के लिए वहां के मुख्यमंत्रियों को आगे आने पड़ा।

जो इसका रोना रो रहे हैं कि वक्फ संपत्तियां अतिक्रमण और अवैध कब्जे का शिकार हैं, वे भी वक्फ अधिनियम में बदलाव के विरोधी हैं। यह हास्यास्पद है कि कर्नाटक, केरल और सूरत एवं वाराणसी के मामलों से परिचित लोग भी यह दावा करने में लगे हुए हैं कि यह महज अफवाह है कि वक्फ बोर्ड मनमाने तरीके से किसी संपत्ति को अपनी बता सकते हैं।

यदि यह सही है तो फिर कर्नाटक के किसानों और केरल के ईसाई परिवारों की जमीन पर वक्फ बोर्ड ने दावा कैसे कर दिया? ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें वक्फ बोर्डों के फर्जी दावे की कलई खुली है। कई राज्यों में वक्फ संपत्ति से जुड़े घोटाले भी सामने आ चुके हैं, फिर भी जिद यही है कि मौजूदा वक्फ अधिनियम में सब कुछ सही है।

एक ओर वक्फ अधिनियम के रूप में देश में एक ऐसा कानून है, जिसके तहत वक्फ बोर्ड किसी भी संपत्ति पर अपना दावा कर सकते हैं और दूसरी ओर पूजा स्थल अधिनियम के रूप में एक ऐसा कानून भी है, जो किसी भी धार्मिक स्थल में बदलाव का निषेध करता है, भले ही इसके अकाट्य प्रमाण हों कि 1947 से पहले उसका धार्मिक स्वरूप भिन्न था। इस कानून का उद्देश्य धार्मिक स्थलों को उसी स्वरूप में बनाए रखना है, जो 15 अगस्त 1947 को था। इस कानून से केवल राम मंदिर मामले को बाहर रखा गया था।

सुप्रीम कोर्ट का आकलन है कि उक्त कानून किसी स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाने का निषेध नहीं करता। इसी कारण वाराणसी में ज्ञानवापी और धार में भोजशाला परिसर का सर्वे संभव हो सका। बहुचर्चित संभल की जामा मस्जिद का सर्वे भी इसीलिए हुआ। मथुरा की ईदगाह मस्जिद के सर्वे का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। हिंदू संगठन कुछ और धार्मिक स्थलों के सर्वे की मांग कर रहे हैं।कहना कठिन है कि यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा।

इस सिलसिले को देखकर यह आवाज उठी है कि पूजा स्थल अधिनियम के तहत किसी भी स्थल के धार्मिक स्वरूप का पता लगाने की अनुमति न दी जाए। इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो, यह देखना विचित्र है कि एक कानून तो किसी को किसी भी संपत्ति पर दावा करने का अधिकार देता है और एक अन्य कानून किसी को अपने धार्मिक स्थलों पर बलात कब्जे के खिलाफ आवाज उठाने से भी रोकता है। क्या यह न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप है?

यदि किसी के साथ अन्याय हुआ है तो क्या उसे उसके खिलाफ अदालत जाने का भी अधिकार नहीं मिलना चाहिए? क्या एक देश में एक-दूसरे के विपरीत दो तरह के विधान हो सकते हैं? यदि मान्यता यह है कि 15 अगस्त 1947 के पहले देश में जो कुछ हुआ, उसे भुला दिया जाए तो क्या इसी आधार पर कोई यह तर्क भी दे सकता है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के साथ जो अन्याय हुआ, उसे भुला दिया जाए और उनके उत्थान के जो उपाय किए जा रहे हैं, उनसे मुक्ति पा ली जाए?

यह समझा जाना चाहिए कि अतीत के घावों की अनदेखी करने से वे भरते नहीं। वे तब भरते हैं, जब अतीत के अन्याय को स्वीकार किया जाता है। ऐसा तब संभव होता है, जब अतीत के अत्याचारों का पता लगाने के लिए सत्य के सम्मुख जाया जाता है। कई देशों में यह काम ट्रुथ एंड रिकंसलिएशन कमीशन के जरिये हुआ है। जैसे दक्षिण अफ्रीका में इस आयोग का उद्देश्य अतीत के अत्याचारों को उजागर करना और श्वेत एवं अश्वेत समुदाय के बीच समन्वय-सद्भाव कायम करना था।

दक्षिण अफ्रीका के अलावा कनाडा, कोलंबिया समेत दर्जनों देशों में सत्य एवं समन्वय आयोग बन चुके हैं। भारत में भी अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले पर मुहर लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी हिंदुओं पर अत्याचारों का पता लगाने के लिए ट्रुथ एंड रिकंसलिएशन आयोग बनाने को कहा था।

यदि मंदिर-मस्जिद से जुड़े विवादों का हल करने के साथ हिंदू-मुस्लिम संबंध सामान्य-सहज करने हैं तो उसका रास्ता ऐसे किसी आयोग के जरिये ही मिल सकता है, न कि अतीत के अन्याय पर पर्दा डालने से या इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने से। निःसंदेह हर मंदिर पर बनी मस्जिद-दरगाह को खाली नहीं कराया जा सकता, लेकिन उसके मूल स्वरूप का सच जानकर सुलह का मार्ग अवश्य प्रशस्त किया जा सकता है।

राजीव सचान

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